शनिवार, फ़रवरी 21, 2009

गहराते आर्थिक संकट पर फील गुड का मरहम

आनंद प्रधान
यह तो सब को पता है कि जब विरोधी के खिलाफ क्रिकेट टीम संकट में हो तो सबकी उम्मीदें तेंडुलकर पर टिकी होती हैं। लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री को भी अपने तेंडुलकर से बहुत उम्मीदें हैं खासकर ऐसे समय में जब वैश्विक और भारतीय अर्थव्यवस्था ढलान पर हंै और अर्थव्यवस्था के अधिकांश क्षेत्रों से निराशाजनक खबरें आ रही हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए तेंडुलकर अच्छी खबर लेकर आए हैं। लेकिन यहां हम क्रिकेटर तेंडुलकर की नहीं बल्कि प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (ईएसी) के अध्यक्ष और जाने-माने अर्थशास्त्री प्रोफेसर सुरेश तेंडुलकर की बात कर रहे हैं। उन्होंने उम्मीद जाहिर की है कि कि इस साल अक्तूबर से अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी और गति पकड़ने लगेगी।


यकीनन इस खबर से खुद बीमार और दिल के आपरेशन के बाद स्वास्थ्य लाभ कर रहे प्रधानमंत्री को बहुत राहत मिली होगी। उनकी आर्थिक सलाहकार परिषद ने अपनी ताजा रिपोर्ट में चालू वित्तीय वर्ष 2008-09 में जीडीपी की वृद्धि दर के धीमे होकर 7।1 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त करते हुए उम्मीद जाहिर की है कि अगले वित्तीय वर्ष 2009-10 में जीडीपी की वृद्धि दर में सुधार होगा और वह 7 से 7.5 प्रतिशत या इससे भी अधिक तेज गति से बढ़ेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि इस रिपोर्ट में अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य को लेकर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद का नजरिया काफी आशावान और उत्साह से भरा है।


इसकी खास वजह है। परिषद अपने सकारात्मक आकलन के जरिए अर्थव्यस्था को लेकर एक बार फिर फील गुड फैक्टर पैदा करना चाहती है। वह ऐसा एक खास समझदारी या रणनीति के तहत कर रही है। ईएसी के अध्यक्ष प्रोफेसर तेंडुलकर का मानना है कि मौजूदा वैश्विक संकट के बावजूद भारतीय अर्थव्यस्था के साथ कोई खास समस्या या गड़बड़ी नहीं है लेकिन मौजूदा माहौल के कारण एक तरह का विश्वास का संकट पैदा हो गया है। जाहिर है कि वे अपनी श्फील गुडश् रिपोर्ट के जरिए निवेशकों, कारोबारियोें और उपभोक्ताओं मेें अर्थव्यवस्था के प्रति भरोसा और उत्साह पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि इससे निवेश, मांग और उपभोग में तेजी आएगी और अर्थव्यवस्था फिर पहले की तरह दौड़ने लगेगी।


लेकिन इससे क्या सचमुच भारतीय अर्थव्यवस्था में श्फील गुडश् फैक्टर वापस लौट आएगा ? फिलहाल, इसके कोई संकेत नहीं हैं। अर्थव्यवस्था अनुमान से कहीं अधिक गहरे संकट में है। सारी आशावादिता के बावजूद अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति का अंदाजा खुद प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की ताजी रिपोर्ट से लगाया जा सकता है। परिषद ने अपनी पिछली रिपोर्ट मेें चालू वित्तीय वर्ष (08-09) में जीडीपी की वृद्धि दर 7।7 प्रतिशत रहने का अनुमान व्यक्त किया था लेकिन कुछ सप्ताहों के अंदर ही उसे अपने आकलन मेें बदलाव करते हुए ताजा रिपोर्ट में घटाकर 7।1 प्रतिशत करने के लिए मजबूत होना पड़ा है।


यही नहीं, परिषद अगले वित्तीय वर्ष (09-10) में अर्थव्यवस्था के बेहतर प्रदर्शन को लेकर भले ही आशान्वित हो लेकिन दुनिया भर की कई देशी/विदेशी और सरकारी/निजी संस्थाएं और वित्तीय संस्थानों मुताबिक अगला वित्तीय वर्ष और बदतर साबित होनेवाला है। विश्व बैंक और आईएमएफ के अलग-अलग आकलनों के अनुसार वर्ष 09-10 में जीडीपी की वृद्धिदर क्रमशः 5।8 प्रतिशत और 6.9 प्रतिशत रह सकती है। खबरों के मुताबिक आईएमएफ जल्दी ही अपना नया आकलन जारी करने की तैयारी कर रहा है जिसमें 6.9प्रतिशत जीडीपी वृध्दि दर के अनुमान को घटाकर 6 प्रतिशत या उससे नीचे करने के संकेत हैंै। दूसरी ओर, मार्गन स्टैनली, गोल्डमैन साक्स, सिटी बैंक और श्द इकाॅनोमिस्टश् के अलग-अलग आकलनों के मुताबिक अगले वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर क्रमशः 5.7,5.8,5.5 और 6.1 प्रतिशत के आसपास रहने के आसार हैं।


