शनिवार, नवंबर 24, 2012

शोकाकुल चैनलों पर बाल ठाकरे का महिमामंडन

यह शिव सैनिकों का डर था या टी आर पी का लालच लेकिन चैनलों ने संतुलन और अनुपात बोध को ताखे पर रख दिया

पहली क़िस्त

न्यूज चैनलों खासकर हिंदी न्यूज चैनलों में बहुत शुरू से संतुलन और उससे ज्यादा अनुपात बोध का अभाव रहा है. अक्सर उनकी कवरेज को देखकर यह आशंका होती रही है कि जैसे चैनलों ने ये शब्द कभी सुने नहीं हैं या कहें कि उनके सम्पादकीय शब्दकोष से संतुलन और अनुपात बोध जैसे दो महत्वपूर्ण संपादकीय मूल्यों और विचारों को पूरी तरह से विदाई दे दी गई है.
इसकी जगह न्यूज चैनलों में अतार्किकता, भावुकता और अतिरेक का बोलबाला रहा है. उस समय चैनलों के संपादकों का दावा हुआ करता था कि चैनल अभी अपने बाल्य-काल में हैं और जैसे-जैसे समय गुजरेगा, वे परिपक्व होंगे और उनमें एक स्थिरता, संतुलन और अनुपात बोध भी बढ़ेगा.
लेकिन लगता है कि चैनलों की उम्र बढ़ने के साथ उनका संतुलन और अनुपात बोध और बिगड़ता जा रहा है. इसका सबसे ताजा उदाहरण महाराष्ट्र में शिव सेना नेता बाल ठाकरे की बीमारी और मौत के समय दिखा, जब सभी चैनल भावुकता की बाढ़ में ऐसे डूबने-उतराने लगे कि संतुलन और अनुपात बोध के साथ-साथ तथ्य और तर्क भी उसमें डूब गए.  

बाल ठाकरे की मौत से शोकाकुल चैनलों का संतुलन इस कदर बिगड़ा कि उन्हें ठाकरे में ऐसे-ऐसे गुण नजर आने लगे, जिसके बारे में शायद ही पहले किसी ने सुना हो. विचित्र स्थिति यह हो गई कि जिन कारणों से ठाकरे की जीवन भर आलोचना हुई, वे सभी उनके ‘गुण’ बन गए और चैनलों में उनके यशगान की होड़ सी चलती रही.

यह सचमुच हैरान करनेवाला दृश्य था जब न्यूज चैनल एक साथ सामूहिक स्मृति भ्रंश के शिकार नजर आए. वे भूल गए कि ये वही बाल ठाकरे थे जिन्होंने जीवन भर क्षेत्रीय, सांप्रदायिक, भाषाई और जातीय आधारों पर घृणा, विभाजन, गुंडागर्दी और आतंक की संकीर्ण और जहरीली राजनीति की, मराठी मानुष के नामपर देश के विभिन्न हिस्सों से मुंबई आए आप्रवासी मजदूरों से लेकर धार्मिक अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया और लोकतंत्र को गाली देने से लेकर हिटलर की खुलेआम प्रशंसा करने में कोई शर्म महसूस नहीं की.
यही नहीं, चैनल यह भी भूल गए कि ये वही बाल ठाकरे थे और उनकी शिव सेना थी जिसने अनेकों बार अखबारों/चैनलों के दफ्तरों पर हमला किया, तोड़फोड़ और पत्रकारों के साथ मारपीट की.
लेकिन मजा देखिये कि न्यूज चैनल इन्हीं कारणों से ठाकरे की प्रशंसा करने में जुटे रहे कि वे बहुत ‘साहसी, बेलाग, खरी-खरी बात करनेवाले और अपनी बातों पर डटे रहनेवाले नेता’ थे. लेकिन यह कहते हुए बहुत कम चैनलों ने बताया कि ठाकरे के कथित साहसिक बयान क्या थे और उनके मायने क्या थे? उल्टे ठाकरे को ‘एक था टाइगर’ जैसी उपमाओं से याद किया जाता रहा.

ठाकरे की शवयात्रा और अंतिम संस्कार में उमड़ी भीड़ ने तो चैनलों को ऐसा विह्वल कर दिया कि वे सभी ठाकरे के ‘करिश्मे’ से ‘शॉक एंड आव्’ की स्थिति में पहुँच गए और शवयात्रा के साथ चैनलों पर कमेंट्री कर रहे एंकर-रिपोर्टर पत्रकार कम और कथाकार ज्यादा लग रहे थे. वस्तुनिष्ठता, तथ्यात्मकता और संतुलन को ताखे पर रख दिया गया था.   

