करोड़ों भारतीयों की सामाजिक सुरक्षा और जीवन भर
की कमाई दांव पर है
ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार आर्थिक आत्मघात के मूड में आ गई है. यही कारण है कि वह सिर्फ आर्थिक सुधारों के नामपर आर्थिक सुधार करने और इस तरह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करने में जोरशोर से जुट गई है.
इसके पीछे सरकार के आर्थिक नीति निर्माताओं और मैनेजरों की यह नव उदारवादी समझ है कि सरकार का काम बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के लिए अधिक से अधिक अनुकूल स्थितियां बनाना है और बाकी काम निजी पूंजी और कार्पोरेट्स की “पशु प्रवृत्ति” (एनिमल इंस्टिंक्ट) कर लेगी.
याद रहे कि कुछ सप्ताहों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उद्यमियों की “पशु प्रवृत्ति” को जगाने की जरूरत बताई थी.
सरकार की इस उम्मीद के पीछे तर्क यह है कि एफ.डी.आई की सीमा बढ़ाने से नई बीमा और पेंशन कम्पनियाँ आएँगी, उससे प्रतियोगिता बढ़ेगी, लोगों को बीमा और पेंशन की नई स्कीम मिलेंगी, उनका प्रीमियम कम होगा और सबसे बढ़कर उन्हें सामाजिक सुरक्षा का कवच मिलेगा.
असल में, विकसित पश्चिमी देशों में बीमा और पेंशन कारोबार में वृद्धि लगभग ठहर गई है. लेकिन भारत में बढ़ते मध्यवर्ग और उसकी आय में बढ़ोत्तरी लेकिन घटती सामाजिक सुरक्षा के कारण बीमा और पेंशन का बाजार यह तेजी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, अभी भारत में कुल बीमा बाजार लगभग २.१२ लाख करोड़ रूपये का है जबकि औद्योगिक संगठन- एसोचैम के मुताबिक, पेंशन कारोबार अगले तीन सालों में लगभग २० लाख करोड़ रूपये का हो जाएगा.
ऐसे में, आशंका यह है कि निजी देशी-विदेशी कंपनियों के इस आक्रामक रणनीति और तिकडमों के आगे सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियाँ बहुत सालों तक टिक नहीं पाएंगी. दूसरे, निजी क्षेत्र की देशी-विदेशी बीमा कंपनियां प्रतियोगिता और मुनाफा बढ़ाने के नामपर जो तौर-तरीके अपना रही हैं, उसका शिकार न सिर्फ आम उपभोक्ता बन रहा है बल्कि उसके कारण अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता भी खतरे में पड़ सकती है.
उन्हें इस संकट से उबारने के लिए अमेरिकी और यूरोपीय सरकारों को खरबों डालर का बचाव पैकेज देना पड़ा जिसके कारण सरकार पर कर्ज इतना बढ़ गया कि अब राजकोषीय घाटा कम करने की आड़ में आम लोगों पर उसका बोझ डाला जा रहा है.
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 8 अक्तूबर अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
ऐसा लगता है कि यू.पी.ए सरकार आर्थिक आत्मघात के मूड में आ गई है. यही कारण है कि वह सिर्फ आर्थिक सुधारों के नामपर आर्थिक सुधार करने और इस तरह बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करने में जोरशोर से जुट गई है.
इसके पीछे सरकार के आर्थिक नीति निर्माताओं और मैनेजरों की यह नव उदारवादी समझ है कि सरकार का काम बड़ी देशी-विदेशी पूंजी के लिए अधिक से अधिक अनुकूल स्थितियां बनाना है और बाकी काम निजी पूंजी और कार्पोरेट्स की “पशु प्रवृत्ति” (एनिमल इंस्टिंक्ट) कर लेगी.
याद रहे कि कुछ सप्ताहों पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए उद्यमियों की “पशु प्रवृत्ति” को जगाने की जरूरत बताई थी.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार देशी-विदेशी बड़ी पूंजी की
इसी “पशु प्रवृत्ति” को जगाने के लिए नव उदारवादी आर्थिक सुधारों का नगाड़ा बजाने
में लग गई है. इस कोशिश में उसे इसकी भी परवाह नहीं है कि इन फैसलों का
अर्थव्यवस्था और आम आदमी के जीवन पर कितना घातक असर हो सकता है.
इसी कोशिश का ताजा
उदाहरण है- बीमा और पेंशन क्षेत्र में ४९ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी पूंजी निवेश
(एफ.डी.आई) की इजाजत सहित नए कंपनी विधेयक और वायदा कारोबार रेगुलेशन विधेयक में
संशोधनों को मंजूरी का फैसला. हालाँकि सरकार ने इसके अलावा भी करीब आधा दर्जन फैसले
किये हैं लेकिन इनमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण और दूरगामी फैसला वित्तीय क्षेत्र
खासकर बीमा क्षेत्र में एफ.डी.आई की सीमा २६ फीसदी से ४९ फीसदी करने और पेंशन
क्षेत्र में सीधे ४९ फीसदी एफ.डी.आई की अनुमति का है.
यू.पी.ए सरकार का दावा है कि इन फैसलों से बीमा और पेंशन क्षेत्र में
निवेश खासकर विदेशी निवेश बढ़ेगा. इससे देश के उन करोड़ों लोगों खासकर गरीबों, निम्न
मध्यवर्ग, असंगठित क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों और वृद्धों को बीमा और पेंशन जैसी
बुनियादी सामाजिक सुरक्षा मिल सकेगी जिन्हें अभी तक किसी भी किस्म की कोई सामाजिक सुरक्षा
हासिल नहीं है. सरकार की इस उम्मीद के पीछे तर्क यह है कि एफ.डी.आई की सीमा बढ़ाने से नई बीमा और पेंशन कम्पनियाँ आएँगी, उससे प्रतियोगिता बढ़ेगी, लोगों को बीमा और पेंशन की नई स्कीम मिलेंगी, उनका प्रीमियम कम होगा और सबसे बढ़कर उन्हें सामाजिक सुरक्षा का कवच मिलेगा.
लेकिन यू.पी.ए सरकार के इन दावों में कितनी सच्चाई है, इसका अंदाज़ा इस
तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश में सरकारी बीमा कंपनियों के अलावा पिछले एक दशक
से कोई दो दर्जन निजी देशी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ भी सक्रिय हैं लेकिन इसके बावजूद
देश में बीमा सुरक्षा का लाभ मुश्किल से ५ फीसदी लोगों को मिल पा रहा है.
यही
नहीं, देश में कुल २६ देशी-विदेशी और सरकारी बीमा कंपनियों के कारण प्रीमियम तो
घटा है खासकर निजी बीमा कम्पनियाँ ग्राहकों को लुभाने के लिए प्रीमियम घटाने की
रणनीति पर काम कर रही हैं लेकिन जब बारी बीमा दावों को निपटाने की आती है तो वे लोगों
को आसानी से बीमा दावे नहीं देती हैं. तथ्य यह है कि देश भर में उपभोक्ता फोरम और
बीमा रेगुलेटर- इरडा के पास निजी बीमा कंपनियों के खिलाफ उपभोक्ताओं की शिकायतों
का अम्बार लगा हुआ है.
इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है. निजी देशी-विदेशी बीमा कम्पनियाँ
भारत में लोगों को सस्ता-सुविधाजनक बीमा और इसके जरिये सामाजिक सुरक्षा देने नहीं
आ रही हैं. उनका असली मकसद अधिक से अधिक मुनाफा बनाना है. उनकी निगाहें भारत के
तेजी से बढ़ते बीमा और पेंशन कारोबार पर लगी हुई हैं. असल में, विकसित पश्चिमी देशों में बीमा और पेंशन कारोबार में वृद्धि लगभग ठहर गई है. लेकिन भारत में बढ़ते मध्यवर्ग और उसकी आय में बढ़ोत्तरी लेकिन घटती सामाजिक सुरक्षा के कारण बीमा और पेंशन का बाजार यह तेजी से बढ़ रहा है. एक अनुमान के मुताबिक, अभी भारत में कुल बीमा बाजार लगभग २.१२ लाख करोड़ रूपये का है जबकि औद्योगिक संगठन- एसोचैम के मुताबिक, पेंशन कारोबार अगले तीन सालों में लगभग २० लाख करोड़ रूपये का हो जाएगा.
कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बीमा और पेंशन फंड कंपनियों की
निगाह इसी लुभावने बीमा और पेंशन कारोबार पर लगी हुई हैं. इस कारोबार पर कब्जे के
लिए वे हर तिकड़म कर रही हैं खासकर सरकारी क्षेत्र की बीमा कंपनियों को खत्म और
सरकारी पेंशन व्यवस्था को ध्वस्त करने में.
इसकी वजह यह है कि वे इस बाजार और
कारोबार पर तब तक कब्ज़ा नहीं कर सकती हैं जब तक सरकारी क्षेत्र की कंपनियों को
खत्म नहीं किया जाए. इसके लिए वे बीमा कारोबार में सरकारी कंपनियों की तुलना में
काफी कम प्रीमियम पर पालिसी बेच रही हैं, एजेंटों को आकर्षक कमीशन दे रही हैं और आकर्षक
विज्ञापन अभियानों से उपभोक्ताओं को लुभा रही हैं. यह और बात है कि जब दावों को
निपटाने की बारी आती है तो वे टरकाने और दावों को ख़ारिज करने में सार्वजनिक बीमा
कंपनियों से बहुत आगे हैं.
