क्या हम अमेरिकी और एशियाई टाइगरों के हश्र को भूल गए हैं?
दूसरी और आखिरी क़िस्त
बड़ी कंपनियों के लाबी संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी भारत में सरकारी/अर्द्ध सरकारी और नई पेंशन योजना की कुल पेंशन निधि लगभग १५.४ लाख करोड़ रूपये की है जिसके वर्ष २०१५ तक बढ़कर २० लाख करोड़ रूपये हो जाने की उम्मीद है. अगर इसका कम से कम २ फीसदी भी मुनाफे के रूप में आए तो यह करीब ४ खरब रूपये होता है.
सरकार को उम्मीद है कि इससे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जा सकती है. याद रहे, प्रधानमंत्री ने हाल में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले फैसलों के जरिये देशी-विदेशी उद्यमियों में ‘पशु प्रवृत्ति’ (एनिमल इंस्टिंक्ट) पैदा करने करने की जरूरत बताई थी.
('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 15 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त)
दूसरी और आखिरी क़िस्त
लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि निजी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ
सरकारी बीमा कंपनियों को प्रतियोगिता से बाहर करने के लिए हर तरह की तिकड़म कर रही
हैं. इसके लिए वे घाटा खाकर भी एल.आई.सी की तुलना में कम और कई मामलों में लगभग
आधी प्रीमियम पर बीमा पालिसी बेच रही हैं और अपने एजेंटों को मनमाना कमीशन दे रही
हैं.
यह और बात है कि दावों को निपटाने के मामले में वे उपभोक्ता का खून चूस लेती
हैं. इसके बावजूद बीमा नियामक- इरडा उनके आगे लाचार दिख रहा है. यहाँ तक कि हाल
में कई निजी बीमा कंपनियों पर ३०० करोड़ रूपये के सेवाकर की चोरी के आरोप में नोटिस
भी मिला है.
याद रहे कि अपने विवादास्पद हथकंडों और तिकड़मों से २००८ की अमेरिकी
वित्तीय सुनामी को न्यौता देने में कई बीमा कम्पनियाँ भी शामिल थीं और उनमें से सबसे बड़ी ए.आई.जी (भारत में टाटा-ए.आई.जी) को
डूबने से बचाने के लिए अमरीकी सरकार को सबसे अधिक ८५ अरब डालर का पैकेज देना पड़ा
था.
चिंता की बात यह है कि यू.पी.ए सरकार इन्हीं बीमा और पेंशन कंपनियों
को न सिर्फ इस देश के करोड़ों लोगों की सामाजिक सुरक्षा और जीवन भर की कमाई सौंपने
की तैयारी कर रही है बल्कि पूरे वित्तीय तंत्र की स्थिरता को खतरे में डाल रही है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी निजी पूंजी की ललचाई हुई निगाहें
भारत के तेजी से बढ़ती पेंशन निधियों और बीमा बाजार पर लगी हुई है. बड़ी कंपनियों के लाबी संगठन एसोचैम की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अभी भारत में सरकारी/अर्द्ध सरकारी और नई पेंशन योजना की कुल पेंशन निधि लगभग १५.४ लाख करोड़ रूपये की है जिसके वर्ष २०१५ तक बढ़कर २० लाख करोड़ रूपये हो जाने की उम्मीद है. अगर इसका कम से कम २ फीसदी भी मुनाफे के रूप में आए तो यह करीब ४ खरब रूपये होता है.
इसी तरह अभी बीमा बाजार २.१२ लाख करोड़ रूपये का है क्योंकि देश में
बीमा की पहुँच सिर्फ ५ फीसदी लोगों तक है. लेकिन इसमें तेजी से वृद्धि हो रही है.
वित्तीय और बीमा बाजार के विशेषज्ञों का मानना है कि आनेवाले वर्षों में बीमा
उद्योग में १० से १५ फीसदी की वार्षिक दर से वृद्धि होगी. इससे सहज अनुमान लगाया
जा सकता है कि दांव कितने ऊँचे हैं.
आश्चर्य नहीं कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी खासकर
बड़े वित्तीय संस्थान और कम्पनियाँ और उनके पैरोकार जोरशोर से पेंशन और बीमा समेत
समूचे वित्तीय क्षेत्र को बड़ी विदेशी पूंजी के लिए खोलने की मांग कर रहे थे. यह भी
किसी से छुपा नहीं है कि यू.पी.ए सरकार पर घरेलू वित्तीय क्षेत्र को खोलने के लिए अमेरिका
से लेकर ब्रिटेन तक की सरकारों, उनके मंत्रियों-अफसरों और विश्व बैंक-मुद्रा कोष
के अलावा अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों का भी जबरदस्त दबाव था.
आश्चर्य नहीं कि सरकार ने पिछले सप्ताह बीमा और पेंशन क्षेत्र में और
अधिक एफ.डी.आई की इजाजत देने का फैसला किया और इस सप्ताह अमेरिकी वित्त मंत्री टिमोथी
गीथनर भारत की यात्रा पर हैं. दूसरे, ताजा फैसले समेत आर्थिक सुधारों को आगे
बढ़ानेवाले हालिया फैसलों के जरिये यू.पी.ए सरकार पस्त पड़े वित्तीय बाजार में एक
फीलगुड का माहौल बनाकर तात्कालिक तौर पर शेयर बाजार को चढाने की कोशिश कर रही है.
सरकार को उम्मीद है कि इससे लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकी जा सकती है. याद रहे, प्रधानमंत्री ने हाल में आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले फैसलों के जरिये देशी-विदेशी उद्यमियों में ‘पशु प्रवृत्ति’ (एनिमल इंस्टिंक्ट) पैदा करने करने की जरूरत बताई थी.
लगता है कि प्रधानमंत्री और सरकार को वित्तीय क्षेत्र और उसकी
कंपनियों की इस ‘पशु प्रवृत्ति’ के नतीजों की परवाह नहीं है. लेकिन उन्हें याद
रखना चाहिए कि वित्तीय क्षेत्र अर्थव्यवस्था का सबसे संवेदनशील क्षेत्र है और उसकी
अस्थिरता पूरी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर सकती है. अमेरिकी वित्तीय सुनामी अपवाद
नहीं थी.
उससे पहले ९७-९८ में दक्षिण पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी ऐसे
ही ध्वस्त हुई थीं. उनसे पहले मेक्सिको और कई लातिन अमेरिकी अमेरिकी देशों की
अर्थव्यवस्थाएं भी वित्तीय तंत्र के उदारीकरण के नतीजे भुगत चुकी हैं. यही नहीं, वित्तीय
तंत्र के ध्वस्त होने के कारण उनमें से कई देशों की अर्थव्यवस्थाएं दशकों पीछे
चलीं गईं थीं.
सवाल है कि इन अनुभवों के
मद्देनजर क्या सिर्फ बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए समूची अर्थव्यवस्था
और करोड़ों लोगों के जीवन भर की कमाई और सामाजिक सुरक्षा को दांव पर लगाने की इजाजत
दी जा सकती है?('जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 15 अक्तूबर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी क़िस्त)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें