शुक्रवार, अक्तूबर 05, 2012

नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की असलियत

लोहे का स्वाद, लोहार से नहीं, घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है


खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) और डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी का विरोध कर रही विपक्षी राजनीतिक पार्टियां खासकर भाजपा इस सच्चाई को छुपाने की कोशिश कर रही है कि यू.पी.ए सरकार के ये फैसले उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और आर्थिक सुधारों के अगले चरण के रूप में आए हैं जिन्हें भाजपा समेत विपक्ष की ज्यादातर पार्टियां और उनकी केन्द्र या राज्य की सरकारें आँख मूंदकर लागू करती रही हैं.
आश्चर्य नहीं कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन फैसलों के बचाव में १९९१ में शुरू हुए आर्थिक सुधारों का हवाला दे रहे हैं और चुनौती देते हुए कह रहे हैं कि उस समय भी इन सुधारों का विरोध किया गया था, लोगों को डराने की कोशिश की गई थी लेकिन देश जानता है कि इन सुधारों के कारण देश की भारी तरक्की हुई, समृद्धि आई और आम आदमी का जीवन बेहतर हुआ है.
भाजपा और दूसरी विपक्षी पार्टियां इस चुनौती का जवाब देने से बच रही हैं और वह पिछले दो दशकों से जारी नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और उनके तहत उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों के नतीजों पर चर्चा से कन्नी काटने की कोशिश कर रही हैं. उनकी परेशानी समझी जा सकती है.

आखिर वे भी न सिर्फ इन नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और सुधारों के खुले समर्थक हैं बल्कि उसके कारण देश में आई कथित “तरक्की, समृद्धि और आम आदमी के जीवन की बेहतरी” के दावों के भोंपू बने हुए हैं. इसलिए उनसे यह उम्मीद करना बेकार है कि वे इन दावों पर सवाल उठाएंगे.

लेकिन खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के सन्दर्भ में शुरू हुई बहस के कारण यह सवाल बहुत मौजूं हो गया है कि इन दावों में कितनी सच्चाई है कि १९९१ में शुरू हुए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण देश की भारी तरक्की हुई है, समृद्धि आई है और आम आदमी का जीवन बेहतर हुआ है?
इससे पहले कि इन दावों को एक सर्वमान्य सत्य मान लिया जाए, इनकी पड़ताल जरूरी हो गई है क्योंकि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और उनके तहत लिए गए ताजा फैसलों को देश की हर समस्या के रामबाण इलाज की तरह पेश किया जा रहा है और इसके लिए पिछले दो दशकों में इन नीतियों और सुधारों के कारण हुए “आर्थिक चमत्कार” को सबूत की तरह पेश किया जा रहा है.
यह सही है कि इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के कारण पिछले दो दशकों में आर्थिक विकास यानी जी.डी.पी की वृद्धि दर में तेजी आई है और वह औसतन ७ से ८ फीसदी के बीच रही है. यह भी सही है कि इसके साथ भारी आर्थिक समृद्धि आई है. लेकिन इनसे ज्यादा बड़ा सच यह है कि इस आर्थिक समृद्धि का सबसे बड़ा हिस्सा बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों, बड़े निवेशकों, टाप मैनेजरों, अमीरों, शहरी मध्य और उच्च मध्यवर्ग और ग्रामीण कुलकों के अलावा नेताओं-अफसरों-दलालों-माफियाओं-ठेकेदारों की जेब में गया है.

हालाँकि इनकी संख्या देश की कुल आबादी के ३ से ५ फीसदी भी नहीं होगी लेकिन उनके घरों, रहन-सहन और जीवनशैली में जो समृद्धि और तड़क-भड़क आई है, वह अभूतपूर्व है. उनमें और दुनिया के सबसे विकसित देशों के अमीरों की जीवनशैली और उपभोग में कोई खास फर्क नहीं है.

लेकिन दूसरी ओर देश की बड़ी आबादी खासकर छोटे-मंझोले और भूमिहीन किसानों असंगठित श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछडों, अल्पसंख्यकों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है बल्कि उल्टे उनकी स्थिति बद से बदतर हुई है.
इसके कारण अमीर और गरीब के बीच की खाई और तेजी से बढ़ी है और आर्थिक-सामाजिक गैर बराबरी कई गुना बढ़ गई है. सरकारी संगठन- एन.एस.एस.ओ के ६६ वें दौर (२००९-१०) के सर्वेक्षण के मुताबिक, अकेले यू.पी.ए- एक के कार्यकाल (२००४-२००९) में शहरी और ग्रामीण परिवारों के उपभोग व्यय में अंतर ९१ फीसदी तक पहुँच गया है.
उल्लेखनीय है कि इन वर्षों में जी.डी.पी की औसत वृद्धि दर ८.६४ प्रतिशत रही जोकि एक रिकार्ड है. यही नहीं, यू.पी.ए सरकार ने मनरेगा जैसी योजनाएं भी शुरू कीं, इसके बावजूद स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है. यही नहीं, एन.एस.एस.ओ के ताजा सर्वेक्षण (२०११-१२) के मुताबिक, ग्रामीण क्षेत्रों में आय के मामले में उपरी १० फीसदी और निचली १० फीसदी आबादी के बीच की कमाई में वृद्धि का अनुपात बढ़कर ६.९ हो गया है जबकि शहरों में इस अंतर का अनुपात बढ़कर १० से अधिक हो गया है.

