आनंद प्रधान
पूर्वांचल से कांग्रेस की बहुत उम्मीदें हैं। यहां पहले चरण के चुनाव में कुल 16 सीटें दांव पर हैं। 2004 के चुनावों में कांग्रेस को सिर्फ दो सीटों-वाराणसी और बांसगांव (सु.) पर कामयाबी मिली थी। इसबार वह अपनी सीटें बढ़ाने की ख्वाब देख रही है। लेकिन कांग्रेस का मौजूदा सांगठनिक ढांचा इतना कमजोर है कि वह सभी 16 सीटों के लिए उम्मीदवार भी नहीं खोज पायी। वह बलिया, गाजीपुर जैसी सीटों पर प्रत्याशी देने में नाकाम रही है और 16 में से केवल 12 सीटों पर लड़ रही है। इनमें से कोई सात सीटों पर कांग्रेस के प्रत्याशी चतुष्कोणीय मुकाबले में दमदार तरीके से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
लेकिन सिवाय कुशीनगर (पडरौना) सीट के कांग्रेस कहीं भी जीत के करीब नहीं दिखाई दे रही है। कुशीनगर से कांग्रेस प्रत्याशी कुंवर आरपीएन सिंह न सिर्फ पडरौना के मौजूदा विधायक हैं बल्कि 2004 में कुछ हजार मतों से चुनाव हार गये थे। वे पडरौना राजपरिवार के वारिस और कांग्रेस के जाने माने नेता सीपी एन सिंह के बेटे हैं। अपनी साफ-सुथरी छवि और पिछले चुनावों में हारकर दूसरे स्थान पर रह जाने से पैदा हुई सहानुभूति के भरोसे वे इसबार बाजी मरने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन बसपा ने अपने प्रदेश अध्यक्ष और वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य को उनके खिलाफ उतारकर जीत की राह बहुत मुश्किल कर दी है।
कुशीनगर के अलावा कांग्रेस को सलेमपुर में भोला पांडे, बांसगांव (सु.) में महावीर प्रसाद, महाराजगंज में हर्षवर्धन सिंह, घोसी में सुधा राय (कांग्रेसी नेता स्वर्गीय कल्पनाथ राय की पत्नी), वाराणसी में मौजूदा सांसद डा0 राजेश मिश्रा और मिर्जापुर में बसपा के टिकट पर चुने गए मौजूदा सांसद रमेश दुबे से भी उम्मीदें हैं। लेकिन इनमें से अधिकाश सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी कड़े चतुष्कोणीय मुकाबले में फंसे है और मुख्य मुकाबले यानी पहले और दुसरे स्थान पर आने के लिए खूब पसीना बहा रहे हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने भी प्रचार मे अपनी ताकत झोंक दी है।
इसके बावजूद पूर्वांचल में कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की राह इतनी आसान नहीं है। कांग्रेस ने अपने सामाजिक आधार को व्यापक बनाने के बजाय सारा जोर सवर्ण जातियों को अपनी ओर खींचने में लगा दिया है। कांग्रेस ने जिन 12 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है, उसमें से आठ प्रत्याशी सवर्ण जातियों से-चार राजपूत, तीन ब्राम्हण, एक भूमिहार हैं जबकि दो सुरक्षित सीटों पर अनुसूचित जाति के और दो अन्य सामान्य सीटों पर देवरिया और गोरखपुर में पिछड़ी जाति के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया है। साफ है कि कांग्रेस ने पूर्वांचल में अपनी पुनर्वापसी के लिए अगड़ी जातियों पर अधिक भरोसा किया है। लेकिन अगड़ी जातियों में कांग्रेस के प्रति एक सकारात्मक रुझान के बावजूद उसे उनका खुला समर्थन हासिल करने के लिए अधिकांश सीटों पर भाजपा से कड़ा मुकाबला करना पड़ रहा हैं।
इसी तरह, इक्का-दुक्का सीटों को छोड़कर अधिकांश सीटों पर कांग्रेस मुस्लिम समुदाय का भी व्यापक और खुला समर्थन हासिल करने में नाकाम दिख रही है। उल्टे बाटला हाउस एनकांउटर के लिए सीधे-सीधे उसे जिम्मेदार ठहराते हुए आजमगढ़ जैसे जिले में मुस्लिम समुदाय में उससे बिल्कुल किनारा कर लिया है। 2004 में बनारस सीट पर कांग्रेस की जीत में मुस्लिम वोटों की सबसे बड़ी भूमिका थी। लेकिन इस बार बसपा ने यहां से बाहुबली माफिया मोख्तार अंसारी को मैदान में उतारकर कांग्रेस का खेल खराब कर दिया है। दूसरी ओर , पिछड़ी जातियां और दलित अभी कांग्रेस से दूरी बनाये हुए हैं। कांग्रेस नेतृत्व ने भी इस दूरी को पाटने के लिए कोई खास कोशिश नहीं की है। चुनावी जंग में यह उसे राजनीतिक रुप से भारी पड़ रहा है।
इस कारण, कांग्रेस अधिकांश सीटो पर चतुष्कोणीय मुकाबले में होने के बावजूद जीत के लिए जरुरी सामाजिक समीकरण बना पाने में कामयाब होती नहीं दिख रहीं है। कांग्रेस की मुश्किल यह भी है कि अधिकांश जिलों में उसका सांगठनिक ढांचा इतना कमजोर, लचर और जेबी किस्म का है कि वह कड़े मुकाबले में जरुरी ‘बूथ प्रबन्धन’ की व्यवस्था करने में भी अक्षम है। कांग्रेस चुनाव प्रचार में पैसा तो पानी की तरह बहा रहीं है लेकिन सांगठनिक कमजोरी के कारण उसे समर्पित और जुझारु कार्य कर्ता नहीं मिल रहे हैं जो मतदान केन्द्रों पर खड़े होकर वोट डलवा सकें।
इस सबके बावजूद कांग्रेस के लिए राहत और संतोष की बात यह है कि लोगों में उसके खिलाफ कोई खास नाराजगी या गुस्सा नहीं है। मुख्यधारा की अन्य पार्टियों- बसपा, सपा और भाजपा के मुकाबले उसके प्रति एक सकारात्मक रुझान भी दिख रहा है। इस कारण इस बार कांग्रेस का मत प्रतिशत बढ़ सकता है। लेकिन पूर्वांचल की इन 16 सीटों पर उसकी पुनर्वापसी का रास्ता अभी भी इस इलाके की अधिकांश सड़को की तरह बहुत ऊबड़-खाबड़ और कष्टकर है।
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