वालमार्ट का विरोध तो खुद अमेरिका में भी बढ़ रहा है
यही नहीं, अमेरिका में वालमार्ट के तौर-तरीकों खासकर श्रमिक विरोधी और पर्यावरण विरोधी रवैये की आलोचना और विरोध नई बात नहीं है. इसके अलावा दुनिया के और भी देशों में खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों खासकर विदेशी पूंजी को इजाजत देने का मुद्दा विवादों में रहा है क्योंकि उसके फायदों की तुलना में नकारात्मक प्रभावों की चिंता ज्यादा दिखाई देती रही है.
दुनिया के कई देशों के उदाहरणों से भी इसकी पुष्टि होती है. ब्रिटेन में १९८१ से ९९ के बीच छोटे किराना दुकानों की संख्या ५६८६२ से घटकर २५८०० रह गई. पश्चिमी यूरोप में ७० से ८० के दशक में कोई चार लाख छोटे दुकानदारों को अपना धंधा बंद करना पड़ा. इसी तरह अर्जेंटीना में १९८३ से ९३ के बीच कोई ३० फीसदी यानी लगभग ६४१९८ छोटी किराना दुकानें बंद हो गईं और खुदरा व्यापार में रोजगार में २६ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई.
दुनिया के अनेक देशों के उदाहरणों से स्पष्ट है कि इन दावों और वास्तविक तथ्यों के बीच खासा फासला है. अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, थाईलैंड में यह पाया गया कि वहाँ रेहडी-पटरीवालों की तुलना में बड़े सुपर स्टोर्स में कीमतें १० फीसदी अधिक थीं. इसी तरह के उदाहरण अर्जेंटीना, वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों में भी दिखाई पड़े.
दुनिया के तमाम देशों यहाँ तक कि अमेरिका के उदाहरणों से साफ़ है कि उस समय ये कम्पनियाँ न किसानों और दूसरे आपूर्तिकर्ताओं को अच्छी कीमत देती हैं और न ही उपभोक्ताओं को सस्ता माल बेचती हैं. यही नहीं, खुदरा बाज़ार पर उनके वर्चस्व की कीमत उन लाखों छोटे दूकानदारों को अपनी आजीविका गँवा कर चुकानी पड़ती है.
सवाल यह है कि क्या देश इस महंगे सौदे के लिए तैयार है?
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 13 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी)
खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के फैसले के पैरोकारों
का दावा है कि दुनिया के अधिकांश देशों में खुदरा व्यापार में न सिर्फ बड़ी घरेलू
संगठित कंपनियां काम कर रही हैं बल्कि विदेशी पूंजी यानी बड़ी विदेशी कंपनियों को
भी इजाजत दी गई है. उनका यह भी दावा है कि इसका उन देशों के किसानों, उपभोक्ताओं
और अर्थव्यवस्था सभी को लाभ हुआ है.
यही नहीं, उनमें से अधिकांश देशों में बड़ी
देशी-विदेशी खुदरा व्यापार कंपनियों के साथ न सिर्फ छोटे किराना व्यापारियों का
कारोबार भी मजे में चल रहा है बल्कि उनका व्यापार फला-फूला है. तात्पर्य यह कि
दुनिया के अधिकांश देशों के अनुभव के मद्देनजर खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी आने
से डरने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे नुकसान नहीं के बराबर या बहुत कम है, उल्टे
फायदा अधिक है.
लेकिन यह पूरा सच नहीं है. अगर खुदरा व्यापार में बड़ी संगठित कंपनियों
की मौजूदगी से फायदा ही फायदा होता तो खुद अमेरिका के न्यूयार्क जैसे शहर में
वालमार्ट को स्टोर खोलने से मना नहीं किया जाता. इससे पहले कैलिफोर्निया और शिकागो
की नगर परिषदों ने भी बड़ी खुदरा कंपनियों को स्टोर्स खोलने के फैसले पर रोक लगाने
का फैसला किया था. यही नहीं, अमेरिका में वालमार्ट के तौर-तरीकों खासकर श्रमिक विरोधी और पर्यावरण विरोधी रवैये की आलोचना और विरोध नई बात नहीं है. इसके अलावा दुनिया के और भी देशों में खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों खासकर विदेशी पूंजी को इजाजत देने का मुद्दा विवादों में रहा है क्योंकि उसके फायदों की तुलना में नकारात्मक प्रभावों की चिंता ज्यादा दिखाई देती रही है.