इन आकलनोें से साफ है कि चालू वित्तीय वर्ष की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की स्थिति कहीं ज्यादा खराब और संकट के गहराने के संकेत हैं। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि मौजूदा वैश्विक मंदी के लंबा खिंचने की आशंकाएं जोर पकड़ रही हैं। अमेरिका और यूरोप सहित दुनिया के तमाम विकसित देशों और चीन जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं से लगातार निराशाजनक खबरें आ रही हैं जो अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों के अनुमानों से कहीं बदतर हैं। ऐसी ताजा रिपोर्टो के मुताबिक ब्रिटिश अर्थव्यवस्था, अमेरिकी अर्थव्यवस्था की तुलना में ज्यादा गहरे संकट में फंसती दिख रही है। कुछ ऐसी ही दशा जर्मनी से लेकर दक्षिण कोरिया जैसे देशों की अर्थव्यवस्थाओं की भी दिख रही है। इस गहराते संकट का अंदाजा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि मौजूदा वैश्विक वित्तीय और आर्थिक संकट और मंदी की भविष्यवाणी करनेवाले अर्थशास्त्री और स्टर्न बिजनेेस स्कूल, न्यूयार्क में प्रोफेसर नोरिएल रूबिनी ने श्फोब्र्सश् पत्रिका में अपने स्तंभ में चेतावनी दी है कि अमेरिका और वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति 2009 में और बदतर होगी और उसमें 2010-11 में बहुत कमजोर सुधार की उम्मीद की जा सकती है। रूबिनी के मुताबिक अर्थव्यवस्थाओं के लिए 2009 बहुत पीड़ादायक रहनेवाला है और अगर दुनिया के विकसित और विकासशील देशों ने समझदारी के साथ साझा पहल नहीं की तो अर्थव्यवस्थाओं के श्स्टैग -डीलेशनश् का शिकार होने की भी आशंका है। उस स्थिति में अर्थव्यवस्था में सुधार की प्रक्रिया श्यूश् आकार के बजाय श्एलश् आकार में होगी जिसका अर्थ होगा- सुधार की धीमी, लंबी और पीड़ादायक प्रक्रिया।


संदेश बिल्कुल साफ है। बदतर होती वैश्विक अर्थव्यवस्था के प्रभाव से भारतीय अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रहेगी। इसलिए जुबानी जमाखर्च के फीलगुड से बात नहीं बननेवाली है। प्रधानमंत्री के तेंडुलकर से यह भी अपेक्षा है कि वे हवा में बैट भांजने के बजाय सतर्कता और साहस से अर्थव्यवस्था की बदतर होती स्थिति को संभालने और उसे संकट से बाहर निकालने का रास्ता सुझाएं। इसके लिए जरूरी है कि जबानी जमाखर्च के बजाय ठोस उपाय किए जाएं लेकिन अफसोस की बात यह है कि ईएसी को अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाती स्थिति से अधिक चिंता बढ़ते वित्तीय घाटे की है। यह सचमुच हैरान करनेवाली बात है कि एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया और खासकर नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के मक्का-अमेरिका में वित्तीय घाटे की नव उदारवादी चिंता को छोड़कर कींसवादी पम्प प्राइमिंग यानी अर्थव्यवस्था में सार्वजनिक निवेश में जबरदस्त बढ़ोत्तरी करके मंदी से निपटने पर जोर दिया जा रहा है, भारत में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद अभी भी बंदरिया की तरह मरे हुए विचार को छाती से चिपकाए हुए है। इसी सोच का नतीजा है कि यूपीए सरकार ने पिछले दो महीनों में काफी हिचक और संकोच के साथ आधे-अधूरे वित्तीय उत्प्रेरक पैकेजों की घोषणा की है। ये पैकेज ऊंट के मुंह में जीरे की तरह हैं। इनसे अर्थव्यवस्था को कोई फायदा होता नहीं दिख रहा है।


यूपीए सरकार और ईएसी के रवैये से ऐसा लगता है कि वे अर्थव्यवस्था को लेकर किसी चमत्कार की उम्मीद कर रहे हैंै। वे यह मानकर चल रह हैं कि मौजूदा संकट एक बिजनेस और आर्थिक चक्र (साइकिल) का नतीजा है और चक्र के पूरा होते ही अर्थव्यवस्था खुद-ब-खुद पटरी पर लौट आएगी। इसलिए अलग से बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं है। लेकिन दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह आश्वस्ति और चमत्कार की अपेक्षा अर्थव्यवस्था के लिए बहुत भारी साबित हो रही है।

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