आनंद प्रधान
यहां लड़ाई ‘मंदिर’ और ‘हाते’ के बीच हो रही है। इस राजनीतिक-सामाजिक और आर्थिक वर्चस्व की लड़ाई में मुद्दे गौण हो गए हैं और व्यक्ति, उसकी जाति और धर्म, बाहुबल और धनबल ज्यादा निर्णायक हो गए हैं। मंदिर के प्रतिनिधि और मौजूदा भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ गोरखनाथ मंदिर के मौजूदा महंथ अवैद्यनाथ के उत्तराधिकारी हैं। 37 वर्षीय आदित्यनाथ चौथी बार मैदान में हैं। वे 1998 से लगातार जीत रहे हैं। उनसे पहले महंथ अवैद्यनाथ 1989 से 1996 के बीच लगातार तीन बार चुनाव जीते। इस तरह, भाजपा प्रत्याशी के बतौर पहले अवैद्यनाथ और अब योगी आदित्यनाथ 1989 से 2004 के बीच लगातार छह बार चुनाव जीतने में कामयाब रहे हैं।
यही कारण है कि गोरखपुर को पूर्वांचल में भाजपा के लिए सबसे सुरक्षित सीट माना जा रहा है। लेकिन गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों में भाजपा का मतलब योगी आदित्यनाथ हैं। लगातार जीत के कारण योगी की अपराजेयता का एक मिथ सा बन गया है। इस अपराजेयता का गणित काफी हद तक योगी के नारे ‘हिन्दुत्व और विकास’ के रसायन पर टिका हुआ है। योगी का ‘हिन्दुत्व और विकास’ अपनी कुछ स्थानीय विशेषताओं के साथ लगभग पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के गुजरात मॉडल की कार्बन कॉपी है। योगी खुद को नरेंद्र मोदी के तर्ज पर ही ढाल रहे हैं। उनके समर्थक गोरखपुर समेत पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश को गुजरात बनाने का सपना देख और दिखा रहे हैं।
हालांकि भाजपा और आदित्यनाथ के बीच ‘प्यार और नफरत’ का संबंध रहा हैं। लेकिन इस बार भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने गोरखपुर, बस्ती और आजमगढ़ मंडल की कमान योगी आदित्यनाथ को सौंप दी है। पिछले विधान सभा चुनावों में अपने समर्थकों को टिकट दिलाने के लिए योगी न सिर्फ नाराज होकर बगावत पर उतर आए थे बल्कि भाजपा नेतृत्व को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। अब भाजपा पूरी तरह से योगी के करिश्मे के भरोसे है। योगी का करिश्मा मूलतः उनके उग्र, आक्रामक और कई बार अश्लील और सभी हदें लांघ जाने वाले मुस्लिम विरोधी प्रचार और खुद को हिंदुओं के सबसे बड़े रक्षक की भावनात्मक अपील पर टिका है। लेकिन इस अपील के साथ योगी ने अपनी छवि क्षेत्र के विकास-सड़क, बिजली, पानी, पुल, स्कूल/ कॉलेज, अस्पताल आदि के लिए लड़ने वाले संसद की भी बनाई है।
इस चुनाव में भी योगी की रणनीति की मुख्य थीम मुस्लिम विरोधी प्रचार है लेकिन साथ ही उन्होंने संसदीय क्षेत्र में कराए गए विकास कार्यों का ब्यौरा देने वाली 28 पृष्ठों की एक पुस्तिका भी छपवाई है। शहर में बंट रहे पर्चों में भी पहले पृष्ठ पर इस्लामिक आतंकवाद की चुनौती के सामने खड़े योगी का महिमामंडन है तो दूसरे पृष्ठ पर पिछले पांच वर्षों में हुए विकास कार्यों की उपलब्धियों का बखान है। इन उपलब्धियों में योगी ने केन्द्र और राज्य सरकार के जरिए हुए कामों को भी अपने खाते में डालने में संकोच नहीं किया है। लेकिन जैसे-जैसे मतदान की तारीख 16 अप्रैल नजदीक आ रही है, योगी और उनके समर्थकों की भाषा और नारे तीखे, भड़काऊ और अश्लील होते जा रहे हैं। उनकी पूरी कोशिश है कि गोरखपुर और उसके आसपास के जिलों में चुनाव पूरी तरह हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के आधार पर लड़ा जाए।
