आनंद प्रधान
अपनी जिम्मेदारी से मुंह चुराने के लिए संविधान और परम्पराओं की आड़ लेने का इससे बड़ा उदाहरण शायद ही मिले। कामचलाऊ वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट भाषण में यह स्वीकार करते हुए भी कि मौजूदा असामान्य आर्थिक परिस्थितियों से निपटने के लिए असामान्य उपायों की जरूरत है, एक निहायत ही सामान्य और औसत दर्जे का अंतरिम बजट पेश करके साबित कर दिया है कि यूपीए सरकार न तो मौजूदा आर्थिक संकट की गंभीरता को समझ रही है और न ही उसके पास इस संकट से निपटने के लिए कोई स्पष्ट, साहसिक और लीक से अलग रणनीति है। हालांकि यूपीए सरकार से यह अपेक्षा थी कि वह मौजूदा आर्थिक संकट की गंभीरता को देखते हुए उससे निपटने की अपनी जिम्मेदारी को समझेगी और परम्परा को तोड़कर एक साहसिक बजट पेश करेगी। लेकिन इसके उलट यह बजट इस बात का एक और सबूत है कि यूपीए सरकार मौजूदा आर्थिक संकट की चुनौती से निपटने की जिम्मेदारी से कन्नी काट रही है।
इसके लिए वह तरह-तरह के बहाने बना रही है। सबसे अधिक वह संवैधानिक परम्पराओं और नैतिकता की दुहाई दे रही है। उसका तर्क है कि मौजूदा सरकार के पास न सिर्फ एक पूर्ण बजट पेश करने का कोई संवैधानिक और राजनीतिक जनादेश नहीं है बल्कि ऐसी कोई परम्परा भी नहीं रही है। यह तर्क बिल्कुल सही है लेकिन यूपीए सरकार इसे न सिर्फ एक बहाने की तरह इस्तेमाल कर रही है बल्कि उसके मुंह से इसे सुनना हास्यास्पद भी लगता है। यूपीए सरकार संवैधानिक परम्पराओं और नैतिकता को लेकर इतनी चिंतित और दुबली कब से होने लगी? क्या यह सौ चूहे खाकर बिल्ली के हज करने के लिए निकलने का मामला नहीं लगता है? सवाल यह है कि अगर यूपीए सरकार को संवैधानिक परम्पराओं और नैतिकता की इतनी ही परवाह है तो रेल मंत्री लालू प्रसाद ने एक लोकलुभावन चुनावी रेल बजट कैसे और क्यों पेश किया?
साफ है कि संवैधानिक परम्पराओं और मर्यादा की दुहाई सिर्फ और सिर्फ मौजूदा आर्थिक संकट से निपटने की जिम्मेदारी से बचने और इस संकट से मुकाबले के लिए मुकम्मल रणनीति न बना पाने की कमजोरी को छुपाने के लिए दी जा रही है। यूपीए सरकार इसे स्वीकार करे या न करे लेकिन उसके अंतरिम बजट से संदेश यही गया है। इसमें कोई राय नहीं है कि अगर यह समय सामान्य होता और मौजूदा वैश्विक मंदी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था भी गहरे संकट में फंसती हुई नहीं दिखाई देती तो प्रणब मुखर्जी से एक सामान्य और अंतरिम बजट की ही अपेक्षा रहती। उस स्थिति में उनका संवैधानिक परम्पराओं का पालन करना हर तरह से उपयुक्त और जरूरी होता।
लेकिन मौजूदा आर्थिक संकट के कारण परिस्थितियां बिल्कुल सामान्य नहीं हैं। अर्थव्यवस्था की हालत दिन पर दिन बदतर होती जा रही है। यूपीए सरकार चाहे तो इस खुशफहमी में जी सकती है कि चालू वित्तीय वर्ष में जीडीपी की वृद्धि दर में लगभग दो फीसदी की गिरावट के बावजूद 7.1 प्रतिशत की विकास दर के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था दुनिया की दूसरी सबसे तेज से बढ़ रही अर्थव्यवस्था है। प्रणब मुखर्जी ने बजट भाषण में इसे दोहरा कर जता दिया है कि यूपीए सरकार न सिर्फ सच्चाइ्र्र से आंख चुराने की कोशिश कर रही है बल्कि एक ऐसी हास्यास्पद खुशफहमी में जी रही है जिसकी अर्थव्यवस्था को भारी कीमत चुकानी पड़ रही है।
