मंगलवार, फ़रवरी 24, 2009

कारपोरेट पूंजीवाद की व्यवस्थागत बीमारी का नतीजा है सत्यम प्रकरण


आनंद प्रधान
सत्यम प्रकरण उजागर होने के पचास दिन पूरे होने वाले हैं। अभी तक इस मामले में होता तो बहुत कुछ दिख रहा है लेकिन अभी भी भ्रम बरकरार है। ऐसे हालात में एक बार फिर से आनंद प्रधान द्वारा इस मसले पर लिखा गया लेख प्रासंगिक हो गया है।



मंदी के दानव ने भारत में भी पहली बड़ी बलि ले ली है। देश की चैथे नम्बर की आईटी साॅफ्टवेयर कंपनी सत्यम कम्प्यूटर्स की तुलना भारत के एनराॅन के रूप में की जा रही है। एनराॅन के सीईओ केनेथ ले की तरह सत्यम के मालिक और चेयरमैन बी। रामलिंग राजू ने कंपनी के खातांे मंे लगभग 7 हजार करोड़ रूपये की हेराफेरी और धोखाधड़ी की बात स्वीकार कर ली है। जाहिर है कि भारत के अब तक के इस सबसे बड़े कारपोरेट घोटाले के भंडाफोड़ ने कारपोरेट जगत के साथ-साथ आर्थिक उदारीकरण के पैरोकारों को स्तब्ध कर दिया है।

यह ठीक है कि सत्यम कम्प्यूटर्स पिछले कुछ सप्ताहों से विवादों में था। कंपनी के निदेशक मंडल ने जिस तरह से रामलिंग राजू के बेटों की दो कंपनियों- मेटास इंफ्राॅस्ट्रक्चर और मेटास प्रोपर्टी को अधिग्रहित करने का फैसला किया, उसके बाद से ही कंपनी शेयरधारकों के गुस्से का निशाना बनी हुई थी। कंपनी के कारपोरेट गवर्नेंस को लेकर सवाल उठ रहे थे। लेकिन यह किसी को अंदाजा नहीं था कि आर्थिक उदारीकरण की सफलता के एक चमकते हुए प्रतीक सत्यम कम्प्यूटर्स की अंदरूनी स्थिति यह होगी कि अपनी आय को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने के लिए कंपनी अपने खातों मंे हजारों-करोड़ों रूपये की हेराफेरी कर रही थी।


एनराॅन ने भी एक जमाने में यही किया था। डूबने से पहले एनराॅन की ‘सृजनात्मक एकाउंटिंग’ और ‘वित्तीय इंजीनियरिंग’ के लिए खूब बलैयां ली जाती थी। लेकिन बाद में यह पता चला कि यह और कुछ नहीं, सिर्फ वित्तीय धोखाधड़ी और हेराफेरी थी। सत्यम कंप्यूटर्स में भी यह ‘वित्तीय इंजीनियरिंग’ और ‘सृजनात्मक एकाउंटिंग’ पिछले कई वर्षों से जारी थी। लेकिन जब शेयर बाजार आसमान छू रहा था और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ कारपोरेट क्षेत्र बूम के दौर से गुजर रहा था, किसी ने सत्यम कंप्यूटर्स के तौर-तरीकों को लेकर सवाल नहीं उठाया।


यहां तक कि उसके खाते की जांच-पड़ताल के लिए नियुक्त आॅडीटर और चार्टेड एकाउंटेंट भी आंखें मूंदे रहे। आश्चर्य की बात नहीं है कि सत्यम के मामले में भी आॅडीटर वही बहुराष्ट्रीय कंपनी- प्राइस वाटर हाउस है जिस पर इससे पहले भी ग्लोबल ट्रस्ट बैंक के घोटाले से आंख मूंदने और उसके खातों को क्लीनचिट देने का आरोप है। एक बार फिर से आॅडीटर और चार्टेड एकाउंटेंट के साथ-साथ नियामक संस्थाओं और सरकारी एजेंसियों की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं।


लेकिन इसके साथ ही साथ डैमेज कंट्रोल भी शुरू हो गया है। कहा जा रहा है कि सत्यम कंप्यूटर्स का घोटाला एक अपवाद है। तर्क दिया जा रहा है कि यह घोटाला मालिकों और प्रबंधकों के अत्यधिक लालच के कारण हुआ है। इसके लिए आॅडिटरों और नियामक एजेंसियों की लापरवाही और मिली भगत को जिम्मेदार बताया जा रहा है। साथ ही, यह भी दुहाई दी जा रही है कि इससे भारतीय कारपोरेट जगत की विश्वसनीयता और साख पर धक्का जरूर लगा है लेकिन उससे अन्य कंपनियों पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा।


