रविवार, अप्रैल 22, 2012

कृपा का फलता-फूलता कारोबार

धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को उल्लू बनानेवाले कारोबारी बाबाओं/स्वामियों/बापूओं की देश में कमी नहीं

कहते हैं कि समय बदलते देर नहीं लगती है. लोगों की धार्मिक आस्थाओं को भुनाने और अपना उल्लू सीधा करने में लगे आधुनिक बाबा/स्वामी/बापू आदि भी इसके अपवाद नहीं हैं. लगता है कि ‘कृपा के कारोबार’ के नए सौदागर निर्मल बाबा उर्फ निर्मलजीत सिंह नरूला से भी आख़िरकार समय और उन्हें आसमान पर चढानेवाले चैनलों ने मुंह फेर लिया है. नतीजा यह कि निर्मल बाबा की ‘तीसरी आँख’ की इन दिनों चैनलों और अखबारों में खूब छिछालेदर हो रही है.
कल तक बाबा की कृपा के लिए उनकी उल्टी-सीधी सलाहों को आँख मूंदकर पालन करनेवाले उनके भक्त उनके खिलाफ धोखाधड़ी के मामले दर्ज करा रहे हैं और सुबह-दोपहर-शाम ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ उर्फ निर्मल दरबार सजाने वाले ३५ से ज्यादा देशी-विदेशी चैनलों में कई की आँखें खुल गई हैं और वे उनकी पोल खोलने में जुट गए हैं.
हालाँकि बाबा अब भी मैदान में डटे हैं, उनकी टीम मीडिया मैनेज करने में जुटी है लेकिन उनके दरबार में भक्तों की भीड़ घटने लगी है और उससे ज्यादा उनके बैंक एकाउंट पर भक्तों की कृपा सूखने लगी है. इसके बावजूद यह कहना मुश्किल है कि निर्मल बाबा और उन जैसे दूसरे बाबाओं/स्वामियों/बापूओं का खेल खत्म हो गया है.
सच यह है कि धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को उल्लू बनानेवाले कारोबारी बाबाओं/स्वामियों/बापूओं की देश में कमी नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में ऐसे कई बाबाओं के ‘चमत्कारों’ और आपराधिक कारनामों का देर-सबेर पर्दाफाश भी हुआ है. इसके बावजूद धर्म और आस्था के कारोबार में कोई कमी नहीं आई है बल्कि उत्तर उदारीकरण-भूमंडलीकरण के इस दौर में मीडिया-बिजनेस-इवेंट मैनेजमेंट के ज्वाइंट वेंचर के रूप में वह एक संगठित उद्योग बन गया है जिसका टर्न-ओवर तेजी से बढ़ता जा रहा है.