इस बढ़ती गैर बराबरी का अंदाज़ा यू.पी.ए सरकार द्वारा गठित अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट से भी होता है जिसके अनुसार, देश में ७८ फीसदी आबादी २० रूपये से कम के उपभोग पर गुजारे के लिए मजबूर है.

यही नहीं, पिछले साल अक्टूबर में जब योजना आयोग ने ग्रामीण इलाके में २६ रूपये और शहरी इलाके में ३२ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया था तो देश में भारी हंगामा मचा था लेकिन सुप्रीम कोर्ट में इस साल दाखिल संशोधित हलफनामे में योजना आयोग ने इसे और घटाकर ग्रामीण इलाके में २२.४२ रूपये और शहरी इलाके में २८.३५ रूपये प्रतिदिन से अधिक खर्च करनेवालों को गरीबी रेखा से बाहर कर दिया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि यह गरीबी रेखा नहीं बल्कि भूखमरी रेखा है. साफ़ है कि आंकड़ों में गरीबी घटाई जा रही है लेकिन सच्चाई यह है कि इन दो दशकों में आर्थिक सुधारों और तेज आर्थिक वृद्धि दर के बावजूद देश में गरीबों की वास्तविक संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है.   
दूसरी ओर, देश में आबादी एक छोटे से हिस्से के पास आई समृद्धि ने भी सारे रिकार्ड तोड़ दिए हैं. ‘फ़ोर्ब्स’ पत्रिका के मुताबिक, देश में डालर अरबपतियों की संख्या ५५ तक पहुँच चुकी है. डालर अरबपतियों की कुल संख्या के मामले में भारत दुनिया के तमाम देशों में अमेरिका, रूस और चीन के बाद चौथे स्थान पर है.

यही नहीं, केपजेमिनी और रायल बैंक आफ कनाडा की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में डालर लखपतियों (दस लाख डालर या ५.६ करोड़ रूपये से अधिक संपत्ति) की संख्या पिछले साल १.२५ लाख थी. हालाँकि यह संख्या वास्तविकता से काफी कम है क्योंकि यह शेयर बाजार और आधिकारिक स्रोतों पर निर्भर है लेकिन इसके बावजूद डालर लखपतियों के मामले में भारत दुनिया के टाप देशों की सूची में है.

हैरानी की बात नहीं है कि देश के एक छोटे से हिस्से के उपभोग का स्तर दुनिया के टाप अमीरों से मुकाबला कर रहा है. यही कारण है कि दुनिया भर के सभी टाप लक्जरी ब्रांड्स और उनके उत्पाद देश के बड़े शहरों के शापिंग माल्स में उपलब्ध हैं. उनके लिए अब लन्दन, पेरिस या न्यूयार्क जाने की जरूरत नहीं है.
बड़े शहरों की सड़कों पर दौड़ रही नई और मंहगी कारों और एस.यू.वी को देखकर यह कहना मुश्किल है कि भारत एक विकासशील देश है जहाँ एक तिहाई आबादी को भरपेट भोजन भी नसीब नहीं है. लेकिन भारतीय अरबपतियों और अमीरों का उपभोग अश्लीलता की हदें भी पार करता जा रहा है. डालर अरबपतियों में से एक मुकेश अम्बानी ने मुंबई में एक अरब डालर यानी ५४०० करोड़ रूपये का २७ मंजिला घर बनवाया है.
यही नहीं, उन्होंने अपनी पत्नी को २५० करोड़ रूपये का निजी हवाई जहाज उपहार में दिया जबकि छोटे भाई अनिल अम्बानी ने अपनी पत्नी टीना अम्बानी को ४०० करोड़ रूपये की लक्जरी नौका उपहार में दी है.
विजय माल्या के किस्से सबको पता हैं. जाहिर हैं कि ये अपवाद नहीं हैं. ऐसे अमीरों की संख्या बढ़ती जा रही है. लेकिन दूसरी ओर ऐसे भारतीयों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जिनकी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो रही हैं. एक तिहाई से अधिक भारतीय भूखमरी के शिकार हैं. पांच वर्ष से कम उम्र के ४१ फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं जिसका मतलब है कि वे कभी भी स्वस्थ-कामकाजी जीवन नहीं जी पायेंगे. मातृ मृत्यु और शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत का रिकार्ड कई पडोसी देशों से भी बदतर है.

आश्चर्य नहीं कि तेज विकास दर और समृद्धि की बरसात के बावजूद भारत वर्ष २०११ में मानव विकास के मामले में संयुक्त राष्ट्र मानव विकास रिपोर्ट में दुनिया के १८७ देशों में १३४ वें स्थान पर था जबकि उसके पहले २०१० में भारत १६९ देशों की सूची में ११९ वें स्थान पर था.

जारी ....बाकी कल दूसरी किस्त में ...

('शुक्रवार' के 5 अक्तूबर के अंक में प्रकाशित लम्बे आलेख की पहली किस्त) 

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