परिसर के लोकतंत्रीकरण के लिए छात्रसंघ है जरूरी
छात्रसंघ के सीधे चुनाव वर्षों से बंद हैं और उसकी जगह एक जेबी छात्र परिषद खड़ी करने की कोशिश जारी है. परिसर में राजनीतिक चर्चा, बहस और संवाद प्रतिबंधित सा है. हर विरोध को डंडे और निष्कासन/निलंबन की नोटिस से दबाने का नियम सा बन गया है. विश्वविद्यालय की अपनी ख़ुफ़िया एजेंसी है जो छात्रों, अध्यापकों और कर्मचारियों की जासूसी करती है.
इन तत्वों के कारण ही छात्रसंघ और छात्र आंदोलन बदनाम हुए और प्रशासन को उन्हें खत्म करने का मौका मिला. लेकिन बी.एच.यू प्रशासन को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है. परिसर की हिंसा और अशांति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदारी उसी की बनती है.
क्या यह जनतांत्रिक तरीके से चुने गए छात्र और शिक्षक प्रतिनिधियों के बिना संभव है? सच पूछिए तो आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है.
क्या वह समय नहीं आ गया है जब बी.एच.यू एक बार फिर से देश के सामने एक बेहतरीन छात्रसंघ के साथ परिसर के लोकतंत्रीकरण का नया आदर्श पेश करे?
('दैनिक हिन्दुस्तान', वाराणसी में 14 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी)
बी.एच.यू मेरे लिए देश के अन्य कई विश्वविद्यालयों की तरह एक और
विश्वविद्यालय भर नहीं है. वह मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा है. जहाँ जाता हूँ, वह
मेरे साथ चलता है. मेरे जीवन के सबसे बेहतरीन नौ साल उस परिसर में ही गुजरे हैं,
जहाँ मेरे कवि मित्र राजेन्द्र राजन के मुताबिक,
“यही है वह जगह/
जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव/
हमउमर की तरह आता है/
आंखों में आंखे मिलाते हुए..”
जहां नामालूम तरीके से नहीं आता है वसंतोत्सव/
हमउमर की तरह आता है/
आंखों में आंखे मिलाते हुए..”
उस वसंत एक टुकड़ा अभी मन के
किसी कोने में जवान है.
लेकिन पिछले कुछ महीनों से बी.एच.यू से आ रही खबरों ने बेचैन कर दिया
है. सुना है कि परिसर में आपातकाल के से हालत हैं. छात्रों और विश्वविद्यालय
प्रशासन के बीच संवादहीनता की दीवार सी बन गई है. प्राक्टोरियल बोर्ड के रूप में
परिसर का सैन्यीकरण चरम पर पहुँच गया है. छात्रसंघ के सीधे चुनाव वर्षों से बंद हैं और उसकी जगह एक जेबी छात्र परिषद खड़ी करने की कोशिश जारी है. परिसर में राजनीतिक चर्चा, बहस और संवाद प्रतिबंधित सा है. हर विरोध को डंडे और निष्कासन/निलंबन की नोटिस से दबाने का नियम सा बन गया है. विश्वविद्यालय की अपनी ख़ुफ़िया एजेंसी है जो छात्रों, अध्यापकों और कर्मचारियों की जासूसी करती है.
मेरे लिए यह जानना तो अकल्पनीय सा है कि स्वतंत्रता आंदोलन के उस
परिसर में छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों को बोलने, सवाल उठाने और विरोध करने की
मौलिक आज़ादी नहीं है, जहाँ मैंने अपनी आवाज़ पाई, विरोध और सवाल करने का सलीका और
जनतंत्र को जीना सीखा?
मेरे लिए यह तय कर पाना मुश्किल हो रहा है कि विश्वविद्यालय
परिसर है या जेल? हैरानी की बात नहीं है कि ऐसे
दमघोंटू और अविश्वास से भरे माहौल में परिसर से हिंसा, आगजनी, मारपीट और उपद्रव की
निराश करनेवाली खबरें आ रही हैं. खासकर अध्यापकों के साथ मारपीट, गालीगलौज और उनके
घरों में आगजनी की तो जितनी निंदा की जाए, कम है.
छात्र राजनीति गुंडागर्दी का लाइसेंस नहीं है. विरोध का मतलब हिंसा और
आगजनी नहीं है. इससे छात्र आंदोलन की नैतिक सत्ता कमजोर होती है. छात्रों को ऐसे
अपराधी, जातिवादी, अराजक तत्वों को पहचानना होगा और उन्हें छात्र आंदोलन से बाहर
करना होगा. इन तत्वों के कारण ही छात्रसंघ और छात्र आंदोलन बदनाम हुए और प्रशासन को उन्हें खत्म करने का मौका मिला. लेकिन बी.एच.यू प्रशासन को भी अपने अंदर झांकने की जरूरत है. परिसर की हिंसा और अशांति के लिए सबसे अधिक जिम्मेदारी उसी की बनती है.
