सोमवार, अप्रैल 20, 2009

पूर्वांचल में मुस्लिम राजनीति-सेक्यूलर पार्टियों से निराश होकर अलग राह की तलाश

आनंद प्रधान
पूर्वांचल की मूस्लिम राजनीति और उससे अधिक मुस्लिम समाज में भारी उथलपुथल मची हुई है। आजमगढ़ इस उथलपुथल का केन्द्र बन गया है। यहां का मुसलमान नए राजनीतिक रास्ते की तलाश कर रहा है। उसे इस बात की गहरी पीडा़ है कि उसके दर्द, अकेलेपन, सुरक्षा और सामाजिक-आर्थिक बेहतरी के सवालों को न तो कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी समझने की कोशिश कर रही है और न ही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसी सेक्यूलर होने का दावा करनेवाली क्षेत्रीय पार्टियां उसके जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश कर रही है। कथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों के प्रति मुस्लिम समाज के गुस्से, निराशा और हताशा का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वह इस चुनाव में सपा, बसपा और कांग्रेस को नकार कर सिर्फ पांच महीने पहले बने मंच-उलेमा कांउसिल और डा0 अयूब की पीस पार्टी आँफ इंडिया के प्रत्याशियों के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है।
उलेमा कांउसिल का गठन दिल्ली के बाटला हाउस एनकांउटर और उसके बाद आजमगढ़ के नौजवान मुस्लिम लड़को के खिलाफ एटीएस और एसटीएफ के धरपकड़ अभियान के विरोध में हुआ है। उलेमा कांउसिल का आरोप है कि आतंकवाद विरोधी अभियान के नाम पर निर्दोष मुसलमान लड़को को निशाना बनाया जा रहा है। आजमगढ़ को ‘आतंकवाद की नर्सरी’ और ‘आतंकगढ़’ के बतौर प्रचारित करके बदनाम किया जा रहा है लेकिन कोई पार्टी उनके खिलाफ जारी इस ‘अन्याय और साजिश’ के विरोध में आवाज नहीं उठा रही हैै। आजमगढ़ से उलेमा कांउसिल के उम्मीदवार डा. जावेद अख्तर कहते हैं कि, ‘यह विश्वास का संकट है। हम सभी तथाकथित सेक्यूलर पार्टियों के रवैये से निराश हैं। हमें न्याय नहीं मिल रहा है। हम न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं।’ इस संघर्ष के तहत कांउसिल की अगुवाई में जिले भर से भारी तादाद में मुसलमान ट्रेन में भर कर इंसाफ मांगने के लिए पहले दिल्ली और फिर लखनऊ गये थे।
आजमगढ़ में उलेमा कांउसिल और आसपास के जिलों में एक मुस्लिम पार्टी के रुप में खड़ी हो रही पीस पार्टी की लोकप्रियता से सपा, बसपा और कांग्रेस परेशान हैं। उनका आरोप है कि उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी सेक्यूलर मतों में विभाजन कराके भाजपा को जीता रही हैं। लेकिन उलेमा कांउसिल के संस्थापकों में से एक ताहिर मदनी पलटकर जवाब देते हैं कि, ‘भाजपा को हराने का हमने ठेका नहीं ले रखा है। सेक्यूलर पार्टियां अगर भाजपा को सचमुच हराना चाहती हैं तो हमें वोट करें। भाजपा को हराने का जिम्मा सिर्फ मुसलमानों का नहीं हैं।’ मुस्लिम समाज के एक हिस्से में यह भावना उबाल मार रही है। उसे लग रहा है कि कथित सेक्यूलर पार्टियां भाजपा का डर दिखाकर उन्हें सिर्फ वोट बैंक की तरह इस्तेमाल कर रही हैं। वह सिर्फ भाजपा के डर से सेक्यूलर पार्टियां का वोट बैंक बने रहने के लिए तैयार नहीं है।
अवामी कांउसिल फॉर डेमोक्रेसी एण्ड पीस क महासचिव असद हयात कहते हैं कि, ‘भाजपा से क्या डरना? मुसलमानों के साथ जो हो रहा है, उससे बुरा और क्या हो सकता है?’ आजमगढ़ के मुस्लिम बहुल कस्बे मुबारकपुर के नसीम अहमद कुछ इसी तर्ज पर कहते हैं कि, ‘रमाकांत (आजमगढ़ से भाजपा प्रत्याशी रमाकांत यादव) की जीत से हमें कोई डर नहीं है। जीतता है तो जीत जाय लेकिन इंसाफ के लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी।’ हाजी नुरुल कुरैशी काफी तल्खी से कहते हैं, ‘हम तो डूबेंगे, तुम्हें भी ले डूबेगें।’ मुबारकपूर के ही अबू आसिम को सपा से यह शिकायत है कि, ‘ मुलायम ने बाबरी मस्जिद शहीद करने वाले कल्याण से हाथ मिला लिया है और आजम खान को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका हैं।’ मुस्लिम समुदाय को बहनजी (मायावती) से भी कम शिकायतें नहीं है और कांग्रेस से तो मन टूट हुआ है ही।