लेकिन भारतीय लोकतंत्र बहरा क्यों बना हुआ है?
इस तथ्य के बावजूद कि मणिपुर में यह केवल इरोम का व्यक्तिगत संघर्ष नहीं है बल्कि उनके संघर्ष में मणिपुर की अधिकांश महिलाओं और पुरुषों की आवाज़ शामिल हैं. इरोम इस अनूठे संघर्ष की प्रतीक भर हैं.
आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि वर्ष २००४ में जब असम राइफल्स के जवानों ने मणिपुर युवा थांगजाम मनोरमा की बलात्कार के बाद निर्मम तरीके से हत्या कर दी थी. उस शर्मनाक घटना ने पूरे मणिपुर की आत्मा को झकझोर दिया था. लोगों खासकर महिलाओं का गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा था.
उस गुस्से, पीड़ा और बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दर्जनों महिलाओं ने असम राइफल्स के इम्फाल स्थित कंगला फोर्ट मुख्यालय पर बिलकुल नंगे होकर यह कहते हुए प्रदर्शन किया था कि “असम राइफल्स हमारा बलात्कार करो.” यह एक ऐतिहासिक प्रदर्शन था जिसकी तस्वीरों ने अगले दिन पूरे देश को हिला कर रख दिया था.
मणिपुर में निर्दोषों का बहुत खून बह चुका है. इन खून के दागों से रंगा भारतीय लोकतंत्र का चेहरा बहुत बदसूरत और भयावह दिखता है. इसके बावजूद भारतीय राज्य अपनी भूलों को सुधारने और मणिपुर में शांति बहाली को एक मौका देने को तैयार नहीं है तो मानना पड़ेगा कि इस लोकतंत्र में न मानवीय आत्मा है, न आत्मविश्वास और न ही साहस.
मणिपुर की राजधानी इम्फाल में इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल और पुलिस
हिरासत के आज बारह साल पूरे हो गए. चालीस साल की इरोम पिछले १२ साल से पुलिस
हिरासत में भूख हड़ताल पर हैं और उन्हें पुलिस हिरासत में ही जबरन नाक से खाना दिया
जाता है. वे आज भी आमरण अनशन पर हैं.
वे अपनी इस मांग से पीछे हटने के लिए तैयार
नहीं हैं कि जनविरोधी काले कानून- सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून’ १९५८ (आर्म्ड
फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट-अफ्स्पा) को मणिपुर से तुरंत हटाया जाए. वे आज देश में
अनथक और समझौता-विहीन संघर्ष, बलिदान और प्रतिबद्धता का दूसरा नाम बन गईं हैं.
लेकिन शर्मनाक अफसोस यह कि दुनिया के ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ के कान पर
जूँ तक नहीं रेंगी है. बारह साल लंबे इस शांतिपूर्ण लेकिन अत्यंत पीडाजनक आंदोलन
के बावजूद इस ‘महान लोकतंत्र’ की कुम्भकर्णी निद्रा टूटने का काम नहीं ले रही है.
इस मामले में इरोम का संघर्ष भारतीय लोकतंत्र के लिए परीक्षा बन गया है और यह कहना
कतई गलत नहीं होगा कि वह मणिपुर से लेकर कश्मीर तक इस परीक्षा में पिछले कई सालों
से लगातार फेल हो रहा है. इस तथ्य के बावजूद कि मणिपुर में यह केवल इरोम का व्यक्तिगत संघर्ष नहीं है बल्कि उनके संघर्ष में मणिपुर की अधिकांश महिलाओं और पुरुषों की आवाज़ शामिल हैं. इरोम इस अनूठे संघर्ष की प्रतीक भर हैं.
आखिर हम कैसे भूल सकते हैं कि वर्ष २००४ में जब असम राइफल्स के जवानों ने मणिपुर युवा थांगजाम मनोरमा की बलात्कार के बाद निर्मम तरीके से हत्या कर दी थी. उस शर्मनाक घटना ने पूरे मणिपुर की आत्मा को झकझोर दिया था. लोगों खासकर महिलाओं का गुस्सा सड़कों पर फूट पड़ा था.
उस गुस्से, पीड़ा और बेचैनी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दर्जनों महिलाओं ने असम राइफल्स के इम्फाल स्थित कंगला फोर्ट मुख्यालय पर बिलकुल नंगे होकर यह कहते हुए प्रदर्शन किया था कि “असम राइफल्स हमारा बलात्कार करो.” यह एक ऐतिहासिक प्रदर्शन था जिसकी तस्वीरों ने अगले दिन पूरे देश को हिला कर रख दिया था.