सवाल यह है कि क्या सचमुच सत्यम कंप्यूटर्स का प्रकरण सिर्फ एक कंपनी और उसके मालिकों और प्रबंधकों की लालच और उनके भाई-भतीजावादी पूंजीवाद यानी क्रोनी कैपटलिज्म तक सीमित मामला है या यह उससे कहीं अधिक कारपोरेट जगत की व्यवस्थागत बीमारी की ओर संकेत करता है? निश्चय ही, सत्यम घोटाला सिर्फ एक कंपनी तक सीमित मामला नहीं है। यह न तो कारपोरेट धोखाधड़ी और हेराफेरी की यह पहली घटना है और न ही आखिरी घटना होने जा रही है।


असल में, सत्यम कंप्यूटर्स के मामले ने जिस तरह से कारपोरेट गवर्नेंस के तमाम दावों की कलई खोल दी है, उससे साफ है कि दावों और असलियत के बीच कितना बड़ा फासला अभी भी बना हुआ है। सत्यम के मामले में न सिर्फ आॅडीटर, चार्टेड अकाउंटंेट, नियामक एजेंसियां, कंपनी बोर्ड और निदेशक मंडल बेनकाब हुए हैं बल्कि इससे तमाम कंपनियों के कामकाज और उनके खातों को लेकर गहरे सवाल पैदा हो गए हैं। जो सत्यम के अंदर चल रहा था, वह अन्य कंपनियों में नहीं चल रहा होगा, इसकी क्या गारंटी है?


बहुत दूर क्यों जाएं, कुछ ही महीनों पहले अमेरिका में जब वाॅल स्ट्रीट का एक चमकता हुआ सितारा लीमन ब्रदर्स डूबा तो यह जताने की कोशिश की गई कि संकट गहरा नहीं है और यह सिर्फ लीमन ब्रदर्स तक सीमित मामला है। लेकिन कुछ ही सप्ताहों के अंदर यह साफ हो गया कि लीमन ब्रदर्स का डूबना सिर्फ एक कंपनी का डूबना नहीं था बल्कि यह पूंजीवाद के उस व्यवस्थागत संकट का सामने आना था जिस पर परदा डालने और ‘बेलआउट’ के जरिए संभालने की हर संभव कोशिश की गई।


इसलिए इस आशंका को झुठलाना बहुत मुश्किल है कि सत्यम शुरूआत भर है। आने वाले दिनों में अगर मंदी और गहराई और लंबी खिंची तो भारतीय कारपोरेट जगत की कई चमकती कंपनियों की चमक फीकी पड़ती दिख सकती है। सत्यम प्रकरण के बाद वे देशी-विदेशी निवेशक इन कंपनियों के कामकाज को बारीकी से देखने की कोशिश करेंगे। यही नहीं, ऐसी कई कंपनियां हैं जो सत्यम के रामालिंग राजू की तरह ‘‘यह जाने बिना शेर की सवारी कर रही हैं कि उसका शिकार बने बिना उससे उतरा कैसे जाए।’’


असल में, पिछले कुछ वर्षों में जब भारतीय अर्थव्यवस्था और खासकर शेयर बाजार सट्टेबाजी की कृपा से एक बूम के दौर से गुजर रहे थे, उस दौर में कई कंपनियों ने चादर से बाहर पैर फैलाकर विभिन्न प्रकार के संदिग्ध निवेश और खर्च किए हैं, उनके सीईओ-प्रबंधकों-मालिकों ने मनमाने तरीके से पैसे उड़ाए हैं और इसके लिए मनमानी शर्तों पर देश और विदेश से कर्ज उगाहा है। लेकिन अब जब अर्थव्यवस्था उतार पर है और सट्टेबाजी की कृपा से चढ़ा बाजार धूल-धूसरित हो चुका है, कंपनियों के लिए उसकी कीमत चुकाने का समय आ गया है।


यह सिर्फ संयोग है कि सत्यम ने सबसे पहले इसकी कीमत चुकाई है। देश को आनेवाले महीनों मंे और कई सत्यम और रामलिंग राजू देखने के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन इस सब के लिए क्या केवल सत्यम के प्रबंधक और उसके मालिक ही जिम्मेदार हैं? यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर सत्यम घोटाला एक व्यवस्थागत बीमारी का सूचक है तो इस व्यवस्था के कर्ता-धर्ताओं की जिम्मेदारी भी तय करने का समय आ गया है। आखिर सत्यम जैसी कंपनियां इस व्यवस्था की खामियों और इसके कर्ता-धर्ताओं के आशीर्वाद से ही फलती-फूलती हैं।


इसे हरगिज अनदेखा नहीं किया जा सकता है क्योंकि जल्दी ही रामलिंग राजू और उनके कुछ साथियों को कटघरे में खड़ा करके सत्यम के पच्चास हजार से अधिक कर्मचारियों और उसके लाखों निवेशकों के हितों की रक्षा के नाम पर सार्वजनिक धन से उसे बेल आउट करने की कोशिशें शुरू हो जाएंगी। इस तरह एक बार फिर असली अपराधी बच निकलेंगे। हर्षद मेहता से लेकर केतन पारिख तक यही कहानी रही है। क्या इस बार भी यह कहानी दोहराई जाएगी?

2 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

बहुत सुंदर आलेख.....अच्‍छी जानकारी मिली...धन्‍यवाद।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सही लिखा है, मगर कम लिखा है।

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