शनिवार, मार्च 01, 2008

आर्थिक सर्वेक्षण का राजनीतिक अर्थशास्त्र...

चुनावों से पहले कांग्रेस वामपंथियों से पीछा छुड़ाने की तैयारी में..?

 

ताजा आर्थिक सर्वेक्षण की मानें तो अर्थव्यवस्था के साथ सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है. उसके मुताबिक अर्थव्यवस्था की तस्वीर न सिर्फ गुलाबी है बल्कि उसका दावा है कि वह उच्च विकास दर के स्थायी दौर में पहुंच गई है.

चुनाव वर्ष होने के कारण यह स्वाभाविक भी है कि मनमोहन सिंह सरकार अर्थव्यवस्था की ऊंची विकास दर का श्रेय लेने की कोशिश करें. हालांकि सर्वेक्षण में यह तथ्य दबी जुबान से स्वीकार किया गया है कि चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पिछले वर्ष की तुलना में लुढ़ककर 8.7 प्रतिशत रह जाने का अनुमान है.

 

यही नहीं, सर्वेक्षण में यह भी स्वीकार किया गया है कि तमाम कोशिशों के बावजूद कृषि क्षेत्र के प्रदर्शन में सुधार नहीं हो रहा है. चालू वित्तीय वर्ष में कृषि विकास दर पिछले वर्ष के 3.8 प्रतिशत से गिरकर मात्र 2.6 फीसदी रह जाने का अनुमान है.

 

कृषि क्षेत्र की लगातार बद से बदतर होती स्थिति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि दसवीं पंचवर्षीय योजना 2002-2007 के दौरान जब अर्थव्यवस्था नौ प्रतिशत की औसत दर से कुलांचे भर रही थी तो कृषि मात्र ढाई फीसदी की कछुए की विकास दर से घिसट रही थी.

 

स्थिति यह हो गई है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का योगदान 2001-02 के 24 फीसदी से लुढ़कता हुआ चालू वित्तीय वर्ष में मात्र 17.5 फीसदी रह गया है. जिस कृषि क्षेत्र पर देश की दो तिहाई आबादी की आजीविका निर्भर करती है, उसके हिस्से जीडीपी का मात्र 1/6 से भी कम आता है.

 

इसी तरह सर्वेक्षण मजबूरी में यह भी स्वीकार करता है कि उद्योग क्षेत्र के प्रदर्शन में भी गिरावट आई है. दूसरी ओर, वह बढ़ती महंगाई का भी जिक्र करता है. लेकिन अर्थव्यवस्था की इन सभी कमजोर पहलुओं के उल्लेख के बावजूद सर्वेक्षण का कहना है कि चिंता की कोई बात नहीं है. उसका कहना है कि यह स्थिति बदल सकती है, बशर्ते सरकार व्यापक आर्थिक सुधारों का रास्ता साफ करे. कहने की जरूरत नहीं है कि यह कहते हुए ताजा आर्थिक सर्वेक्षण अर्थव्यवस्था की रफ्तार में आई गिरावट को बहाना बनाकर सुधारों की अगली खेप लोगों के गले उतारना चाहता है.

 

यूपीए सरकार के पिछले चार सर्वेक्षणों की तुलना में ताजा सर्वेक्षण बहुत आगे बढ़कर व्यापक आर्थिक सुधारों की वकालत करता है. सर्वेक्षण में कहा गया है कि फैक्ट्री कानून में संशोधन करके काम के घंटों को प्रति सप्ताह 48 घंटे से बढ़ाकर 60 घंटे कर दिया जाए. जरूरत पड़ने पर इसे बढ़ाकर 72 घंटे भी करने की सिफारिश की गई है बशर्ते प्रतिदिन दो अतिरिक्त घंटों के लिए ओवरटाईम दिया जाए.

 

यही नही वामपंथी दलों को चिढ़ाने वाले अंदाज में सर्वेक्षण में बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा 49 फीसदी तक बढ़ाने और चीनी, उर्वरक और दवा क्षेत्र को विनियंत्रित करने के साथ ही कोयला खनन क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी सुनिश्चित करने की सिफारिश की गई है. इसके साथ ही पिछले दरवाजे से विनिवेश और निजीकरण की भी कोशिश की गई है. सर्वेक्षण का कहना है कि मुनाफे में चल रही सभी गैर-नवरत्न कंपनियों को शेयर बाजार में सूचीबद्ध करने के लिए पांच से दस प्रतिशत शेयर बेचे जाने चाहिए.

 

यह सचमुच आश्चर्य की बात है कि यूपीए सरकार का पांचवां आर्थिक सर्वेक्षण न्यूनतम साझा कार्यक्रम के दायरे को लांघते हुए ऐसी सिफारिशें करता है जो वामपंथियों के साथ-साथ उसके कई घटक दलों को भी मंजूर नहीं है. आखिर सर्वेक्षण अर्थव्यवस्था का लेखा-जोखा होने के साथ-साथ सरकार की आर्थिक सोच और दर्शन की भी झलक देता है.

 

ऐसे में, सवाल यह है कि क्या यूपीए खासकर कांग्रेस चुनावों से पहले वामपंथियों से नाता तोड़ने की तैयारी में है. आज चिदंबरम के बजट से यह साफ हो जाएगा कि वामपंथी दलों और यूपीए की दोस्ती कितने दिन चलेगी....?

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