गुरुवार, अक्तूबर 25, 2012

वित्तीय सुनामी को न्यौता

पेंशन और बीमा सुधारों के नामपर विदेशी पूंजी को न्यौते के निहितार्थ

पहली क़िस्त
कहते हैं कि जो इतिहास से सबक नहीं लेते, वे उसे दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं. ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने यह कथन नहीं सुना है. अगर सुना होता तो वह अर्थव्यवस्था के सबसे संवेदनशील वित्तीय क्षेत्र को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने से जुड़े जोखिमों को देखते हुए बीमा और पेंशन क्षेत्र में ४९ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) की इजाजत देने का फैसला इस तरह से आनन-फानन में नहीं करती.
खासकर यह जानते-समझते हुए कि अमेरिका में २००७-०८ में जो वित्तीय सुनामी आई और जिसके कारण अमेरिका सहित पूरी दुनिया आर्थिक-वित्तीय संकट में फंस गई, उसे लाने में बड़ी निजी वित्तीय कंपनियों खासकर निजी बैंकों, बीमा और पेंशन कंपनियों की सीधी भूमिका थी.
इन बड़ी निजी वित्तीय कंपनियों ने अधिक से अधिक मुनाफे के लालच में वित्तीय बाजार में जिस तरह की सट्टेबाजी की, मनमाने तौर-तरीके अपनाये और जोखिम लेने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए, उसका स्वाभाविक नतीजा वित्तीय सुनामी के रूप में सामने आया. यही नहीं, उस वित्तीय सुनामी में न सिर्फ उन कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा और कई उसमें डूब गईं बल्कि वे आज तक उससे उबर नहीं पाईं हैं.

एक रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के ३४ विकसित और अमीर देशों के संगठन- ओ.ई.सी.डी के सदस्य देशों की कुल पेंशन निधि को २००८ के वित्तीय संकट में ३.५ खरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा था. आज भी उन पेंशन निधियों की स्थिति यह है कि वर्ष २०११ में उनकी कुल निधि रिकार्ड २०.१ खरब डालर तक पहुँच गई लेकिन उनका औसत प्रतिलाभ नकारात्मक (-) १.७ फीसदी दर्ज किया गया.

इन पेंशन निधियों में सार्वजनिक और निजी पेंशन निधियां शामिल हैं. उनकी बदतर स्थिति का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वित्तीय सुनामी के चपेटे में आए अमेरिका, जापान, इटली, स्पेन, ग्रीस जैसे देशों की पेंशन निधियों का बीते साल औसत प्रतिलाभ नकारात्मक (-) २.२ से लेकर ३.६ प्रतिशत रहा.
अकेले जापान के सार्वजनिक पेंशन निधि को इस साल अप्रैल-जून के तीन महीनों में कुल २६.३१ अरब डालर का नुकसान उठाना पड़ा है. इन पेंशन निधियों को हो रहे नुकसान की सबसे बड़ी वजह यह है कि इन अमीर और विकसित देशों खासकर अमेरिका और यूरोप के देशों में वह वित्तीय बाजार खासकर शेयर बाजार अभी भी हांफ रहा है जिसमें इन निधियों ने निवेश कर रखा है.
इसका नतीजा यह हुआ है कि इन पेंशन निधियों के लिए अपनी प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में मुश्किल हो रही है. उसपर तुर्रा यह कि इस स्थिति से निपटने के नामपर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के पैरोकार पेंशन सुधारों का नुस्खा लेकर आ गए हैं जिसके तहत पेंशन लाभ की उम्र सीमा बढ़ाने जैसे कई प्रस्ताव किये जा रहे हैं.

यूरोप सहित ओ.ई.सी.डी के कई देशों में पेंशन पाने की उम्र सीमा यह कहकर बढ़ाई जा रही है कि लोगों की औसत आयु बढ़ रही है. अभी वहां सेवानिवृत्ति की औसत आयु ६५ वर्ष है जिसे बढ़ाकर ६७ साल या उससे अधिक किया जा रहा है ताकि पेंशन देनदारियों को टाला जा सके. यही नहीं, खुद ओ.ई.सी.डी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन सुधारों के कारण आनेवाले वर्षों में सेवानिवृत्त होनेवालों को औसतन २० से २५ फीसदी पेंशन लाभ कम मिलेंगे.

लेकिन इन कथित पेंशन सुधारों के खिलाफ लोगों का गुस्सा बढ़ता जा रहा है. फ़्रांस समेत कई देशों में पिछले साल जबरदस्त हड़तालें हुईं और खूब प्रदर्शन हुए. पूरा यूरोप राजनीतिक अस्थिरता की चपेट में है. लेकिन विकसित देशों की पेंशन निधियों के मौजूदा संकट से सबक लेने के बजाय यू.पी.ए सरकार देश में सार्वजनिक पेंशन निधि के प्रबंधन और नई पेंशन योजनाएं शुरू करने के लिए उन्हीं कंपनियों को बुलाने जा रही है जिनकी उनके अपने देशों में भारी आलोचना हो रही है.
आखिर ४९ फीसदी विदेशी पूंजी लेकर आ रही इन कंपनियों में ऐसी क्या खूबी है जिसे देखकर यू.पी.ए सरकार भारत के करोड़ों लोगों की जीवन भर की कमाई और वृद्धावस्था की एकमात्र सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने को तैयार हो गई है?
याद रहे कि २००८ में जब अमरीका में वित्तीय सुनामी आई और उसकी पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई और अपने साथ उसने दुनिया को भी आर्थिक संकट और मंदी में फंसा दिया तो उस समय भारतीय अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय तंत्र उसके झटके को झेल गई क्योंकि वह वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ पूरी तरह नत्थी नहीं थी.