यही नहीं, उनके तिकड़मों के आगे बीमा क्षेत्र का रेगुलेटर- इरडा भी
लाचार है. यह सही है कि अभी ज्यादातर निजी बीमा कंपनियों को घाटा हो रहा है. लेकिन
वे घाटा उठाकर भी टिकी हुई हैं तो इसकी वजह यह है कि उन्हें भरोसा है कि वे अपने
तिकड़मों से सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियों को खत्म कर देगीं क्योंकि सरकारी
बीमा कम्पनियाँ ये हथकंडे नहीं अपना सकती हैं. ऐसे में, आशंका यह है कि निजी देशी-विदेशी कंपनियों के इस आक्रामक रणनीति और तिकडमों के आगे सार्वजनिक क्षेत्र की बीमा कम्पनियाँ बहुत सालों तक टिक नहीं पाएंगी. दूसरे, निजी क्षेत्र की देशी-विदेशी बीमा कंपनियां प्रतियोगिता और मुनाफा बढ़ाने के नामपर जो तौर-तरीके अपना रही हैं, उसका शिकार न सिर्फ आम उपभोक्ता बन रहा है बल्कि उसके कारण अर्थव्यवस्था खासकर वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता भी खतरे में पड़ सकती है.
इसी तरह पेंशन फंड के मामले में आशंका यह है कि अगर देशी-विदेशी निजी
कंपनियों को पेंशन फंड के प्रबंध का जिम्मा दिया गया तो वे उसका इस्तेमाल शेयर
बाजार में सट्टेबाजी के लिए करेंगी ताकि मोटा मुनाफा कमाया जा सके. लेकिन इस कोशिश
में वे करोड़ों लोगों की जीवन भर की कमाई को खतरे में डाल देंगी.
इसके कारण शेयर
बाजार समेत पूरा वित्तीय क्षेत्र भी अत्यधिक अस्थिरता का शिकार हो सकता है. उल्लेखनीय
है कि अमेरिका और यूरोप में २००७-०८ में शुरू हुए वित्तीय संकट और आर्थिक मंदी के
लिए सबसे अधिक जिम्मेदार निजी क्षेत्र की बड़ी वित्तीय संस्थाएं और कम्पनियाँ ही
रही हैं जिनमें बीमा और पेंशन फंड भी शामिल थे.
यही नहीं, इन कंपनियों ने मुनाफे की हवस में जिस तरह के तौर-तरीके
इस्तेमाल किये, उसके कारण कई बैंकों के अलावा ए.आई.जी जैसी बीमा कम्पनियाँ भी
दिवालिया होने के कगार पर पहुँच गईं. इससे करोड़ों लोगों के जीवन भर की कमाई और
उनकी सामाजिक सुरक्षा के अलावा देश की वित्तीय व्यवस्था भी खतरे में पड़ गई. उन्हें इस संकट से उबारने के लिए अमेरिकी और यूरोपीय सरकारों को खरबों डालर का बचाव पैकेज देना पड़ा जिसके कारण सरकार पर कर्ज इतना बढ़ गया कि अब राजकोषीय घाटा कम करने की आड़ में आम लोगों पर उसका बोझ डाला जा रहा है.
यहाँ यह भी याद रखना बहुत जरूरी है कि आज के दौर में वास्तविक
अर्थव्यवस्था की तुलना में वित्तीय अर्थव्यवस्था की भूमिका अर्थव्यवस्था में बहुत
ज्यादा बढ़ गई है. लेकिन वित्तीय अर्थव्यवस्था इतनी संवेदनशील हो गई है कि किसी
मामूली बात पर भी झटका खा सकती है और अपने साथ पूरी अर्थव्यवस्था को डूबा सकती है.
बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है. १९९७-९८ में दक्षिण पूर्व एशियाई टाइगरों-
कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड और इंडोनेशिया आदि की अर्थव्यवस्थाएं वित्तीय संकट के
झटके में दशकों पीछे चली गईं थीं. उसके पहले भी लातिन अमेरिका और मेक्सिको और बाद
में रूस के अलावा हल में अमेरिका-यूरोप के उदाहरण सामने हैं.
लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार इन वित्तीय दुर्घटनाओं से कोई सबक लेने को
तैयार नहीं है. साफ़ है कि बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए वह किसी भी हद
तक जाने को तैयार है. लगता है कि वह इतिहास को दोहरा कर ही मानेगी.(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 8 अक्तूबर अंक में प्रकाशित टिप्पणी)
1 टिप्पणी:
कभी-कभी जब आप अपने किसी मित्र या रिश्तेदार को फोन करते हैँ तो ऐसे पल भी आते हैँ कि वह आपको याद कर हो और आपका फोन जाये तो अक्सर यही बात कही जाती है कि तुम्हारी उम्र बहुत लम्बी है।
ऐसा जब मेरे साथ होता है तो मैँ एक ही बात कहता हूँ-
मैँ 500 साल जियूँगा, आने बाली पीढ़ियोँ को बताऊगाँ कि 2004 से 2014 तक एक ऐसे प्रधानमंत्री हुये थे जिन्हेँ लोग "कमजोर PM-कमजोरPM" कहकर चिढ़ाते थे। जिनके चश्मेँ का फ्रेम यूरोप मेँ बना था और उसके लेँस अमेरिकी थे। भारत मेँ समस्या कोई भी हो समाधान के लिये उनके पास जादू की छड़ी नहीँ थी, सिवाये बाजार के जो उनके हिसाब से सब कुछ ठीक कर देता है। इन महान PM महोदय ने जाते-जाते देश की लुटिया डुबो दी...
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