सोमवार, नवंबर 12, 2012

किसकी दीपावली?

दीपावली बाजार का, बाजार के लिए और बाजार के द्वारा त्यौहार बनती जा रही है

उदारीकरण और भूमंडलीकरण के इस दौर में बाजार की पकड़ से बच पाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन सा हो गया है. पर्व-त्यौहार भी इसके अपवाद नहीं हैं. हालाँकि किसी भी समाज में पर्व-त्यौहार उसकी संस्कृति, उत्सवधर्मिता और सामाजिकता की पहचान होते हैं, वे लोगों की सामूहिकता, आपसी मेलजोल और खुशी बांटने के मौके होते हैं.
लेकिन ठीक इन्हीं कारणों से वे बाजार को भी लुभाते हैं. बाजार को इसमें खुशियों की मार्केटिंग और खरीदने-बेचने का मौका दिखाई देता है. खासकर एक ऐसे दौर में जब वास्तविक खुशी दुर्लभ होती जा रही है, बाजार उपभोक्ता वस्तुओं को उत्सव और खुशियों का पर्याय बनाके बेचने के मौके की तरह इस्तेमाल करता है.
इसके लिए बाजार पारंपरिक त्यौहारों के नए अर्थ गढ़ता है, उनकी नए सिरे से पैकेजिंग करता है और उन्हें बाजार और वस्तुओं से जोड़ देता है. दीपावली उन त्यौहारों में है जिसे बाजार की सबसे पहले नजर लगी. विडम्बना देखिये कि एक ऐसा त्यौहार जो अंधकार पर प्रकाश की जीत का उत्सव है, वह आज जैसे सामुदायिक सामूहिकता, साझेदारी और संतोष पर व्यक्तिगत उपभोग, लालच और तड़क-भड़क की जीत का उत्सव बन गया है.

दीपावली आते ही बाजार जिस तरह से अति सक्रिय हो जाता है और त्यौहार को महंगे उपभोक्ता सामानों की खरीद और महंगे उपहारों के लेन-देन तक में सीमित कर देता है, उसमें त्यौहार की वास्तविक भावनाएं कहीं पीछे छूट जाती हैं और उसकी जगह गैर जरूरी उपभोग, फिजूलखर्ची और दिखावा हावी हो जाता है.

यह ठीक है कि दीपावली का एक पहलू लक्ष्मी की पूजा से जुड़ा रहा है. लेकिन इसमें वह लक्ष्मी नहीं थीं जो आज के बाजार की असीमित उपभोग की आराध्य देवी हैं बल्कि यह लक्ष्मी दरिद्रता से मुक्ति और घर में इतने धन-धान्य की इच्छा से जुडी थीं जिसमें ‘साईँ इतना दीजिए जिसमें कुटुंब समय, खुद भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाए.’
मुझे याद है, छुटपन में हम पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक अति पिछड़े इलाके के एक गाँव में दीपावली की रात के बाद भोर में घर के हर कमरे में सूप पीटते हर गाते जाते थे-“अइसर-पईसर दरिदर निकसे, लछमी घर वास हो.” मतलब यह कि लक्ष्मी की प्रार्थना वहीं तक थी, जहाँ तक घर से दरिद्रता को निकालने की आस थी.
लेकिन आज दीपावली का मतलब सिर्फ और सिर्फ लक्ष्मी और बाजार की उपासना तक सीमित रह गया है. सच पूछिए तो बाजार ने दीपावली का पूरी तरह से टेक-ओवर कर लिया है और इसे कारोबार का उत्सव बना दिया है. यह बाजार की, बाजार के लिए और बाजार के द्वारा त्यौहार बनटी जा रही है.

आज दीपावली के बाजार पर हजारों करोड़ रूपये का कारोबार दांव पर लगा रहता है. बड़ी देशी-विदेशी कम्पनियाँ खासकर उपभोक्ता सामान/आटोमोबाइल आदि बनानेवाली और रीयल इस्टेट कम्पनियाँ छह महीने पहले से तैयारी करने लगती हैं.

इसकी वजह यह है कि दशहरे से दीपावली के बीच के महीने भर में जितनी खरीददारी होती है, वह साल के कई महीनों की कुल खरीददारी से अधिक होती है. हैरानी की बात नहीं है कि इस दौरान अखबारों/टी.वी चैनलों पर कार से लेकर टी.वी तक भांति-भांति के विज्ञापनों और पुल-आउट की भरमार लग जाती है.

