आनंद प्रधान
यूपीए सरकार ने निष्पक्ष और स्वच्छ चुनाव सुनिश्चित करने के इरादे से एक्जिट पोल पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया है । इसका अर्थ है कि आम चुनावों के दौरान समाचार माध्यमों के पाठको और दर्शकों को मतदान प्रक्रिया पूरी तरह से समाप्त होने से पहले चुनावी नतीजों के रूझान का पता नहीें चल सकेगा। सरकार, चुनाव आयोग और अधिकांश राजनीतिक दलों का तर्क है कि इस फैसले से मतदाताओं को बिना किसी अवांछित प्रभाव के स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्णय लेने में आसानी होगी।
लेकिन कई समाचार संगठनों खासकर समाचार चैनलों ने इस फैसले की कड़ी आलोचना करते हुए इसे अभिव्यक्ति की आजादी में अनुचित हस्तक्षेप बताया है। इसके साथ ही मीडिया और राजनीतिक-अकादमिक हलकों में इस फैसले के गुण-दोशों को लेेकर एक बहस शुरू हो गयी है। एक्जिट पोल पर प्रतिबंध के समर्थकों का कहना है कि उसके नतीजों का मतदाताओं पर अनुचित प्रभाव पड़ता है और इससे चुनावी प्रक्रिया की निष्पक्षता, स्वच्छता और स्वतंत्रता प्रभावित होती है। इसकी वजह यह है कि आमतौर पर मतदाताओं में एक्जिट पोल में जीत रही पार्टी के पक्ष में मतदान करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। इसे बैंडवैगन प्रभाव भी कहा जाता है। लेकिन इस फैसले के विरोधी इन तर्को से सहमत नहीं हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि हाल के वर्षो में चुनाव प्रक्रिया के कई चरणों में होने और समाचार माध्यमों के व्यापक विस्तार के कारण एक्जिट पोल की राजनीतिक माहौल और चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता कई गुना बढ़ गयी है। समाचार माध्यमों के विस्तार के साथ चुनावी सर्वेक्षण और एक्जिट पोल करनेवाली दर्जनों एजेंसियां बाजार में सक्रिय हो गयी हैं जिनमें से कई एजेंसियों की विश्वसनीयता और साख संदेहांे के घेरे में है। कहने की जरूरत नहीं है कि चुनावों में जैसे- जैसे दांव ऊंचे होते जा रहे हैं, उसे प्रभावित करने की कोशिशें भी बढ़ती जा रही हैं। हाल के वर्शो में एक्जिट पोल को भी इस्तेमाल करने की प्रवृत्ति बढ़ी है। अधिकांश मौकों पर ओपिनियन और एक्जिट पोल वास्तविक नतीजों से काफी दूर रहे हैं, हालांकि उनके कर्ता-धर्ता उसे हमेशा वास्तविक मतगणना की तरह पेश करते रहे हैं।
लेकिन उससे भी बड़ा सवाल यह है कि एक्जिट पोल के प्रकाशन या प्रसारण से समूची राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को क्या लाभ होता है कि उसे जरूरी माना जाए? आखिर इससे किसका उद्वेश्य या हित सधता है? क्या सिर्फ कुछ सर्वेक्षण एजेंसियों और समाचार संगठनों के कारोबार को बनाए या बढ़ाए जाने के लिए एक्जिट पोल को जारी रखा जाना चाहिए या इसका चुनावी प्रक्रिया में कोई सार्थक योगदान है ? जाहिर है कि एक्जिट पोल के समर्थकों के पास इन प्रश्नों का कोई विश्वसनीय उत्तर नहीं है। ऐसे में, निश्चय ही सिर्फ कुछ चुनाव पंडितों, सर्वेक्षण एजेंसियों और चैनलों/अखबारों के कारोबार या बौद्धिक वाग्विलास के लिए पूरी चुनावी प्रक्रिया को अनुचित तरीके से प्रभावित करने की छूट नहीं दी जा सकती है। एक्जिट पोल नहीं होंगे तो कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा। अलबत्त्ता, एक्जिट पोल होने दिए गए तो चुनावी प्रक्रिया की निश्पक्षता और स्वच्छता जरूर प्रभावित होती है। यही कारण है कि दुनिया के अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में मतदान समाप्त होने से पहले एक्जिट पोल के प्रसारण/प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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