तथ्य यह है कि यूपीए सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी मूलाधारों (फंडामेंटल्स) के मजबूत होने और मौजूदा आर्थिक संकट के लिए बाहरी कारणों को जिम्मेदार ठहराकर इस सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश कर रही है कि भारतीय अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। इस लड़खड़ाहट के लिए बाहरी कारणों के साथ-साथ यूपीए सरकार की नव उदारवादी अर्थनीतियां भी जिम्मेदार हैं जिनके कारण अर्थव्यवस्था में ऐसी कई बुनियादी विसंगतियां पैदा हो गयी हैं जिनकी वजह से देर-सबेर अर्थव्यवस्था का पटरी से उतरना तय था। यह सिर्फ एक संयोग है कि अमेरिका से उठी वित्तीय संकट की सुनामी ने भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ ज्यादा ही तेज झटका दे दिया।
लेकिन अफसोस की बात यह है कि यूपीए सरकार अब भी भारतीय अर्थव्यवस्था के मूलाधारों के मजबूत होने और इस साल सितम्बर के बाद से अर्थव्यवस्था में सुधार और उसके फिर से गति पकड़ने की खुशफहमी में जी रही है। हकीकत यह है कि सरकारी अर्थशास्त्रियों और विशेशज्ञों को छोड़कर अधिकांश अर्थशास्त्री और देशी-विदेशी संस्थाएं यह चेतावनी दे रहे हैं कि अगले वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था की विकास दर में न सिर्फ और गिरावट दर्ज की जाएगी बल्कि चैतरफा आर्थिक संकट और गहरा और आर्थिक स्थिति और बदतर हो सकती है। इसके पर्याप्त संकेत और सबूत सबके सामने हैं। अक्तूबर से दिसम्बरश् 08 के बीच औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर दो बार नकारात्मक हो चुकी है। निर्यात में लगातार तेजी से गिरावट दर्ज की जा रही है। कृषि की विकास दर भी पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में लगभग आधी रह गयी है। शेयर बाजार बिल्कुल पस्त पड़ा है।
शास्त्रीय और पारिभाषिक तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यवस्थाओ की तरह मंदी की चपेट में भले न आई हो लेकिन हालात बिल्कुल मंदी की तरह ही हैं। निवेश और प्रोजेक्ट्स के क्रियान्वयन पर निगाह रखनेवाली संस्थाश् प्रोजेक्ट्स टुडेश् की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2008 में दो लाख नौ हजार करोड़ रूपए से ज्यादा के निवेश ठंडे बस्ते में चले गए हैं जिसमें लगभग 75 प्रतिशत प्रोजेक्ट्स सिर्फ आखिर तीन महीनों में बंद हुए हैं। इसका सीधा असर रोजगार के नए अवसरों पर पड़ा है। रोजगार के अवसर किस तेजी से सूख रहे हैं, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि देश के जाने-माने प्रबंधन, तकनीकी और अन्य प्रोफेशनल संस्थानों के उन छात्रों को भी इस बार नौकरी के लिए जूझना पड़ रहा है जिनके पास पिछले साल तक चार-चार, पांच -पांच नौकरियां रहती थीं।
लेकिन रोजगार के नए अवसरों की तो बात दूर है, मैन्यूफैक्चरिंग से रीयल इस्टेट तक कई क्षेत्रों में लाखों श्रमिकों और कर्मचारियों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। खुद श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल अक्टूबर से लेकर दिसम्बर के बीच तीन महीनों में 5 लाख से अधिक श्रमिकों को छंटनी का शिकार होना पड़ा है। वाणिज्य मंत्रालय के सचिव जी के पिल्लई के मुताबिक मौजूदा स्थिति जारी रही तो मार्च तक 15 लाख से अधिक श्रमिकों का रोजगार छिनने की आशंका है। ध्यान रहे कि ये आंकडे़ संगठित क्षेत्र की कंपनियों/संस्थानों के हैं जबकि 92 फीसदी श्रमशक्ति असंगठित क्षेत्र में काम करती है। वहां मंदी के कहर का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है।