आश्चर्य नहीं कि कई देशों ने खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को
अनुमति नहीं दी है या कई प्रतिबंधों के साथ सीमित इजाजत दी है. दूसरी बात यह है कि
हरेक देश के अर्थतंत्र की अपनी विशेषताएं हैं, अपनी घरेलू परिस्थितियां हैं जिसमें
खुदरा व्यापार की खास जगह है.
भारत में खुदरा व्यापार इसलिए एक अत्यंत संवेदनशील
क्षेत्र है क्योंकि कृषि के बाद सबसे अधिक लोगों को रोजगार इसी क्षेत्र में मिला
हुआ है और कोई २० करोड़ लोगों की आजीविका इसपर निर्भर है. प्रति एक लाख की आबादी पर
खुदरा दूकानों के घनत्व के मामले भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. इस कारण उसकी
दुनिया के अन्य देशों से तुलना करते हुए भी एक सावधानी जरूरी है.
तथ्य यह है कि दुनिया के विभिन्न देशों में संगठित खुदरा व्यापार
कंपनियों खासकर विदेशी पूंजी और बड़ी विदेशी कंपनियों को प्रोत्साहित करने के नतीजे
मिले-जुले हैं. कुछ देशों में संगठित खुदरा कंपनियों के विस्तार के बावजूद छोटे
किराना दुकानदार भी बचे हुए हैं और कई देशों में बड़ी खुदरा कंपनियों की मौजूदगी के
कारण छोटे किराना दुकानदारों को टिके रहने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है और कई
देशों में संगठित कंपनियों और उनके बड़े स्टोर्स से मुकाबले में छोटे किराना
दुकानदार तेजी से उजड़े हैं. कई देशों में ये बड़ी कम्पनियाँ खुद नाकाम साबित हुई
हैं.
अगर दुनिया के विकसित देशों के उदाहरण पर गौर करें जहाँ खुदरा व्यापार
में बड़ी संगठित कम्पनियाँ और बड़े स्टोर्स बहुत पहले से हैं तो इस तथ्य को अनदेखा
कर पाना मुश्किल है कि इन देशों जैसे अमेरिका, ब्रिटेन और पश्चिमी यूरोप आदि में
७० से ८५ फीसदी खुदरा व्यापार पर बड़ी संगठित कंपनियों का कब्ज़ा है.
दूसरी ओर,
विकासशील देशों के खुदरा व्यापार में बड़ी कंपनियों का हिस्सा अभी भी ५० फीसदी से
कम है. जैसे ब्राजील और थाईलैंड में ४० फीसदी, कोरिया में ३५ फीसदी, चीन और
मलेशिया में २० फीसदी के आसपास है. इनकी तुलना में भारत के खुदरा व्यापार में संगठित
कंपनियों का हिस्सा मात्र ४ से ५ फीसदी के बीच है.
लेकिन सी.आई.आई-बोस्टन
कंसल्टिंग समूह की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष २०२० तक भारत में कुल खुदरा
व्यापार लगभग १.२५ खरब डालर का हो जाएगा और उसमें बड़ी कंपनियों यानी संगठित
क्षेत्र का हिस्सा लगभग २६० अरब डालर का होगा यानी वे २० फीसदी बाजार पर कब्ज़ा कर
लेंगी.
सवाल यह है कि क्या बड़ी कंपनियों के इस विस्तार और बाजार के पांचवें
हिस्से पर कब्जे के कारण छोटे किराना दुकानदारों का एक हिस्सा विस्थापित नहीं
होगा? इस प्रश्न के उत्तर में खुद प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के
अध्यक्ष सी. रंगराजन ने माना है कि संगठित खुदरा कंपनियों के विस्तार से खुदरा व्यापारियों
का एक हिस्सा विस्थापित होगा. दुनिया के कई देशों के उदाहरणों से भी इसकी पुष्टि होती है. ब्रिटेन में १९८१ से ९९ के बीच छोटे किराना दुकानों की संख्या ५६८६२ से घटकर २५८०० रह गई. पश्चिमी यूरोप में ७० से ८० के दशक में कोई चार लाख छोटे दुकानदारों को अपना धंधा बंद करना पड़ा. इसी तरह अर्जेंटीना में १९८३ से ९३ के बीच कोई ३० फीसदी यानी लगभग ६४१९८ छोटी किराना दुकानें बंद हो गईं और खुदरा व्यापार में रोजगार में २६ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई.