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी को पूर्वांचल की कुछ मुस्लिम बहुल आबादी वाली सीटों पर अच्छा-खासा समर्थन मिल रहा है। उलेमा कांउसिल का सबसे अधिक जोर आजमगढ़ और लालगंज (सुरक्षित) सीटों पर दिख रहा है जबकि मछलीशहर, जौनपुर और अम्बेडकरनगर में भी उसके प्रत्याशी सेक्यूलर पार्टियों की नींद उड़ाए हुए हैं। पीस पार्टी के प्रत्याशी घोसी, देवरिया, संतकबीर नगर, डुमरियागंज आदि सीटों पर जोर-आलमाइश कर रहे हैं। दिलचस्प तथ्य यह है कि उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी ने कई सीटों पर हिन्दू खासकर सवर्ण, पिछड़े और दलित उम्मीदवार उतारे हैं। जैसे लालगंज (सु.) सीट पर उलेमा कांउसिल के प्रत्याशी चंद्रराम सरोज और मछलीशहर (सु.) से रामदंवर गौतम और संतकबीर नगर से पीस पार्टी के राजेश सिंह मजबूती से चुनाव लड़ रहे है। वे जीत भले न पाएं लेकिन सपा-बसपा का राजनीतिक समीकरण जरुर बिगाड़ रहे है।
आजमगढ़ से उलेमा कांउसिल के प्रत्याशी डा. जावेद अख्तर के कारण बसपा के मौजूदा सांसद अकबर अहमद डम्पी के पसीने छूट रहे हैं। डा. जावेद अख्तर हड्डी रोग विशेषज्ञ हैं और आजमगढ़ में एक चिकित्सक के बतौर बहुत लोकप्रिय है। उनकी व्यक्तिगत छवि साफ-सुथरी और एक अराजनीतिक व्यक्ति की रही है। लेकिन बाटला हाउस प्रकरण में कोटा (राजस्थान) में पढ़ रहे अपने बेटे असदुल्ला का नाम आने और तब से उसके ‘गुम’ होने के कारण वे काफी विचलित हैं। उनकी तरह ही, उलेमा कांउसिल के संस्थापक ताहिर मदनी के बेटे को भी हैदराबाद जाने के रास्ते में एटीएस ने नागपुर से उठा लिया। हालांकि मदनी का बेटा हो हंगामें के बाद छूट गया लेकिन बाटला हाउस एनकांउटर और बाद में पूरे इलाके में जिस तरह से एटीएस- एसटीएफ ने मुसलमान युवाओं को ‘उठाया’ है, उससे मुस्लिम समुदाय में बहुत बेचैनी, गुस्सा और हताशा है। इसी बेचैनी और गुस्से की उपज है अपनी पार्टी बनाने और इंसाफ की लड़ाई खुद लड़ने की जिद।
लेकिन इसका फायदा भाजपा को हो रहा है। गोरखपुर के मौजूदा सांसद योगी आदित्यनाथ की अगुवाई में भाजपा ने गोरखपुर से लेकर आजमगढ़ मंडल की अधिकांश सीटों पर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण कराने में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखी है। योगी आदित्यनाथ की आजमगढ़ में दिलचस्पी है। वे यह कहते हुए वोट मांग रहे हैं कि भाजपा जीती तो आजमगढ़ का नाम बदलकर आर्यमगढ़ कर दिया जाएगा और उलेमा कांउसिल की ट्रेन दिल्ली या लखनऊ नहीं जा पाएगी। अगर वह फिर भी कोशिश करेगी तो उसे कराची भेजा दिया जाएगा। योगी की ही तर्ज पर कुशीनगर में भाजपा प्रत्याशी विजय दुबे, आजमगढ़ में रमाकांत यादव और घोसी में राम इकबाल सिंह भड़काऊ, अश्लील और आपत्तिकजनक भाषण कर रहे हैं। राम इकबाल के खिलाफ तो भड़काऊ भाषण देने के मामले में स्थानीय प्रशासन ने मुकदमा भी दर्ज कराया है।
इससे मुस्लिम समुदाय में बेचैनी और अधिक बढ़ गयी है। वह दुविधा में पड़ गया है। उसका एक हिस्सा उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी की राजनीति को आत्मघाती मान रहा है। उसे लग रहा है कि इसका राजनीति फायदा भाजपा को हो रहा है। मऊ के सरफराज अहमद पीस पार्टी का समर्थन करते हुए भी कहते हैं कि ‘फैसला 15 अप्रैल की रात को ही होगा कि किसे वोट देना है।’ दूसरी ओर, मुबारकपुर के रियाज अहमद अंसारी साफ तौर पर बसपा के डम्पी की वकालत करते हुए कहते है कि, ‘ये (उलेमा कांउसिल) एक रील का माझा है, कितना चलेगा?’ मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से को यह भी लग रहा है कि उलेमा कांउसिल में ज्यादातर सवर्ण या अगड़े (अशराफ) मुसलमान हैं जबकि पिछड़े (अजलाफ) और दलित (अरजाल) मुसलमान अभी भी सपा या बसपा के साथ हैं।
इन चुनावों में उलेमा कांउसिल और पीस पार्टी के राजनीतिक भविष्य का फैसला हो जाएगा। उलेमा कांउसिल खुद को राजनीतिक पार्टी नहीं एक सामाजिक- सांस्कृतिक मंच कहती है जिसका गठन ‘सताए हुए लोगों को इंसाफ दिलाने’ के लिए किया गया है। कांउसिल का इरादा है कि चुनावों के बाद एक नई राजनीतिक पार्टी गठित की जाएगी। उसे पंजीकृत कराने के बाद वह अगला विधान सभा चुनाव सभी 402 सीटों पर लड़ेगी। लेकिन इस इरादे की परीक्षा इस चुनाव में हो जाएगी। कांउसिल अगर अपने समर्थकों को मतदान के दिन तक एकजुट रखने में कामयाब हो गयी तो पूर्वांचल और इस तरह उत्तरप्रदेश की मुस्लिम राजनीति में एक बड़े बदलाव की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

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