जाहिर है कि अर्थव्यवस्था के साथ-साथ लाखों लोगों की रोजी-रोटी भी संकट में है। ऐसे में, कोई भी संवैधानिक परम्परा किसी भी सरकार को ऐसी आपात स्थिति से निपटने से रोकती नहीं है। इसके उलट यह वक्त इस परम्परा को तोड़ने और अर्थव्यवस्था के साथ-साथ आम आदमी को तुरंत राहत पहुंचाने के उपाय करने का था। अंतरिम बजट इस जिम्मेदारी को पूरा करने का सबसे बड़ा और उचित मौका था। यूपीए सरकार अगर अपवादस्वरूप इस संवैधानिक परम्परा को तोड़कर एक साहसिक और मौजूदा चुनौती से निपटने- वाला बजट पेश करती तो शायद ही कोई उंगली उठाता। लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि यूपीए सरकार ने न सिर्फ यह मौका गंवा दिया बल्कि वह मौजूदा आर्थिक संकट और उससे पैदा हुई चुनौती का मुकाबला करने के बजाय मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई है।
इस लिहाज से देखा जाए तो अंतरिम बजट सोच और दृष्टि के स्तर पर न सिर्फ उसी बौनेपन, पिटी-पिटाई लीक पर चलनेवाला और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी का शिकार है जिसने वैश्विक के साथ-साथ भारतीय अर्थव्यवस्था को भी इस दशा में पहुंचा दिया है। इस सोच का ही नतीजा है कि इस बजट में भी वित्त मंत्री का ज्यादा ध्यान वित्तीय घाटे को काबू में करने पर रहा। यह और बात है कि चुनावी वर्ष होने की मजबूरी और ताकतवर उद्योग समूहों की लाॅबीइंग के कारण न चाहते हुए भी चालू वित्तीय वर्श (08-09) में वित्तीय और राजस्व घाटे का रिकार्ड टूट गया है। इसके बावजूद प्रणब मुखर्जी ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट प्रावधानों में कतरब्यौंत करके घाटे को कम करने की हरसंभव कोशिश की है।
लेकिन यूपीए सरकार का यह रवैया न सिर्फ हैरान करनेवाला बल्कि चिंतित करनेवाला भी है। ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में मंदी से निपटने के लिए राज्य अर्थव्यवस्था में सक्रिय और नेतृत्वकारी भूमिका में उतर रहा है, मनमोहन सिंह सरकार वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। इस समय पूरी दुनिया में अर्थशास्त्रियों और विशेशज्ञों के एक बड़े हिस्से के बीच यह आम राय बन रही है कि मंदी को महामंदी में बदलने से रोकने के लिए राज्य को अर्थव्यवस्था में भारी सार्वजनिक निवेश करना चाहिए। लेकिन लगता है कि यूपीए सरकार नव उदावादी अर्थनीति के प्रति उसके सिद्धांतकारों से भी ज्यादा समर्पित और स्वामीभक्त है।
यही कारण है कि मनमोहन सिंह सरकार पिछले पांच वर्षों में अपनी जिन कामयाबियों के लिए सबसे ज्यादा ढिंढ़ोरा पीटती रही है, उन योजनाओं के बजट प्रावधानों में सबसे ज्यादा कटौती कर दी गयी है। उदाहरण के लिए रोजगार योजनाओं के मद में चालू वित्तीय वर्ष (08-09) में 36750 करोड़ रूपए खर्च किए गए लेकिन अगले वित्तीय वर्ष के लिए उसमें 6650 करोड़ रूपए की कटौती करके सिर्फ 30100 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। यह कटौती इसलिए भी समझ से बाहर है कि सरकार ने अभी इसे पिछले वर्ष से ही देश के सभी जिलों में लागू किया है और मंदी से प्रभावित वर्ष में रोजगार की मांग में कमी नहीं बल्कि बढ़ोत्तरी ही होगी।