उधर, इंडोनेशिया ने २००२-०३ में सिर्फ एक साल में ९ फीसदी छोटी किराना
दुकानें बंद हो गईं जबकि चिली में १९९१ से ९५ के बीच खाने-पीने की छोटी दुकानों की
संख्या में कोई २० फीसदी की कमी दर्ज की गई.
यहाँ चीन की चर्चा भी जरूरी है
क्योंकि खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी के पैरोकार उसका उदाहरण भी बहुत देते हैं
लेकिन वे भूल जाते हैं कि चीन और भारत में आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियां
बिलकुल अलग हैं. वहां १९५९ से लेकर ८० के दशक के आखिर तक निजी खुदरा व्यापार
प्रतिबंधित था और ९० के दशक शुरुआत में वहां विदेशी पूंजी को कई शर्तों के साथ
इजाजत दी गई तो उस समय उसके खुदरा बाजार के ४१ फीसदी हिस्से पर बड़ी सरकारी
कंपनियों, २७ फीसदी पर सहकारी समितियों और कोई २० फीसदी पर निजी और छोटे खुदरा
व्यापारियों का कब्ज़ा था.
इससे साफ़ है कि चीन और भारत के खुदरा व्यापार के स्वरुप में बुनियादी
अंतर है और वहां इतने लोगों की रोजी-रोटी दांव पर नहीं लगी है. इसके बावजूद सच्चाई
यह है कि हाल के वर्षों में वहां भी बड़ी विदेशी खुदरा कंपनियों के तौर-तरीकों के
खिलाफ लोगों की नाराजगी बढ़ी है. इसके अलावा इन दावों में भी बहुत दम नहीं है कि
विदेशी खुदरा कंपनियों के आने से किसानों और उपभोक्ताओं दोनों को फायदा होगा.
दुनिया के अनेक देशों के उदाहरणों से स्पष्ट है कि इन दावों और वास्तविक तथ्यों के बीच खासा फासला है. अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, थाईलैंड में यह पाया गया कि वहाँ रेहडी-पटरीवालों की तुलना में बड़े सुपर स्टोर्स में कीमतें १० फीसदी अधिक थीं. इसी तरह के उदाहरण अर्जेंटीना, वियतनाम और मेक्सिको जैसे देशों में भी दिखाई पड़े.
यही हाल किसानों को लाभ पहुंचाने के दावों का है. इससे बड़ा मजाक कुछ
नहीं हो सकता है कि बड़ी विदेशी खुदरा कम्पनियाँ के आने से किसानों को ऊँची कीमत से
लेकर कोल्ड स्टोरेज जैसी सुविधाएँ मिलेंगी. अगर ऐसा होता तो दुनिया के सबसे अमीर
देशों में जहाँ ८० फीसदी से ज्यादा खुदरा व्यापार पर बड़ी कंपनियों का कब्ज़ा है,
वहाँ की सरकारों को अपने किसानों को भारी सब्सिडी नहीं देनी पड़ती.
यह किससे छुपा
है कि अमेरिका से लेकर यूरोप तक के किसानों को वहां की सरकारें अरबों डालर की
सालाना सब्सिडी देती है. अलबत्ता इस सब्सिडी पर वहाँ की बड़ी खुदरा कंपनियों से
लेकर खाद्य कारोबार में लगी कंपनियों का कारोबार चल रहा है.
यह ठीक है कि शुरू में ये कम्पनियाँ बाजार पर कब्ज़ा करने के लिए
किसानों को अच्छी कीमत और उपभोक्ताओं को सस्ता सामान बेचें लेकिन असल चिंता यह है
कि अगले १० सालों में जब वे छोटे किराना दुकानदारों को मुकाबले से बाहर कर देंगे,
उसके बाद क्या होगा? दुनिया के तमाम देशों यहाँ तक कि अमेरिका के उदाहरणों से साफ़ है कि उस समय ये कम्पनियाँ न किसानों और दूसरे आपूर्तिकर्ताओं को अच्छी कीमत देती हैं और न ही उपभोक्ताओं को सस्ता माल बेचती हैं. यही नहीं, खुदरा बाज़ार पर उनके वर्चस्व की कीमत उन लाखों छोटे दूकानदारों को अपनी आजीविका गँवा कर चुकानी पड़ती है.
सवाल यह है कि क्या देश इस महंगे सौदे के लिए तैयार है?
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 13 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी)
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