रविवार, नवंबर 10, 2013

लक्ष्मणपुर-बाथे वह आइना है जिसमें चैनलों का संकीर्ण-पूर्वाग्रही-अभिजात्य चेहरा देखा जा सकता है

क्यों महत्वपूर्ण है लक्ष्मणपुर-बाथे का मुद्दा?

दूसरी और आखिरी क़िस्त 
ध्यान रहे कि पिछले कुछ सालों में बिहार में दलितों के नरसंहार के कम से कम चार मामलों में हाई कोर्ट ने निचली अदालतों के फैसलों को पलटते हुए सभी अभियुक्तों को बरी करने का फैसला सुनाया है.
लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में ताजा फैसले से पहले पिछले साल बिहार के भोजपुर जिले के बथानी-टोला गांव में २१ निर्दोष दलित-मुस्लिम महिलाओं, बच्चों और पुरुषों के नरसंहार मामले में भी पटना हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए २३ अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर बरी कर दिया था.
हालाँकि आरा सेशन कोर्ट ने इस मामले में कुल ६८ आरोपियों में से तीन को फांसी और २० को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी.
क्या यह एक निश्चित पैटर्न की ओर इशारा नहीं करता है? उदाहरण के लिए, बिहार के मियांपुर, नगरी, बथानी टोला और लक्ष्मणपुर बाथे में अलग-अलग घटनाओं में कुल ११३ निर्दोष गरीब दलित-पिछड़े-मुस्लिम महिलाओं-बच्चों और पुरुषों के नृशंस नरसंहार का आरोप रणवीर सेना पर लगा, तमाम दबावों-धमकियों के बावजूद दर्जनों प्रत्यक्षदर्शियों ने गवाही देने की हिम्मत दिखाई, निचली अदालतों ने इन गवाहियों और सबूतों का संज्ञान लिया और कई आरोपियों को फांसी से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा भी सुनाई.

लेकिन इसके बावजूद इन सभी मामलों में पटना हाई कोर्ट ने गवाहों को अविश्वसनीय मानते हुए और जांच में तकनीकी चूकों का हवाला देते हुए सभी अभियुक्तों को ‘संदेह का लाभ’ देकर बरी कर दिया.        

गोया मियांपुर से लेकर लक्ष्मणपुर-बाथे तक सामूहिक तौर पर मारे गए गरीब दलितों का नरसंहार किसी ने नहीं किया हो और वे खुद ही मर गए हों! इस फैसले से यही अर्थ निकलता है. सवाल यह है कि आखिर इन नरसंहारों में मारे गए ११३ निर्दोष गरीब दलितों की निर्मम हत्याओं के लिए कौन जिम्मेदार है?
हाई कोर्ट का कहना है कि पुलिस और अभियोजन पक्ष ने जांच ठीक से नहीं की, निर्दोषों को इस मामले में फंसाया और असली दोषियों की खोज नहीं की जिसके कारण इन नरसंहारों के दोषी बच निकले. यह और बात है कि इन सभी मामलों में निचली अदालतों ने इसी जांच, गवाहियों और सबूतों को विश्वसनीय मानते हुए आरोपियों को कड़ी सजा सुनाई थी.
सवाल यह भी है कि नरसंहार के इन सभी मामलों में हाई कोर्ट के फैसलों के आलोक में क्या इनकी जांच करनेवाले पुलिस अधिकारियों की लापरवाही, अपराधियों को पकड़ने और ठोस सबूत जुटाने में उनकी नाकामी की जांच होगी? क्या इन पुलिस अफसरों की जवाबदेही तय होगी?

मुश्किल यह है कि इन नरसंहारों की जांच के लिए तत्कालीन राबड़ी देवी सरकार द्वारा गठित अमीर दास आयोग को जांच रिपोर्ट देने से पहले ही राज्य में ‘सुशासन’ और ‘न्याय के साथ विकास’ के दावे करनेवाली नीतिश कुमार की सरकार ने भंग कर दी.

सवाल यह है कि अमीर दास आयोग को क्यों भंग किया गया? यह भी कि क्या हाई कोर्ट के इन फैसलों के बाद बिहार की नीतिश सरकार को अपने फैसले पर कोई अफसोस और शर्मिंदगी है?