आखिर छात्रसंघ के गठन से कौन डर रहा है? क्या यह सच नहीं है कि छात्रसंघ-शिक्षक
संघ का सबसे अधिक विरोध विश्वविद्यालय प्रशासन के भ्रष्ट अफसर करते हैं? उन्हें
हमेशा अपने भ्रष्ट कारनामों के खुलासे और मनमानी पर ऊँगली उठने का डर सताता रहता
है.
सवाल यह है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बावजूद छात्रसंघ के गठन और उसके सीधे
चुनाव से परहेज क्यों है? मेरी राय में, छात्रसंघों और छात्र राजनीति का विरोध वास्तव में, न सिर्फ
अलोकतांत्रिक बल्कि तानाशाही की वकालत है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि छात्रसंघ छात्रों का मौलिक अधिकार है. वह
जनतंत्र की पाठशाला है. यह परिसर के लोकतंत्रीकरण की अनिवार्य शर्त है.
विश्वविद्यालय पर पहला हक छात्रों और अध्यापकों का है. विश्वविद्यालय के संचालन
में अध्यापकों के साथ-साथ छात्रों की भी भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए. क्या यह जनतांत्रिक तरीके से चुने गए छात्र और शिक्षक प्रतिनिधियों के बिना संभव है? सच पूछिए तो आज अगर विश्वविद्यालयों डिग्रियां बांटने का केन्द्र बनाने के बजाय देश में बदलाव और शैक्षणिक पुनर्जागरण का केंद्र बनाना है तो उसकी पहली शर्त परिसरों का लोकतंत्रीकरण है.
आखिर विश्वविद्यालयों की शैक्षणिक बेहतरी में सबसे ज्यादा स्टेक और
हित छात्रों के हैं, इसलिए उनके संचालन में छात्रों की भागीदारी सबसे अधिक होनी
चाहिए. इससे परिसरों के संचालन की मौजूदा भ्रष्ट नौकरशाह व्यवस्था की जगह
पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और भागीदारी आधारित व्यवस्था बन सकेगी.
इसके बजाय जो
लोग छात्रसंघों और छात्र राजनीति को शैक्षणिक पतन का कारण बताते नहीं थकते है, वे
सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहे हैं. बिहार के किसी भी विश्वविद्यालय में
पिछले २५ वर्षों से छात्रसंघ नहीं है लेकिन इससे क्या वहां के विश्वविद्यालय
शैक्षणिक नव जागरण के केन्द्र बन गए हैं?
तथ्य यह है कि जे.एन.यू, दिल्ली आदि देश के कई बेहतरीन
विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ हैं और वे वहां के शैक्षणिक वातावरण के अनिवार्य
हिस्से हैं. उनके होने से इन परिसरों में बौद्धिक बहस और विचार-विमर्श का ऐसा
माहौल बना रहता है जिससे राजनीतिक और बौद्धिक रूप से सचेत नागरिकों की नई पीढ़ी
तैयार करने में मदद मिलती है. क्या वह समय नहीं आ गया है जब बी.एच.यू एक बार फिर से देश के सामने एक बेहतरीन छात्रसंघ के साथ परिसर के लोकतंत्रीकरण का नया आदर्श पेश करे?
आखिर मेरी स्मृतियों में विश्वविद्यालय का आज़ाद वसंत गुनगुनाता रहता
है, कविगुरु रबीन्द्रनाथ के मुताबिक, “जहाँ उड़ता फिरे मन बेख़ौफ़/
और सिर हो शान से उठा हुआ/
जहाँ इल्म हो सबके लिए बे रोक टोक/
बिना शर्त रखा हुआ...जहाँ दिलो दिमाग तलाशे नए नए ख्याल और उन्हें अंजाम दे/ ऐसी आजादी की जन्नत में ऐ खुदा मेरे वतन (या विश्वविद्यालय) की हो नयी सुबह.”
आमीन.और सिर हो शान से उठा हुआ/
जहाँ इल्म हो सबके लिए बे रोक टोक/
बिना शर्त रखा हुआ...जहाँ दिलो दिमाग तलाशे नए नए ख्याल और उन्हें अंजाम दे/ ऐसी आजादी की जन्नत में ऐ खुदा मेरे वतन (या विश्वविद्यालय) की हो नयी सुबह.”
('दैनिक हिन्दुस्तान', वाराणसी में 14 अक्तूबर को प्रकाशित टिप्पणी)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें