राजकोषीय घाटे का हौव्वा दिखाकर आम आदमी की जेब
ढीली की जा रही है
समिति का आकलन है कि भारतीय अर्थव्यवस्था एक गंभीर राजकोषीय संकट के कगार पर खड़ी है और बिगड़ती राजकोषीय स्थिति को संभालने के लिए तुरंत कड़े कदम नहीं उठाये गए तो अर्थव्यवस्था के १९९१ जैसे संकट में फंसने की आशंका है. इससे पहले प्रधानमंत्री चेतावनी दे चुके हैं कि बिगड़ती राजकोषीय स्थिति को संभालने के लिए कड़े कदम उठाने पड़ेंगे क्योंकि पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं.
इसके तहत वह केलकर समिति द्वारा सुझाये रोडमैप के मुताबिक एक ओर पेट्रोलियम उत्पादों, राशन के अनाज और उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोत्तरी के जरिये सब्सिडी बजट में कोई ४० हजार करोड़ रूपये बचाने और दूसरी ओर, सरकारी कंपनियों के शेयरों की बिक्री से ३० हजार करोड़ रूपये से अधिक जुटाने और विकास के मद में होनेवाले खर्चों यानी योजना बजट में कटौती से कोई २० हजार करोड़ रूपये बचाने की योजना पर पूरी सक्रियता से काम कर रही है.
लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि क्या देश सचमुच १९९१ की तरह के राजकोषीय संकट में फंसने के कगार पर है या सिर्फ संकट का हौव्वा खड़ा करके आमलोगों पर और अधिक बोझ लादने की कोशिश की जा रही है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय देशों के आर्थिक-वित्तीय संकट और उससे निपटने के नामपर मितव्ययिता उपायों (आस्ट्रीटी) के तहत आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने के तरीकों को लेकर खुद उन देशों और पूरी दुनिया में जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है.
इसके लिए सरकारी खर्चों यानी सब्सिडी में कटौती जरूरी है, चाहे वह कितनी भी तकलीफदेह हो. अधिकांश यूरोपीय देशों की सरकारों से लेकर अपने प्रधानमंत्री तक और विश्व बैंक-मुद्रा कोष से लेकर बड़ी रेटिंग एजेंसियों तक सभी इसी राय के हैं.
चालू वित्तीय वर्ष के बजट में राजकोषीय घाटा जी.डी.पी का ५.१ फीसदी रहने का अनुमान पेश किया गया था और केलकर समिति के मुताबिक, अगर कड़े कदम नहीं उठाये गए तो यह एक फीसदी बढ़कर जी.डी.पी का ६.१ फीसदी हो जाएगा. लेकिन अगर लोगों पर ६० हजार करोड़ रूपये का बोझ डाल दिया जाए तो यह घाटा जी.डी.पी का ५.२ फीसदी रहेगा.
याद रहे कि सरकार ने वर्ष २०११-१२ में कार्पोरेट्स और अमीरों को टैक्स में कोई ५.११ लाख करोड़ रूपयों की छूट दी थी. क्या ‘बढ़ते राजकोषीय घाटे के कारण १९९१ के जैसे संकट के मुहाने’ पर खड़ी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कुछ कुर्बानी बड़ी पूंजी को भी नहीं करना चाहिए? क्या यू.पी.ए सरकार इस कड़े फैसले के लिए तैयार है?
('दैनिक भास्कर' के नई दिल्ली संस्करण में 3 अक्तूबर को आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
अगर आप डीजल की कीमतों में प्रति लीटर ५ रूपये और रसोई गैस के
सिलेंडरों की संख्या छह तक सीमित करने और उसके बाद के सिलेंडर की कीमत में दुगुनी
से भी ज्यादा की बढ़ोत्तरी के फैसले से बिगड़े घरेलू बजट को संभालने में जुटे हैं तो
आनेवाले महीनों में और कुर्बानियों के लिए तैयार हो जाइए.
केन्द्र सरकार की बिगड़ती
राजकोषीय स्थिति में सुधार के उपाय सुझाने के लिए पूर्व वित्त सचिव विजय केलकर की
अध्यक्षता में गठित समिति ने यू.पी.ए सरकार को सुझाव दिया है कि वह डीजल की कीमतों
में वृद्धि करे और इस वित्तीय वर्ष के आखिर तक उसपर दी जानेवाली सब्सिडी में ५०
फीसदी और अगले वित्तीय वर्ष (२०१३-१४) में उसे पूरी तरह समाप्त कर दे.
