गुरुवार, अक्तूबर 04, 2012

खोजी पत्रकारिता की मौत

बड़े और कार्पोरेट न्यूज मीडिया समूह घोटाले का हिस्सा बनते जा रहे हैं 

भ्रष्टाचार और घोटालों के खुदरा खुलासों के इस मौसम में सबसे ताजा खुलासा महाराष्ट्र में ७० हजार करोड़ रूपये से अधिक के सिंचाई घोटाले का है. इस घोटाले के खुलासे के बाद काफी ना-नुकुर और दांवपेंच आजमाने के बाद आखिरकार राज्य के उपमुख्यमंत्री अजित पवार को इस्तीफा देना पड़ा है.
इसके साथ ही अखबारों और चैनलों के बीच इस घोटाले के खुलासे का श्रेय लेने की होड़ भी शुरू हो गई है. ‘दुनिया के सबसे ज्यादा पढ़े जानेवाले अंग्रेजी अखबार’ का दावा करनेवाले अखबार का दावा है कि इस घोटाले का भंडाफोड उसने ही किया है. 
लेकिन सच यह है कि इस घोटाले के पर्दाफाश का श्रेय मीडिया को नहीं बल्कि भ्रष्टाचार विरोधी आर.टी.आई कार्यकर्ताओं खासकर अंजलि दमानिया की मुहिम और सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर विजय पंधारे के भंडाफोड को जाता है जिनकी पहल, मेहनत, साहस और प्रतिबद्धता के कारण इस घोटाले का खुलासा हो पाया.

यह इनकी कोशिशें थीं जिसके कारण ऐसा माहौल बना कि पिछले कुछ सप्ताहों में मीडिया खासकर स्थानीय अखबारों में सिंचाई घोटाले की खबरें सुर्खियाँ बनने लगीं. यह ठीक है कि घोटाले के तथ्यों के सुर्ख़ियों में आने के बाद ही महाराष्ट्र सरकार और खासकर एन.सी.पी नेतृत्व पर दबाव बढ़ा और उसे मुंह छुपाने के लिए इस्तीफे का नाटक करना पड़ा.

लेकिन यह तथ्य है कि हाल के कई और बड़े घोटालों की तरह इस घोटाले का भी पर्दाफाश मीडिया ने नहीं बल्कि आर.टी.आई और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं, कोर्ट के निर्देशों, सी.ए.जी की रिपोर्टों आदि ने किया है. दर्जनों आर.टी.आई कार्यकर्ताओं ने इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकाई है. यह ठीक है कि हाल में सामने आए भ्रष्टाचार के इक्का-दुक्का मामलों को उजागर करने में सीधे मीडिया की भूमिका रही है लेकिन ज्यादातर मामलों में खुलासे में उसकी सक्रिय भूमिका नहीं थी.
सच पूछिए तो अगर आर.टी.आई और भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ताओं, कोर्ट और सी.ए.जी आदि ने साहस के साथ पहल नहीं की होती, सच को सामने लाने की अनथक कोशिश नहीं की होती तो इनमें से ज्यादातर मामले सामने नहीं आते.
इसका कारण समझना मुश्किल नहीं है. आज जब कोयला आवंटन जैसे कई घोटालों में खुद मीडिया समूहों और उनके मालिकों के नाम सामने आ रहे हैं, उस समय उनसे इन घोटालों के खुलासे की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है? दूसरे, आज कई छोटे-बड़े मीडिया समूहों में उन बड़ी कंपनियों के शेयर हैं जो इन घोटालों की सबसे बड़ी लाभार्थी हैं.

जाहिर है कि उनसे भी यह उम्मीद करना बेकार है कि वे घोटालों के पर्दाफाश की पहल और सक्रिय कोशिश करेंगी. यही कारण है कि इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर भ्रष्टाचार और घोटालों के हालिया मामलों के पर्दाफाश में मीडिया और उसकी खोजी पत्रकारिता की सीधी भूमिका नहीं है.

लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. खोजी पत्रकारिता का मतलब केवल घोटालों का भंडाफोड ही नहीं है बल्कि सामाजिक-जातिगत-धार्मिक-एथनिक अन्याय, उत्पीडन और मानवाधिकार हनन के मामलों को उजागर करना भी है.
आश्चर्य नहीं कि खोजी पत्रकारिता की कुछ बेहतरीन मिसालों में घोटालों के भंडाफोड के अलावा भागलपुर आँखफोड़वा कांड से लेकर नेल्ली नरसंहार तक के पर्दाफाश के मामले शामिल रहे हैं. हालिया मामलों में गुजरात में हुए नरसंहार के मामलों में अपराधियों की पहचान करने और उनके खिलाफ सबूत जुटाने के मामले में ‘तहलका’ की खोजी पत्रकारिता ने अनुकरणीय मिसाल पेश की है.
लेकिन इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़ दिया जाए तो ऐसा लगता है कि मुख्यधारा की पत्रकारिता के कारपोरेटीकरण के साथ दोनों तरह की खोजी पत्रकारिता की मौत हो चुकी है. खासकर उस खोजी पत्रकारिता की जो अपनी पहल पर सरकारी दस्तावेजों की पड़ताल, स्रोतों को खंगालने, दूर-दराज के इलाकों की धूल फांकने और तथ्यों की छानबीन करके घोटालों के साथ-साथ सामाजिक अन्याय, भेदभाव और जुल्म-उत्पीडन के मामलों का पर्दाफाश करती थी.

कहने की जरूरत नहीं है कि खोजी पत्रकारिता की मौत ने आज की कारपोरेट पत्रकारिता के ‘लोकतांत्रिक घाटे’ को और बढ़ा दिया है और उसकी साख को और कमजोर कर दिया है. 

('तहलका' के 15 अक्तूबर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)                     

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