कहने की जरूरत नहीं है कि न्यूनतम निवेश और मंदी से अप्रभावित हजारों करोड़ रूपयों के इस सनराइज उद्योग के जबरदस्त मुनाफे (रेट आफ रिटर्न) ने पिछले कुछ वर्षों में भांति-भांति के उद्यमियों को आकर्षित किया है. इस उद्योग और कारोबार का कानून और किसी भी तरह के रेगुलेशन से बाहर होना भी आकर्षण की एक बड़ी वजह है. 
आश्चर्य नहीं कि जो निर्मलजीत सिंह नरूला कपड़े से लेकर ईंट-भट्ठे के कई कारोबारों में नाकाम रहा, निर्मल बाबा बनते ही उसका कारोबार सैकड़ों करोड़ रूपये में पहुँच गया. सचमुच, निर्मल बाबा का चमत्कारिक उदय और खुद बाबा के शब्दों में उनके कृपा के कारोबार का सालाना टर्न-ओवर २३५ करोड़ रूपये से अधिक पहुँच जाना इस धर्म और आस्था उद्योग की सफलता और संभावनाओं का चौंकानेवाला उदाहरण है.
हालाँकि निर्मल बाबा इस कारोबार के अकेले खिलाड़ी नहीं हैं और न ही सबसे बड़े खिलाडी हैं. उन जैसे दर्जनों खिलाडियों का धंधा अभी भी चोखा है और उनका टर्न-ओवर ५०० से लेकर १५०० हजार करोड़ रूपये के बीच है. लेकिन निर्मल बाबा परिघटना कई मायनों में सबसे अलग और हैरान करनेवाली है.             
इसमें कोई दो राय नहीं है कि निर्मल बाबा की तीसरी आँख की कारोबारी सफलता उत्तर उदारीकरण दौर में मध्य और निम्न-मध्यवर्ग के असीमित लालच और जल्दी से जल्दी सफलता के शार्टकट की खोज और दूसरी ओर, बढ़ती आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा से निपटने में उसकी नाकामी के बीच से निकली है. असल में, उदारीकरण-भूमंडलीकरण के साथ भारतीय समाज के एक छोटे से हिस्से में आई समृद्धि और उसकी चकाचौंध ने मध्य और निम्न-मध्यवर्ग की लालसाओं को भी भडका दिया है. वह भी सफलता के शार्टकट खोज रहा है. शेयर बाजार से लेकर ऐसे ही दूसरे जोखिम भरे कारोबारों के जरिये रातों-रात अमीर होने के ख्वाब देख रहा है.
इस जोखिम भरे रास्ते में उसे किसी चमत्कार और साथ ही साथ, ‘बीमा’ की जरूरत है जो निर्मल बाबा अपने समोसों/रसगुल्लों जैसे आसान और सहज टोटकों से मुहैय्या करा रहे थे. आश्चर्य नहीं कि बाबा के समागम में ऐसे लोगों की तादाद अच्छी-खासी थी जो दो हजार रूपये की फीस देकर बाबा की कृपा सीधे अपने पर्स में हासिल कर रहे थे.  
दूसरी ओर, निर्मल बाबा के भक्तों में उदारीकरण-भूमंडलीकरण के मारे निम्न-मध्यवर्गीय दुखियारों की संख्या भी बहुत ज्यादा है जो अपने डूबते छोटे-मोटे काम-धंधों और व्यापार/कारोबार में बरकत से लेकर असाध्य/अनजानी बीमारियों के इलाज और अतृप्त इच्छाओं के समाधान की उम्मीद में बाबा के दरबार में अपनी बची-खुची संपत्ति भी लुटाने के लिए तैयार थे.
यह किसी से छुपा नहीं है कि आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में परंपरागत काम-धंधे और छोटे-मोटे कारोबार गहरे संकट में हैं और दूसरी ओर, रोजगार के नए अवसर सूखते जा रहे हैं या जो हैं उनमें भी काम का दबाव बहुत ज्यादा, वेतन कम, बदतर सेवा शर्तें और असुरक्षा बहुत ज्यादा है. उसे बेहतर अवसरों और मानसिक शांति की तलाश है जो मौजूदा व्यवस्था में दिन पर दिन दुर्लभ होता जा रहा है.
हालाँकि इस मध्यवर्ग की आकांक्षाएं कम नहीं हैं लेकिन उनका आर्थिक-सामाजिक यथार्थ उनका रास्ता रोके खड़ा है और मुश्किल यह कि भारतीय राज्य उसे किसी तरह की सामाजिक/आर्थिक सुरक्षा देने के लिए तैयार नहीं है. ऐसे में, इस डूबते हुए मध्यवर्ग को निर्मल बाबा में तिनके का सहारा दिखता है.
लेकिन इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के कारण विस्थापित और असुरक्षित हुए मध्यवर्ग की सुध लेने के लिए न भारतीय राज्य तैयार है और न और कोई राजनीतिक-सामाजिक संगठन-समुदाय. उसके पास धर्म और आस्था की शरण में जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है. लेकिन अफसोस यह कि यहाँ भी उसे निर्मल बाबा और धोखा ही मिल रहा है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि धर्म और आस्था को भी निर्मल बाबा जैसे कारोबारियों ने अपहृत कर लिया है.
लेकिन यह कहानी अधूरी रह जाएगी अगर निर्मल बाबा के उदय और उन्हें एक तरह की प्रतिष्ठा और साख देने में उदारीकरण की एक और संतान टी.वी चैनलों की भूमिका को रेखांकित न किया जाये. सच पूछिए तो ‘थर्ड आई आफ निर्मल बाबा’ नामक यह पूरा उपक्रम टी.वी चैनलों, इवेंट मैनेजमेंट और नए माध्यमों के जरिये खड़ा हुआ.
यही नहीं, इसका पूरा ढांचा और कार्यप्रणाली किसी भी कारपोरेट कंपनी से कम नहीं है जहाँ समागम में भागीदारी से लेकर दसवंद दान की पूरी व्यवस्था अत्यंत आधुनिक, आनलाइन और सक्षम है. इस मायने में निर्मल बाबा सचमुच उत्तर आधुनिक बाबा हैं जिन्होंने धर्म और कृपा को उपभोक्ताओं की जरूरत के मुताबिक इतना आसान और सहज बना दिया कि धर्म पालन की कठिन परीक्षाएं और जटिलताएं चुटकियों में आसान हो गईं.
नतीजा, कृपा की उम्मीद में दोनों हाथों से पैसा लुटा रहे लोगों के हाथ भले कुछ न आया हो, बाबा का टर्न-ओवर २३५ करोड़ रूपये से ऊपर पहुँच गया. लेकिन बाबा के कारोबार का ग्राफ जितनी तेजी से ऊपर चढ़ा, उतनी ही तेजी से नीचे भी गिरने लगा है.
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि निर्मल बाबा जैसे और बाबाओं का कारोबार खत्म हो गया. सच यह है कि जब तक मौजूदा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां लोगों में असीमित लालसाएं और असुरक्षा पैदा करती रहेंगी, निर्मल बाबा जैसे बाबाओं का धंधा मंदा नहीं पड़नेवाला है. 

('राजस्थान पत्रिका' के रविवारीय संसकरण में २२ अप्रैल'१२ को प्रकाशित आलेख का असंपादित रूप..आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा.)      

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