आनंद प्रधान
मौके कैसे गंवाए जाते हैं, यह यूपीए सरकार को देखकर जाना जा सकता है। इस सरकार का अंतरिम बजट इसका एक और सबूत है। प्रधानमंत्री की अनुपस्थिति में वित्त मंत्री की जिम्मेदारी निभा रहे प्रणब मुखर्जी ने एक ऐसा बजट पेश किया है जो बजट कम और यूपीए का चुनाव घोषणापत्र अधिक लगता है। हालांकि खुद वित्तमंत्री ने बजट भाषण में यह स्वीकार किया है कि मौजूदा असामान्य आर्थिक परिस्थितियांे से निपटने के लिए असामान्य उपायों की जरूरत है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि बजट में कोई असामान्य उपाय तो दूर, यह बजट इस हद तक सामान्य है कि उसमें कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। यूपीए सरकार यह कह सकती है कि उसने संसदीय परम्पराओं का पालन करते हुए बजट में कोई बड़ी नीतिगत घोषणा नहीं की है या कोई लोक-लुभावन कदम नहीं उठाया है। लेकिन यह अधूरा सच है। वित्त मंत्री संसदीय परम्पराओं की आड़ में अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं। असल में, वैश्विक वित्तीय संकट और उसके नतीजे में दुनियाभर को गिरफ्त में लेती आर्थिक मंदी के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था जिस तरह से डगमगा रही है, उसे देखते हुए कोई भी सरकार यह कहकर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है कि चुनावों के बाद नई सरकार मंदी से निपटने के उपाय करेगी।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अगर यह सामान्य समय होता और अर्थव्यवस्था ठीक-ठाक चल रही होती तो यूपीए सरकार का एक सामान्य बजट पेश करने का फैसला बिल्कुल सही होता। लेकिन मौजूदा परिस्थिति में उससे यह अपेक्षा थी कि वह इस लीक को तोड़कर साहस के साथ आर्थिक और औद्योगिक मंदी से निपटने के उपाय करेगी। इसके लिए राजनीतिक तौर पर एक आम सहमति भी थी। खुद पूर्व वित्तमंत्री पी.चिदम्बरम ने हाल में ही अपने एक बयान में यह स्पष्ट किया था कि बजट में सरकार को बड़े फैसले करने से रोकने के लिए कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है। बजट भले अंतरिम हो लेकिन सरकार अंतरिम नहीं है। अगर उसमें इच्छाशक्ति होती तो वह एक साहसिक बजट पेश कर सकती थी। लेकिन यूपीए सरकार यह मौका चूक गई या कहिए कि उसने जानबूझकर यह मौका गंवा दिया।
इस बजट को देखकर ऐसा नहीं लगता है कि यूपीए सरकार को मौजूदा आर्थिक परिस्थिति की गंभीरता का अंदाजा है। इसके उलट इस बजट से ऐसा संदेश जा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ सब ठीक-ठाक चल रहा है। ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था को लेकर यूपीए सरकार एक खास तरह की खुशफहमी और निश्ंिचतता में जी रही है। इसका प्रमाण यह है कि वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने भी उस वक्तव्य को अपने बजट भाषण में दोहरा दिया कि वैश्विक मंदी के इस दौर में चालू वित्तीय वर्ष (2008-09) में अर्थव्यवस्था की विकास दर में लगभग दो फीसदी की गिरावट के बावजूद 7.1 प्रतिशत की विकास दर के साथ भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में दूसरे नंबर पर है।
दरअसल, यह बजट यूपीए सरकार के आर्थिक मैनेजरों की सोच के बौनेपन और नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के सीमित दायरे को तोड़ने की हिचक का नतीजा है। अन्यथा इस बजट से यह अपेक्षा थी कि वह लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए साहसिक पहल करेगा। यहां साहसिक पहल से आशय यह नहीं है कि वित्तमंत्री टैक्स दरों मंे कोई कटौती करते या नई छूटों/रियायतों का ऐलान करते। इसके बजाय प्रणब मुखर्जी से यह उम्मीद थी कि वे अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए वित्तीय घाटे की परवाह न करते हुए कृषि, सामाजिक क्षेत्र, संरचनागत ढांचे और उद्योग क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश की पेशकश करेंगे।