यही नहीं,
केलकर समिति ने यूरिया की कीमतों में तुरंत १० फीसदी और सार्वजनिक वितरण प्रणाली
(पी.डी.एस) से वितरित होनेवाले खाद्यान्नों की कीमतों में भी बढ़ोत्तरी की सिफारिश
की है.
केलकर समिति के मुताबिक, इन सिफारिशों का मकसद सरकार के बढ़ते सब्सिडी
बोझ को कम करना है क्योंकि पेट्रोलियम उत्पादों, उर्वरकों और खाद्यान्नों पर दी
जानेवाली सब्सिडी के कारण केन्द्र सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ता हुआ खतरनाक स्तर तक
पहुँच गया है. समिति का आकलन है कि भारतीय अर्थव्यवस्था एक गंभीर राजकोषीय संकट के कगार पर खड़ी है और बिगड़ती राजकोषीय स्थिति को संभालने के लिए तुरंत कड़े कदम नहीं उठाये गए तो अर्थव्यवस्था के १९९१ जैसे संकट में फंसने की आशंका है. इससे पहले प्रधानमंत्री चेतावनी दे चुके हैं कि बिगड़ती राजकोषीय स्थिति को संभालने के लिए कड़े कदम उठाने पड़ेंगे क्योंकि पैसे पेड़ पर नहीं उगते हैं.
हालाँकि केलकर समिति की रिपोर्ट को सार्वजनिक चर्चा के लिए जारी करते
हुए केन्द्रीय वित्त सचिव ने इसकी कुछ सिफारिशों को यू.पी.ए सरकार की समावेशी
विकास की नीति के विपरीत बताते असहमति जाहिर की है. लेकिन मनमोहन सिंह सरकार के
हालिया फैसलों और घोषणाओं से यह साफ़ है कि वह वैचारिक तौर पर न सिर्फ इस रिपोर्ट की
बुनियादी समझ और सिफारिशों से सहमत है बल्कि उसे लागू करने के लिए बेचैन भी है.
इसका सबूत यह है कि केलकर समिति ने ३ सितम्बर को सौंपी अपनी रिपोर्ट में डीजल में
प्रति लीटर ४ रूपये और वह भी चरणों में बढ़ोत्तरी की सिफारिश की थी लेकिन सरकार ने उससे
एक कदम आगे बढ़कर एक झटके में ५ रूपये प्रति लीटर की बढ़ोत्तरी कर दी. यही नहीं,
रसोई गैस के अतिरिक्त सिलेंडरों की कीमत भी मौजूदा कीमतों के दुगुने से भी ज्यादा
८८३ रूपये प्रति सिलेंडर कर दी है.
इस ताजा वृद्धि से सरकार ने २० हजार करोड़ रूपये और सार्वजनिक क्षेत्र
की चार बड़ी कंपनियों में विनिवेश से १५ हजार करोड़ रूपये उगाहने का इंतजाम कर
लिया है. लेकिन यह तो सिर्फ झांकी है.
केलकर समिति की सिफारिशों के मुताबिक यू.पी.ए सरकार आनेवाले महीनों में राजकोषीय
घाटे को जी.डी.पी के ५.१ फीसदी की सीमा में रखने के ऐसे और कई कड़े फैसले करने जा
रही है. इसके तहत वह केलकर समिति द्वारा सुझाये रोडमैप के मुताबिक एक ओर पेट्रोलियम उत्पादों, राशन के अनाज और उर्वरकों की कीमतों में बढ़ोत्तरी के जरिये सब्सिडी बजट में कोई ४० हजार करोड़ रूपये बचाने और दूसरी ओर, सरकारी कंपनियों के शेयरों की बिक्री से ३० हजार करोड़ रूपये से अधिक जुटाने और विकास के मद में होनेवाले खर्चों यानी योजना बजट में कटौती से कोई २० हजार करोड़ रूपये बचाने की योजना पर पूरी सक्रियता से काम कर रही है.
