शनिवार, मार्च 01, 2008

चुनावी वैतरणी पार करने की कोशिश...

लालू प्रसाद मास्टर पोलिटिशियन माने जाते हैं और उन्होंने आज 2008-09 का रेल बजट पेश करते हुए यह साबित कर दिया कि उन्हें ऐसा क्यों कहा जाता है. यह रेल बजट चुनावी वर्ष का एक लोकलुभावन बजट है जिसका मकसद यूपीए गठबंधन के लिए अगले आम चुनावों में अधिक से अधिक वोट जुटाना है.

 

हालांकि इसके लिए लालू प्रसाद की खूब आलोचना होगी लेकिन यह याद रखना चाहिए कि एक राजनेता आखिर राजनेता होता है. लालू प्रसाद भी इसके अपवाद नहीं हैं. रेल बजट ने यह साबित कर दिया है कि वे राजनेता पहले हैं और रेलमंत्री बाद में.

 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि लालू प्रसाद ने पिछले पांच बजटों में यात्री किराये में सीधे कोई बढ़ोत्तरी न करके एक रिकार्ड कायम किया है. इसका श्रेय उन्हें मिलना चाहिए. यही नहीं, उन्होंने लगातार उच्च श्रेणी के किरायों में कटौती करके मध्यवर्ग का दिल जीतने की भी कोशिश की है. उनके बजट में ऐसे कई प्रस्ताव हैं जिनका स्वागत किया जाना चाहिए. हालांकि उनमें से कई प्रस्ताव पहले भी लागू हो सकते थे लेकिन देर आयद, दुरुस्त आयद.

 

हर बार की तरह इस बार भी लालू प्रसाद ने रेलवे को भारी मुनाफा होने का दावा किया है. इसमें कुछ सच्चाई है, कुछ ट्रिक है और कुछ अर्थव्यवस्था के शानदार प्रदर्शन का नतीजा. तथ्य यह है कि रेलवे को पिछले कुछ वर्षों में मुनाफा इसलिए हुआ है क्योंकि अर्थव्यवस्था की तेज रफ्तार और गतिशीलता के साथ-साथ पिछले बजटों में माल भाड़े के तार्किकीकरण के कारण रेलवे को अधिक माल ढुलाई का फायदा मिला है.

 

खुद रेलमंत्री ने स्वीकार किया है कि माल भाड़े में लीन सीजन डिस्काउंट देकर और पीक सीजन सरचार्ज लगाकर रेलवे ने दो हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त कमाई की है. इसी तरह रेलों में अतिरिक्त यात्री डिब्बे जोड़कर रेलवे ने और दो हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त कमाई की है.

 

इसी तरह मालगाड़ियों पर पे लोड बढ़ाकर रेलवे ने चौदह हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त राजस्व अर्जित किया है. जाहिर है कि रेलमंत्री ने बहुत चालाकी के साथ लोगों की जेब से पैसे निकाल लिया लेकिन लोग इस धोखे में रह गए कि लालू प्रसाद ने किराया नहीं बढ़ाया है.

 

इसके साथ ही लालू प्रसाद ने रेलवे के निजीकरण के बारे में पूर्व रेलमंत्री नीतीश कुमार के समय तैयार राकेश मोहन समिति की सिफारिशों को किस्तों में लागू किया है. दरअसल, लालू प्रसाद की खासियत यह है कि निजीकरण की कड़वी गोली भी लोकलुभावन घोषणाओं की चाशनी में लपेटकर पेश करते हैं.

 

उनका रेल बजट इस बात का उदाहरण है कि अगर कोई राजनेता किसी रेल जैसी कॉरपोरेट कंपनी का बजट पेश करे तो वह कैसा होगा. इस बजट में भी रेलमंत्री का सबसे अधिक जौर रेलवे के मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाने पर है.

 

सवाल यह है कि अगर रेल एक व्यावसायिक सेवा से अधिक सामाजिक सेवा है तो उसे एक निजी कंपनी की तरह भारी मुनाफे की चिंता क्यों करनी चाहिए ? इसके साथ ही रेलमंत्री को मुनाफे से अधिक रेलयात्रियों की सुविधाओं और सुरक्षा की चिंता करनी चाहिए.

 

अफसोस की बात यह है कि पिछले सभी बजटों में लालू प्रसाद ने यात्री सुविधाओं और सुरक्षा को प्राथमिकता देने की बात जरूर की लेकिन व्यवहार में सुविधाएं राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस तक सीमित रह गई हैं जबकि सुरक्षा तो हमेशा की तरह भगवान भरोसे है.

 

यह एक ऐसा पहलू है जिसकी उपेक्षा यात्रियों के कीमती जीवन की कीमत पर की जा रही है. इसके साथ ही यात्री सुविधाएं सबसे पहले पैसेंजर ट्रेनों और सामान्य यात्री डिब्बों के साथ-साथ छोटे स्टेशनों तक पहुंचनी चाहिए. रेल सिर्फ दिल्ली, मुंबई और कुछ बड़े महानगरों और उच्च श्रेणी के यात्रियों के लिए नहीं है.

 

बहरहाल, लालू प्रसाद ने एक लोकलुभावन बजट पेश कर अपने कैबिनेट साथी वित्तमंत्री पी चिदंबरम के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर दी है. निश्यच ही, चिदंबरम से भी एक और ड्रीम बजट की अपेक्षा की जाएगी. अगर यह रेल बजट कोई संकेत है तो 29 फरवरी को पेश किया जाने वाला आम बजट भी इसी तरह लोकलुभावन और चुनावी बजट होना चाहिए.

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