ये सवाल उठाने इसलिए जरूरी हैं कि बिहार में गरीब दलितों-पिछडों-अल्पसंख्यकों के नरसंहार के मामलों में कानून और न्याय का जिस तरह से मजाक उड़ाया जा रहा है, नरसंहारों के अपराधी साफ़ बच निकल रहे हैं, उससे यह सन्देश जा रहा है कि दलित न सिर्फ दूसरे दर्जे के नागरिक हैं बल्कि उनके सामूहिक नरसंहार जैसे गंभीर मामलों में भी अपराधियों को कोई सजा नहीं होती है.
क्या यही कारण नहीं है कि बिहार में ७० के दशक से दलितों के नरसंहार की दो-चार-आठ नहीं बल्कि कुल ८७ से ज्यादा घटनाएं हुई हैं खासकर ९० के दशक में सवर्ण अपराधियों की रणवीर सेना ने कानून के राज को खुलेआम धता बताते हुए दलितों का कत्लेआम किया?
लेकिन दलितों को दूसरे दर्जे का नागरिक बल्कि जानवरों से भी बदतर समझने की यह मध्ययुगीन मानसिकता बिहार तक सीमित नहीं है. कमोबेश पूरे देश में यह मानसिकता अपनी पूरी विद्रूपता के साथ मौजूद है. कारण वही हैं.

दलितों की हत्या-नरसंहार से लेकर दलित उत्पीडन मामलों में दोषियों को बिरले ही सजा होती है. महाराष्ट्र में खैरलांजी नरसंहार हो या आंध्र प्रदेश में करमचेदू नरसंहार जैसी बहुचर्चित घटनाएं इसकी सबूत हैं. आश्चर्य नहीं कि बिहार ही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में भी दलितों के सामूहिक नरसंहार, दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार और उनपर अमानवीय जुल्म-उत्पीडन ढाने की घटनाएं रोजाना खबरों में आती रहती हैं.

दूर क्यों जाएँ, देश की राजधानी दिल्ली से कुछ किलोमीटर दूर हरियाणा में दलित समुदाय को जिस तरह से निशाना बनाया जा रहा है, दैनिक अपमान-उत्पीडन और सामूहिक बहिष्कार से लेकर दलित बस्ती जलाने, उनके घरों में लूटपाट करने, दलित महिलाओं के साथ बलात्कार और दलितों की हत्याएं आम हैं लेकिन दलितों को पुलिस में एफ.आई.आर लिखाने तक में संघर्ष करना पड़ता है और अपराधी खुलेआम घूमते रहते हैं, वह किसी भी सभ्य समाज में स्वीकार्य नहीं किया जा सकता है.
लेकिन हरियाणा में यह आम बात है और सबसे अधिक अफ़सोस और चिंता की बात यह है कि पुलिस-प्रशासन से लेकर राज्य सरकार और कांग्रेस-भाजपा-लोकदल जैसी प्रमुख पार्टियों तक ने मध्ययुगीन जातिवादी खाप पंचायतों के आगे घुटने टेक रखा है.  
चैनलों के लिए टेस्ट केस था लक्ष्मणपुर-बाथे

लेकिन इस मामले में खाप पंचायतों के आगे केवल राजनीतिक पार्टियां, पुलिस-प्रशासन और राज्य सरकार ने ही घुटने नहीं टेक रखे हैं बल्कि अधिकांश अखबारों/चैनलों ने भी घुटने टेक रखे हैं. हरियाणा में दलित उत्पीडन की घटनाओं की रिपोर्टें दिल्ली से प्रकाशित राष्ट्रीय अखबारों और न्यूज चैनलों में अपवाद की तरह ही दिखती हैं, उसपर सम्पादकीय पन्नों या प्राईम टाइम चर्चा तो और भी दुर्लभ है.

इसी तरह राष्ट्रीय अखबारों/चैनलों में चाहे खैरलांजी नरसंहार और बलात्कार मामला हो या तमिलनाडु में संगठित तरीके से दलित समुदाय को निशाना बनाने की घटनाएं- वे कभी-कभार ही जगह बना पाती हैं. यही नहीं, इन मामलों की रिपोर्टिंग में अधिकांश न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में वह नैतिक उद्वेलन और क्षोभ नहीं दिखाई देता है जो जेसिका लाल या प्रियदर्शिनी मट्टू या निर्भया या इस जैसे अन्य मामलों में दिखता रहा है.