लेकिन इसका अर्थ यह भी है कि पहले से आसमान छूती महंगाई और पटरी से
उतरती अर्थव्यवस्था, ढहते औद्योगिक उत्पादन और गिरते निर्यात के कारण छंटनी,
तालाबंदी और वेतन-मजदूरी कटौती की मार से त्रस्त आमलोगों खासकर गरीबों, किसानों
आदि पर यू.पी.ए सरकार सीधे या परोक्ष रूप से कोई ६० हजार करोड़ रूपये का बोझ डालने
जा रही है.
मजे की बात यह है कि खुद केलकर समिति ने भी स्वीकार किया है कि इन
फैसलों से तात्कालिक और मध्यावधि तौर पर आमलोगों की आय और उनके उपभोग पर नकारात्मक
असर पड़ेगा. अल्पावधि में महंगाई बढ़ेगी. लेकिन समिति का तर्क है कि अगर आमलोग यह
तात्कालिक कष्ट और परेशानी उठाने के लिए तैयार नहीं होंगे तो बिगड़ती राजकोषीय
स्थिति बदतर स्थिति में पहुँच जाएगी और उस स्थिति में आमलोगों को और भी ज्यादा
तकलीफ उठानी पड़ेगी.
कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार भी इस तर्क से सहमत है. उल्लेखनीय
है कि प्रधानमंत्री ने ‘राष्ट्र के नाम सन्देश’ में साफ़ कहा था कि बदतर राजकोषीय
घाटे और बढ़ते कर्जों के कारण यूरोपीय देशों को वेतन और पेंशन तक में कटौती करनी पड़
रही है. प्रधानमंत्री के मुताबिक, भारत में यह स्थिति न आए, इसके लिए आसान रास्तों
को छोड़कर कड़े कदम उठाने का वक्त आ गया है. लेकिन बुनियादी सवाल यह है कि क्या देश सचमुच १९९१ की तरह के राजकोषीय संकट में फंसने के कगार पर है या सिर्फ संकट का हौव्वा खड़ा करके आमलोगों पर और अधिक बोझ लादने की कोशिश की जा रही है? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि मौजूदा वैश्विक आर्थिक संकट खासकर यूरोपीय देशों के आर्थिक-वित्तीय संकट और उससे निपटने के नामपर मितव्ययिता उपायों (आस्ट्रीटी) के तहत आमलोगों पर अधिक से अधिक बोझ लादने के तरीकों को लेकर खुद उन देशों और पूरी दुनिया में जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है.
इन उपायों के आलोचक और नोबल पुरस्कार अर्थशास्त्री पाल क्रुगमैन ने
हाल में इन मितव्ययिता उपायों की तीखी आलोचना करते हुए लिखा है कि ये पागलपन की हद
तक पहुँच गए हैं और इनसे यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की स्थिति सुधरने के बजाय और बिगड़
रही है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि राजकोषीय घाटे को कम करने के नामपर हो रही
कटौतियों के कारण आमलोगों की तकलीफ और परेशानियां इस हद तक बढ़ गईं हैं कि ग्रीस से
लेकर स्पेन तक लाखों लोग सड़कों पर उतर कर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और आर्थिक
संकट गंभीर राजनीतिक संकट में बदलता जा रहा है. इस कारण इन मितव्ययिता उपायों की
निरर्थकता पर तीखे सवाल उठने लगे हैं.
अर्थशास्त्रियों और नीति निर्माताओं में बहस का मुद्दा यह है कि
अर्थव्यवस्था के संकट में होने के कारण राजकोषीय घाटे की स्थिति बिगड़ रही है या
राजकोषीय घाटे के कारण अर्थव्यवस्था संकट में फंस गई है? नव उदारवादी आर्थिक
सैद्धांतिकी में आस्था रखनेवाले नीति निर्माताओं के मुताबिक, राजकोषीय घाटे और
बढ़ते कर्ज के कारण अर्थव्यवस्था संकट में आ गई है और इससे निपटने के लिए घाटे को
कम करना जरूरी हो गया है. इसके लिए सरकारी खर्चों यानी सब्सिडी में कटौती जरूरी है, चाहे वह कितनी भी तकलीफदेह हो. अधिकांश यूरोपीय देशों की सरकारों से लेकर अपने प्रधानमंत्री तक और विश्व बैंक-मुद्रा कोष से लेकर बड़ी रेटिंग एजेंसियों तक सभी इसी राय के हैं.