इरोम भी ऐसे ही हालत में वर्ष २००० में आमरण अनशन पर बैठीं. उस साल
असम राइफल्स के जवानों ने मणिपुर घाटी के मलोम कसबे में बस स्टैंड पर इंतज़ार कर
रहे दस निर्दोष लोगों को भून डाला था जिसमें एक ६२ साल की महिला के अलावा
राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार जीतनेवाला १८ वर्षीय युवा सिनम चंद्रमणि भी शामिल
था.
मलोम नरसंहार जैसे मणिपुर की घायल आत्मा पर मरणान्तक प्रहार था जिसने पूरे
मणिपुर के साथ-साथ २८ वर्षीया इरोम शर्मिला चानू को भी सड़कों पर उतरने के लिए मजबूर
कर दिया. उसके बाद की कहानी एक इरोम के जीवट भरे, अडिग और धैर्यपूर्ण संघर्ष का ऐसा
जीवित इतिहास है जो हम अपनी आँखों के सामने बनता हुआ देख रहे हैं.
इरोम की लड़ाई मणिपुर में शांति बहाली की लड़ाई है. यह शांति बिना
अफ्स्पा को हटाए, मानवाधिकारों का हनन रोके, लोगों के बुनियादी संवैधानिक अधिकारों
को बहाल किये और राजनीतिक प्रक्रिया को शुरू किये संभव नहीं है. मणिपुर में निर्दोषों का बहुत खून बह चुका है. इन खून के दागों से रंगा भारतीय लोकतंत्र का चेहरा बहुत बदसूरत और भयावह दिखता है. इसके बावजूद भारतीय राज्य अपनी भूलों को सुधारने और मणिपुर में शांति बहाली को एक मौका देने को तैयार नहीं है तो मानना पड़ेगा कि इस लोकतंत्र में न मानवीय आत्मा है, न आत्मविश्वास और न ही साहस.
लेकिन इसके उलट इरोम की १२ साल लंबी भूख हड़ताल में लोकतांत्रिक
संघर्षों के प्रति दृढ आस्था, उत्कट आत्मविश्वास, बेमिसाल साहस और एक बेहद मानवीय
आत्मा की पीड़ा को देखा-समझा जा सकता है. सच पूछिए तो आज इरोम पूरे देश में लोगों
के बुनियादी अधिकारों और हक-हुकूक की लड़ाई के लिए प्रेरणा बन गई हैं.
यही कारण है
कि इरोम का संघर्ष अब सिर्फ मणिपुर का संघर्ष नहीं रह गया है और उनकी आवाज़ केवल
मणिपुर की आवाज़ नहीं है. इस संघर्ष में देश के कोने-कोने में लड़ रहे लाखों गरीब,
मेहनतकश, किसान, आदिवासी, दलित, छात्र-युवा और आमजन खुद को देखते और महसूस करते
हैं.
पता नहीं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को रात में नींद कैसे आती होगी,
जब देश की एक बेटी पिछले १२ साल से भूखी है? प्रधानमंत्री जी, क्या लोकतंत्र में
लोगों की राय का कोई मतलब नहीं है? क्या भारतीय लोकतंत्र और राष्ट्र राज्य इतना भुरभुरा
और कमजोर है कि मणिपुर में अफ्स्पा हटाते ही वह ढह जाएगा?
इस मौके पर मुझे पाश याद रहे हैं :
अपनी
असुरक्षा से
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में
बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का
नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग
चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
3 टिप्पणियां:
जनता अगर हथियार उठाये तो नक्सली या माओवादी का टैग लगा दिया जाता है और अगर अनशन या भूख हड़ताल करे तो प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी बुरा लगता है. अब जनता क्या करे...
सच कहा आपने आनंद जी । इरोम पिछले दशकों से जिस तरह चुपचाप अपनी लडाई लड रही हैं वो देश में अपनी तरह का अकेला और अतुलनीय है । अफ़सोस कि सरकार , प्रशासन , मीडिया और समाज तक उनके प्रति उपेक्षित है । एक अकेले की लडाई का इससे बडा उदाहरण और कोई नहीं हो सकता ।
कुछ बिखरा ,बेसाख्ता , बेलौस , बेखौफ़ ,बिंदास सा
अपनी बात मनवाने के लिए जनता हथियार उठाये तो नक्सली/ माओवादी का टैग लगा दिया जाता है और अगर अनशन या हड़ताल का रास्ता अपनाये तो प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति तक इसे हठधर्मिता कहने लगते हैँ। अब ये "मैंगोँ पीपुल" कौन सा रास्ता चुने.?
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