इसी तरह अंतरिम बजट में ग्रामीण विकास के बजट में भी भारी कटौती की गयी है। चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान में ग्रामीण विकास के लिए 64854 करोड़ खर्च होने का अनुमान है लेकिन अगले वर्ष के बजट में इस मद में 9684 करोड़ रूपए की कटौती के साथ 55170 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। टेक्सटाइल क्षेत्र पर मंदी की कितनी गहरी मार पड़ी है, यह किसी से छुपी नहीं है। लेकिन राहत देने की बात तो दूर टेक्सटाइल्स मंत्रालय के बजट में चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान की तुलना में 1750 करोड़ रूपए की कटौती करते हुए 3389 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। बजट में किसानों को राहत देने की बहुत दुहाइ्र्र दी गयी है लेकिन फसल बीमा योजना के लिए दिए जानेवाले प्रीमीयम के बजट में चालू वित्तीय वर्ष के 794 करोड़ रूपए के बजाय अगले साल के लिए 100 करोड़ रूपए कम यानी 694 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है।
कुछ यही हाल उन चुनिंदा योजनाओं का भी है जिनका गुणगान आजकल रोज टीवी पर प्रचार विज्ञापनों में सुनाई देता है। सर्व शिक्षा अभियान पर चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान में 4659.67 करोड़ रूपए खर्च होने की उम्मीद है लेकिन अंतरिम बजट में इसमें लगभग 420 करोड़ रूपए की कटौती करके 4239.25 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। यही नहीं, पिछले साल प्रधानमंत्री ने खुद बड़े जोरशोर से घोषणा की थी कि सरकार 6000 से अधिक माध्यमिक स्तर के माॅडल स्कूल खोलेगी। इसके लिए बजट में 582.80 करोड़ की व्यवस्था भी की गयी थी लेकिन संशोधित अनुमान के मुताबिक इस मद में सिर्फ 130 करोड़ रूपए खर्च हुए। अंतरिम बजट में इसके लिए सिर्फ 310 करोड़ का प्रावधान किया गया है।
इस कटौती की मार से योजना व्यय भी अछूता नहीं रहा। कहां यूपीए सरकार से सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी की उम्मीद थी, उल्टे कामचलाऊ वित्त मंत्री ने योजना व्यय में इतनी मामूली वृद्धि की है कि अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो यह वृद्धि कम और कटौती ज्यादा मालूम पड़ती है। चालू वित्तीय वर्ष में योजना व्यय के संशोधित बजट अनुमान 2,82,957 करोड़ रूपए की तुलना में अंतरिम बजट में 0.77 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 2,85,149 करोड़ रूपए का प्रावधान किया गया है। हालांकि खुद प्रणव मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि योजना व्यय में जीडीपी के आधे से लेकर एक फीसदी यानी लगभग 50 हजार करोड़ रूपए की बढ़ोत्तरी की आवश्यकता है। लेकिन उन्होंने यह जिम्मेदारी अगली सरकार के मत्थे छोड़ दी है। इस बीच, अर्थव्यवस्था बैठ जाए तो अगली सरकार की बला से। इससे यूपीए सरकार की सेहत पर क्या फर्क पड़ता है?
1 टिप्पणी:
दरअसल, अंतरिम बजट मंदी की श्राप से ग्रस्त था। अब प्रणवदा भी क्या करें!
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