लेकिन दूसरी ओर कई कीन्सवादी अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस संकट
से निपटने के लिए खर्चों में कटौती और आमलोगों पर बोझ डालने के बजाय सरकारों को
खर्चों खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर आदि पर बढ़ोत्तरी करनी चाहिए. इससे लोगों को रोजगार
मिलेगा, उनकी आय बढ़ेगी, अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था पटरी पर आ
जाएगी जिससे सरकार का राजस्व भी बढ़ेगा और घाटा कम हो पायेगा.
लेकिन बड़ी वित्तीय
पूंजी को यह पसंद नहीं है क्योंकि इसमें अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र के बजाय
सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका बढ़ जाएगी. दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस आवारा
पूंजी के मुनाफे की बेलगाम भूख के कारण ही यह संकट पैदा हुआ है लेकिन वह इस संकट
की कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं है.
इसके उलट वह अपने मुनाफे की गारंटी की खातिर आमलोगों पर सारा बोझ
डालने के लिए सरकारों और नीति निर्माताओं को मजबूर कर रही हैं. भारत भी इसका अपवाद
नहीं है. यहाँ भी आर्थिक संकट खासकर बढ़ते राजकोषीय घाटे का हौव्वा खड़ा किया जा रहा
है. लेकिन यह संकट वास्तव में कितना गंभीर है? चालू वित्तीय वर्ष के बजट में राजकोषीय घाटा जी.डी.पी का ५.१ फीसदी रहने का अनुमान पेश किया गया था और केलकर समिति के मुताबिक, अगर कड़े कदम नहीं उठाये गए तो यह एक फीसदी बढ़कर जी.डी.पी का ६.१ फीसदी हो जाएगा. लेकिन अगर लोगों पर ६० हजार करोड़ रूपये का बोझ डाल दिया जाए तो यह घाटा जी.डी.पी का ५.२ फीसदी रहेगा.
इसका मतलब यह है कि इस आसमान छूती महंगाई के बीच आमलोगों की तकलीफ
बढ़ाने के बावजूद घाटे में कोई खास कमी नहीं होने जा रही है. ऐसे में सवाल यह उठता
है कि आखिर इसका सारा बोझ आमलोगों खासकर गरीबों और किसानों पर क्यों डाला जा रहा
है? क्या सरकार के पास इस कथित संकट से निपटने का कोई और विकल्प नहीं है?
असल में,
सरकार के पास विकल्प राजकोषीय घाटे को कम करने के ज्यादा आसान विकल्प हैं लेकिन वह
बड़ी पूंजी और अमीरों को नाराज नहीं करना चाहती है. केलकर समिति के मुताबिक, बढ़ते
राजकोषीय घाटे की एक वजह भारत में टैक्स-जी.डी.पी का घटता अनुपात भी है. उल्लेखनीय
है कि वर्ष २००७-०८ में केन्द्र सरकार के टैक्स-जी.डी.पी का अनुपात ११.९ फीसदी था
जो घटते हुए वर्ष २०११-१२ में १०.१ फीसदी रह गया.
इसका अर्थ यह हुआ कि अगर सरकार सिर्फ टैक्स-जी.डी.पी के अनुपात को
२००७-०८ के स्तर पर ले आए तो आमलोगों पर बोझ डाले बिना भी राजकोषीय घाटा जी.डी.पी
के ४.५ फीसदी रह जाएगा. लेकिन इसके लिए आम आदमी की सरकार का दावा करनेवाली यू.पी.ए
सरकार को विदेशी आवारा पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों को हर साल टैक्स में दी
जानेवाली छूटों/रियायतों में सिर्फ ५० फीसदी से भी कम की कटौती करनी पड़ेगी. याद रहे कि सरकार ने वर्ष २०११-१२ में कार्पोरेट्स और अमीरों को टैक्स में कोई ५.११ लाख करोड़ रूपयों की छूट दी थी. क्या ‘बढ़ते राजकोषीय घाटे के कारण १९९१ के जैसे संकट के मुहाने’ पर खड़ी अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कुछ कुर्बानी बड़ी पूंजी को भी नहीं करना चाहिए? क्या यू.पी.ए सरकार इस कड़े फैसले के लिए तैयार है?
('दैनिक भास्कर' के नई दिल्ली संस्करण में 3 अक्तूबर को आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)
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