उस समय मनमोहन सिंह सरकार और खासकर कांग्रेस पार्टी ने इसका श्रेय लेते हुए दावा किया था कि यह पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की दूरदृष्टि है कि उन्होंने बैंकों, बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण किया था और बाद की कांग्रेसी सरकारों ने घरेलू वित्तीय व्यवस्था के उदारीकरण और उसके वैश्विक वित्तीय तंत्र के साथ एकीकरण के मामले में बहुत सतर्कता बरती.

लेकिन सवाल यह है कि बीते चार सालों में ऐसा क्या बदल गया कि यू.पी.ए सरकार वित्तीय तंत्र के और उदारीकरण और उसे और ज्यादा विदेशी पूंजी के लिए खोलने के लिए बेचैन हो उठी है?

सवाल यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने जिन भारतीय कंपनियों को पेंशन निधि के प्रबंधन के लिए नामांकित किया है, उनका प्रदर्शन कैसा रहा है? उल्लेखनीय है कि यू.पी.ए सरकार ने तीन साल पहले सभी लोगों खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए नई पेंशन योजना शुरू की थी जिसके प्रबंधन के लिए देश की छह कंपनियों को नामांकित किया गया है.
इसके साथ ही सरकार ने पेंशन निधि के एक हिस्से को शेयर बाजार और बांड आदि में भी लगाने की अनुमति दी है. लेकिन इन तीन सालों में इन कंपनियों के प्रदर्शन पर गौर करें तो यह चौंकानेवाला तथ्य सामने आता है कि पेंशन निधि से आ रहे प्रतिलाभ (रिटर्न) में काफी उतार-चढाव है. यह प्रतिलाभ २३.५१ फीसदी से लेकर नकारात्मक (-) ३.१५ फीसदी तक है.
इससे साफ़ है कि सेवानिवृत्त होते समय अपनी मेहनत की कमाई से एक निश्चित पेंशन पाने की अपेक्षा रखनेवाले असंगठित क्षेत्र के करोड़ों श्रमिकों की उम्मीदें हमेशा वित्तीय खासकर शेयर बाजार की मोहताज बनी रहेंगी. इसकी बड़ी वजह यह है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी भारत के पेंशन बाजार में करोड़ों कामगारों खासकर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा देने नहीं बल्कि मुनाफा कमाने आ रहे हैं.

इस मामले में उन निजी बीमा कंपनियों का प्रदर्शन और भी खराब है जिनमें एन.डी.ए सरकार ने २६ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत दी थी. पिछले एक दशक से अधिक समय से देश में जीवन और सामान्य बीमा के क्षेत्र में दो दर्जन से ज्यादा निजी देशी बीमा कम्पनियाँ विदेशी भागीदारों के साथ सक्रिय हैं. लेकिन तमाम दावों के विपरीत आम बीमा उपभोक्ताओं के जीवन में कोई ‘क्रांति’ नहीं आई है और न ही उनकी मुश्किलें कम हुई हैं.

बीमा नियामक इरडा के मुताबिक, वर्ष २००९-१० में जहाँ सरकारी बीमा कंपनी-एल.आई.सी ने ९६.५४ फीसदी दावों का निपटारा किया और केवल २ फीसदी दावों को नकारा, वहीं निजी बीमा कंपनियों ने उससे ११ फीसदी कम सिर्फ ८४.८८ फीसदी दावों का निपटारा किया जबकि तीन गुने से अधिक ७.६४ फीसदी दावों को खारिज कर दिया.
इसमें सबसे चौंकानेवाला तथ्य यह है कि करीब आधा दर्जन से अधिक निजी बीमा कंपनियों के दावा निपटान का प्रतिशत सिर्फ ५० से लेकर ६४ फीसदी के बीच है. यही नहीं, वर्ष २०१०-११ में एक बार फिर एल.आई.सी ने जहाँ ९७ फीसदी दावों को निपटाया, वहीँ निजी बीमा कंपनियों के प्रदर्शन में कोई खास सुधार नहीं हुआ.
कई निजी-विदेशी बीमा कंपनियों के दावा निपटान का प्रतिशत ५० से ६५ फीसदी के बीच बना रहा. आश्चर्य नहीं कि देशभर में विभिन्न उपभोक्ता अदालतों और फोरमों में सबसे अधिक शिकायतें जिन कंपनियों के बारे में आती हैं, उनमें निजी बीमा कम्पनियाँ अगली पंक्ति में हैं....
जारी...दूसरी क़िस्त कल.. 
('जनसत्ता' के 15 अक्तूबर के अंक में सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख) 

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