हैरानी की बात नहीं है कि इक्का-दुक्का अख़बारों को छोड़कर अधिकांश अखबारों/न्यूज चैनलों ने लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार मामले में हाई कोर्ट के फैसले को अनदेखा किया और उसे प्राइम टाइम चर्चाओं और विशेष रिपोर्ट के लायक नहीं माना.
भले लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार को तत्कालीन राष्ट्रपति के.आर. नारायणन ने ‘राष्ट्रीय शर्म’ बताया था लेकिन न्यूज मीडिया और न्यूज चैनलों को इसमें कोई शर्म नहीं दिखाई देता है और न ही उन्हें अपनी आत्मा पर कोई बोझ महसूस होता है. इसलिए चैनलों में हाई कोर्ट के फैसले पर कोई सवाल नहीं है या लक्ष्मणपुर-बाथे के पीड़ितों को न्याय नहीं मिलने की कोई बेचैनी नहीं दिखाई देती है.
साफ़ है कि जिस तरह से दलितों के संगठित और सुनियोजित अपमान-उत्पीडन, बलात्कार और नरसंहार के अधिकांश मामलों में पुलिस-प्रशासन, राज्य सरकारें और राजनीतिक दल सवर्ण मध्ययुगीन सामंती गिरोहों, सेनाओं, खापों के हमलों में सक्रिय भागीदार दिखते हैं, उसी तरह न्यूज मीडिया खासकर चैनल भी इन हमलों को अनदेखा करने या उन्हें दबाने के कारण उसमें परोक्ष भागीदार दिखाई देते हैं.

असल में, चैनलों सहित पूरे न्यूज मीडिया में दलितों पर होनेवाले संगठित अत्याचारों और उत्पीडन के मामलों में जिस तरह की बेखबरी और उदासीनता दिखाई देती है, वह कोई संयोग नहीं है. उसमें एक सुनिश्चित पैटर्न साफ़ देखा जा सकता है.

दरअसल, ‘समाचार’ भी एक ‘सामाजिक निर्मिति’ (सोशल कंस्ट्रक्ट) हैं. इस कारण ‘समाचार’ तैयार करने और उसे पेश करनेवाले पत्रकारों, संपादकों और स्तम्भ लेखकों से लेकर न्यूज मीडिया कंपनियों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, परिपेक्ष्य, वैचारिकी, निजी-संस्थागत हित और व्यापक राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक ढांचे में उनकी अवस्थिति की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है.
इन सभी का ‘समाचारों’ के संकलन से लेकर प्रस्तुति तक में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. हैरानी की बात नहीं है कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ में दलितों पर अत्याचार-उत्पीडन के मुद्दे ही ‘अस्पृश्य’ नहीं हैं बल्कि उसके अंदर दलित समुदाय के पत्रकार, एंकर, संपादक, चर्चाकार और स्तंभ लेखक भी पूरी तरह से अनुपस्थित हैं.
जाहिर है कि इन दोनों तथ्यों के बीच के अंतर्संबंध को अनदेखा करना मुश्किल है. इसी तरह इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है कि चैनल जिस वर्चस्वशाली सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक वर्ग के वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसके हित और सबसे दबे-कुचले और सर्वहारा दलित समुदाय के हितों के बीच स्पष्ट टकराव है.

कहने की जरूरत नहीं है कि दलित उत्पीडन, बलात्कार से लेकर नरसंहार तक की घटनाएं इसी टकराव का नतीजा हैं. यह भी दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस टकराव में न्यूज चैनल कहाँ और किस ओर खड़े हैं. इस मुकाम पर आकर चैनलों के ‘जनतंत्र’ का असली चेहरा साफ़ हो जाता है.

असल में, लक्ष्मणपुर-बाथे वह आइना है जिसमें चैनलों के ‘जनतंत्र’ का सीमित-संकीर्ण-पूर्वाग्रही-अभिजात्य चेहरा देखा जा सकता है. इस मायने में लक्ष्मणपुर-बाथे एक टेस्ट केस था कि चैनलों के ‘जनतंत्र’ का कितना विस्तार हुआ है लेकिन अफ़सोस यह है कि बिना किसी अपवाद के सभी चैनल इसमें एक बार फिर फेल हो गए.
 
('कथादेश' के नवंबर'13 अंक में प्रकाशित स्तंभ)