असल में, इस बार योगी आदित्यनाथ के करिश्मे को पूर्वांचल के बहुचर्चित बाहुबली और माफिया डाॅन के बतौर जाने जानेवाले हरिशंकर तिवारी के बेटे और बहुजन समाज पार्टी के प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी से चुनौती मिल रही हैं। वे ‘हाते’ के उत्तराधिकारी हैं। गोरखपुर के जटाशंकर मुहल्ले में हरिशंकर तिवारी के विशाल किलेनुमा आवास को ‘हाता’ के नाम से जाना जाता है। यह गोरखपुर का एक ताकतवर सत्ता केन्द्र है। हालांकि मैदान में समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी और जाने माने भोजपुरी गायक-कलाकार मनोज तिवारी भी हैं। उनकी सभाओं में भीड़ भी खूब जुट रही है लेकिन इसमें उन्हें देखने वालों की संख्या ज्यादा है, वोट देने वालों की कम। वे लड़ाई को त्रिकोणीय बनाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन बाहरी उम्मीदवार और मैदान में देर से प्रवेश जैसे कारक उनके खिलाफ जा रहे हैं। इसके बावजूद सच यह है कि वे ‘मंदिर’ और ‘हाते’ दोनों को नुकसान करेंगे।
लेकिन गोरखपुर में असली मुकाबला योगी आदित्यनाथ और बसपा प्रत्याशी विनय शंकर तिवारी के बीच ही है। गोरखपुर और उसके आसपास की सीटों पर मायावती ने हरिशंकर तिवारी को बसपा के हाथी का महावत बना दिया है। यह बसपा की सर्वजन राजनीति और सोशल इंजीनियरिंग का नया चेहरा है। बसपा ने विनय शंकर के अलावा हरिशंकर तिवारी के बड़े बेटे भीष्म शंकर तिवारी उर्फ कुशल तिवारी को संत कबीर नगर और भांजे गणेश शंकर पांडेय को महराजगंज से टिकट दिया है। इसी तरह, बसपा ने गाजीपुर से बड़े भाई अफजाल अंसारी और वाराणसी से छोटे भाई और माफिया डाॅन मुख्तार अंसारी को टिकट दिया है। इस तरह, पूर्वी उत्तर प्रदेश की 16 सीटों में से 5 सीटें दो बाहुबली परिवारों को सौंपकर मायावती ने ब्राह्मण-मुस्लिम-दलित समीकरण पर दांव खेला है।
गोरखपुर में बसपा का झण्डा उठाए हरिशंकर तिवारी की उम्मीदें इसी समीकरण पर टिकी हैं। तिवारी के लिए यह चुनाव ‘हाते’ के राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व को बचाए रखने की लड़ाई है। इस लड़ाई में हार का अर्थ उनके साम्राज्य का बिखराव होगा। इस इलाके में हरिशंकर तिवारी का आपराधिक से लेकर राजनीतिक-आर्थिक साम्राज्य भी काफी हद उनकी ‘अपराजेयता’ से ही बना है। लेकिन पिछले विधान सभा चुनावों में सपा के टिकट पर चुनाव लड़ रहे तिवारी को चिल्लूपार में बसपा प्रत्याशी राजेश त्रिपाठी ने हराकर इस अपराजेयता को जबरदस्त झटका दिया। तिवारी ने उसके बाद बसपा का झण्डा थाम लिया। यह उनका इतिहास है। वे हमेशा सत्ता के साथ रहते हैं। कांग्रेस, उसके बाद भाजपा, फिर सपा होते हुए अब बसपा के साथ हैं।
लेकिन हरिशंकर तिवारी अपनी सारी राजनीतिक कलाबाजियों के बावजूद यह जानते हैं कि अगर उन्होंने अपेक्षित नतीजा नहीं दिया तो मायावती उन्हें माफ नहीं करेंगी। यह उनके करोड़ों के ठेका कारोबार के लिए भी मुश्किलें पैदा कर सकता है। इसलिए तिवारी ने गोरखपुर में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी है। लेकिन योगी पर पार पाना उनके लिए आसान नहीं दिख रहा है। इसकी एक बड़ी वजह तो खुद उनका दागदार इतिहास है। शहर के बहुतेरे लोगों को योगी के विकल्प के बतौर विनय शंकर तिवारी को पचा पाना मुश्किल हो रहा है।
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