यही नहीं, मीडिया और मार्केटिंग के जरिये कम्पनियाँ ऐसा माहौल बनाती हैं जिसमें दीपावली के मौके पर उपहार लेना-देना एक अनिवार्य शगुन सा बना दिया जाता है. इस लेन-देन को संबंधों की निकटता के पर्याय की तरह देखा जाने लगा है.
आपने दीपावली पर अपने घर के अंदर और घर से बाहर अपने सगे संबंधियों-करीबियों को कितना महंगा उपहार दिया, इससे संबंधों की व्याख्या की जाने लगती है. एक तरह से दीपावली के मौके पर दिए जानेवाले उपहारों की कीमत आपसी संबंधों और उनकी निकटता के पैमाने बना दिए गए हैं. इस तरह संबंधों में भावनाओं की जगह वस्तुओं ने ले ली है. त्यौहार की सात्विक खुशी से ज्यादा महत्वपूर्ण उपहार की खुशी हो गई है.
लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती. दीपावली पर उपहार देने के इस बाजारी कर्मकांड को कारोबारी समुदाय ताकतवर-प्रभावशाली खासकर सत्ता में बैठे नेताओं-अफसरों को खुश करने और बदले में उनकी कृपादृष्टि हासिल करने के मौके की तरह भी इस्तेमाल करता है. कई मामलों में यह उपहार की आड़ में घूस देने या पी.आर करने का भी मौका है.

आश्चर्य नहीं कि दीपावली के मौके पर दिए जानेवाले कारपोरेट गिफ्ट का बाजार भी बहुत तेजी से बढ़ा है. उद्योगपतियों के संगठन एसोचैम के मुताबिक, वर्ष २०१० में देश के कारपोरेट समूहों ने लगभग ३२०० करोड़ रूपये के उपहार दिए. इस साल मंदी के कारण इसके घटकर २००० करोड़ रूपये रहने की उम्मीद है. इस मायने में दीपावली वास्तव में सबसे लोकप्रिय कारपोरेट त्यौहार बन चुकी है.

लेकिन दूसरी ओर, आसमान छूती महंगाई, घटती आय, दिन पर दिन बढ़ती बेरोजगारी और सामाजिक असुरक्षा से आमलोगों में दीपावली मनाने को लेकर वह उत्साह नहीं रह गया है जो उसकी सामूहिकता की पहचान रही है. आज बाजार की ओर से पेश की जा रही आदर्श दीपावली गरीबों की तो छोडिये, बहुतेरे मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए उनका दीवाला निकालने के लिए काफी है.
अलबत्ता, तीन-तेरह और तमाम तिकडमों से लेकर भ्रष्ट तौर-तरीकों से अथाह पैसा कमानेवाले नव दौलतिया वर्गों के लिए दीपावली अपनी धन-सम्पदा दिखाने का एक मौका बन गई है. अगर आप अपने आसपास गौर से देखें तो पायेंगे कि महंगे उपहारों से लेकर धूम-धड़ाके से भरी दीपावली मनानेवालों में ज्यादातर यही नव दौलतिया वर्ग है क्योंकि लक्ष्मी सबसे ज्यादा उसी पर मेहरबान हैं.
सच पूछिए तो लक्ष्मी आज उनकी कैद में हैं. यह विडम्बना है कि देश में एक ओर दरिद्रता बढ़ रही है, उस दरिद्रता के साथ अशिक्षा-बीमारी-भूखमरी और जल-जंगल-जमीन-खनिज की लूट का अँधेरा बढ़ रहा है और दूसरी ओर, एंटीला जैसे धन-दौलत के नए महल भी जगमगा रहे हैं.
अफसोस यह कि आज के भारत में दीपावली अँधेरे पर प्रकाश की जीत का नहीं बल्कि दरिद्रता के अँधेरे के विस्तार और बढ़ती गहनता के बीच शाइनिंग इंडिया की जीत का त्यौहार बनता जा रहा है.

आप खुद सोचिये कि इस दीपावली में कितने भारतीयों की खुशी शामिल है?

और इन भारतीयों को देने के लिए भारतीय राज्य के पास क्या है?


('शुक्रवार' के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                                 

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