लेकिन भारी सार्वजनिक निवेश तो दूर वित्त मंत्री ने अगले वित्तीय वर्ष के बजट में योजना व्यय को चालू वित्तीय वर्ष के बराबर रखकर एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि यूपीए सरकार वित्तीय कठमुल्लावाद से बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं है। इसका सबूत यह है कि अंतरिम बजट में वर्ष 2009-10 के लिए 2,85,149 करोड़ रूपये के योजना परिव्यय का प्रावधान किया गया है जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 2,43,386 करोड़ रूपये से मात्र 0.77 प्रतिशत अधिक है। इस कटौती का सीधा असर योजना व्यय के तहत पूंजी व्यय पर पड़ा है जिसमें सरकार ने लगभग 11 फीसदी की कटौती कर दी है।
हालांकि इस कटौती का असर चैतरफा है लेकिन हैरानी की बात यह है कि इसकी मार से देश का सबसे प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान-एम्स भी नहीं बच पाया है। अभी कुछ दिन पहले ही खुद प्रधानमंत्री ने अपनी बाइपास सर्जरी के बाद एम्स की खासी प्रशंसा की थी। लेकिन उनकी प्रशंसा का नतीजा यह हुआ कि एम्स के बजट में लगभग 41 करोड़ रूपये की कटौती कर दी गयी है। एम्स को चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 573.42 करोड़ रूपये की तुलना में अगले वित्तीय वर्ष में सिर्फ 532.42 करोड़ रूपये देने का प्रावधान किया गया है।
लेकिन यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के बजट में भी मामूली वृद्धि की गई है। इसेे चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट अनुमान 17307 करोड़ रूपये की तुलना मंे अगले वित्तीय वर्ष में 173 करोड़ रूपये की बढ़ोत्तरी के साथ 17480 करोड़ रूपये देने का ऐलान किया गया है। ऐसे दर्जनों और उदाहरण दिए जा सकते हैं जिनसे पता चलता है कि सामाजिक क्षेत्र की दुहाई देने के बावजूद यूपीए सरकार जब खर्च करने का मौका आता है तो पीछे हटती दिखाई पड़ती है।
असल में, यह प्राथमिकताओं का प्रश्न है। अंतरिम बजट में योजना व्यय मंे बढ़ोत्तरी करने से कन्नी काट गए वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने रक्षा और गृह मंत्रालय के बजट में भारी बढ़ोत्तरी करने से परहेज नहीं किया है। उन्होंने रक्षा बजट को चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान 1,14,600 करोड़ रूपये से लगभग 24 फीसदी की वृद्धि के साथ अगले वित्तीय वर्ष में 1,41,703 करोड़ रूपये तक पहुंचा दिया है। इसी तरह केंद्रीय पुलिस के लिए अंतरिम बजट में 25,673 करोड़ रूपये का प्रावधान किया गया है जो चालू वित्तीय वर्ष के संशोधित अनुमान 20,711 करोड़ रूपये से लगभग 24 फीसदी अधिक है। जाहिर है कि रक्षा और पुलिस के बजट में इस भारी बढ़ोत्तरी के जरिए वित्त मंत्री ने चुनावों से पहले एनडीए खासकर भाजपा के हमलों की धार भोथरी करने की कोशिश की है।
लेकिन चुनावों के मद्देनजर भाजपा की काट खोजते हुए प्रणब मुखर्जी अगर अर्थव्यवस्था की दिन पर दिन बदतर होती स्थिति से निपटने के लिए एक ईमानदार और साहसिक पहल करते तो यह बजट सचमुच में ऐतिहासिक होता। लेकिन अब इस बजट को एक गंवाए हुए मौके के रूप में ही याद किया जाएगा। यह यूपीए सरकार के लिए राजनीतिक रूप से बहुत भारी पड़ सकता है। लगता है कि 25 वर्षों बाद दुबारा बजट पेश कर रहे प्रणब मुखर्जी यह भूल गए कि पिछले दो दशकों में चार बार अंतरिम बजट पेश करने वाली सरकारों में से तीन को चुनावों में पराजय का मुंह देखना पड़ा था।
सोमवार, फ़रवरी 23, 2009
गंवाए हुए मौके का उदाहरण है अंतरिम बजट
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 टिप्पणी:
अच्छा िवश्लेषण िकया गया है।
एक टिप्पणी भेजें