नतीजा, बाल ठाकरे की बीमारी और खासकर मृत्यु और शवयात्रा को चैनलों ने जिस तरह से 24x7 कवरेज दिया, उसने ठाकरे को रातों-रात ‘हिंदू हृदय सम्राट’ और क्षेत्रीय (खासकर मुंबई-ठाणे) नेता से राष्ट्रीय नेता बना दिया. चैनलों के बीच बाल ठाकरे को वीरोचित विशेषणों से नवाजने की होड़ लगी हुई थी और साथ में आदरपूर्ण शोकधुन भी बज रही थी.
यही नहीं, चैनल और उनके एंकरों-रिपोर्टरों के साथ-साथ बाल ठाकरे की परिघटना को समझाने के लिए स्टूडियो में बैठे विशेषज्ञ भी भावनाओं में बहे जा रहे थे. कई मौकों पर कुछ एंकरों-रिपोर्टरों के अंदर बैठा शिव सैनिक बाहर निकल आया और कई बार उनकी आवाज़ भी रूंधने लगती थी.
कहना मुश्किल है कि चैनल और उनके एंकर-रिपोर्टर और विशेषज्ञ बाल ठाकरे के प्रति किसी वास्तविक श्रद्धा, आदर और आस्था के कारण भावनाओं में बहे जा रहे थे या बाल ठाकरे के शिव सैनिकों का ज्ञात-अज्ञात डर था जिसके कारण मुंबई के फिल्म सितारों-उद्योगपतियों-नेताओं-खिलाडियों की भीड़ ठाकरे के बंगले मातोश्री पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवाने में होड़ कर रही थी?

इन दो के अलावा चैनलों के कवरेज की कोई और व्याख्या नहीं हो सकती है क्योंकि यह सिर्फ सामान्य लोकाचार का मामला नहीं था जिसके कारण किसी मृत व्यक्ति की आलोचना नहीं की जाती है. सच पूछिए तो यह तो सिर्फ बहाना था क्योंकि अगर यह सिर्फ सामान्य लोकाचार होता तो चैनलों के कवरेज में संतुलन और अनुपात बोध दिखता जोकि सिरे से गायब था.

यहाँ तक कि ठाकरे की राजनीति और विचारों के आलोचक संपादकों/पत्रकारों की भाषा भी बदली-बदली सी थी और वे जिस सावधानी से शब्द चुन रहे थे, उनकी भाषा और लहजे में जिस तरह का असमंजस दिख रहा था, उसमें इस अज्ञात डर को महसूस किया जा सकता था.
ऐसे में, वे असुविधाजनक सवाल पूछने की न तो गुंजाइश थी और न ही ऐसा करने का जोखिम उठाने का साहस अधिकांश चैनलों में दिखाई पड़ा. यह जरूर है कि कई चैनलों पर कुछ वरिष्ठ पत्रकारों और विशेषज्ञों ने धारा के विपरीत तैरने और तथ्यों को रखने की कोशिश की लेकिन उनकी तार्किक बातें भी चैनलों पर ठाकरे के लिए उमड़ रही भावुकता के कोलाहल और शोकधुन में गुम हो गईं.
सवाल यह है कि चैनलों की इस कवरेज की व्याख्या कैसे की जाए? पहली बात तो यह है कि इस भावुकता भरे कवरेज में लोकाचार से अधिक एक बिजनेस सेन्स था.

असल में, मुंबई न सिर्फ देश की आर्थिक और वित्तीय राजधानी है बल्कि वह चैनलों के कारोबार के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है. मुंबई और महाराष्ट्र में न सिर्फ सर्वाधिक टी.आर.पी मीटर लगे हुए हैं बल्कि देश के सबसे समृद्ध राज्य और शहर होने के नाते विज्ञापनदाताओं की स्वाभाविक तौर पर उनमें सबसे अधिक दिलचस्पी भी होती है.
इसके कारण चैनलों में मुंबई और महाराष्ट्र के प्रति एक अतिरिक्त झुकाव दिखता रहा है. मुंबई के खाते-पीते मध्यवर्गीय दर्शकों का ध्यान खींचने की अंग्रेजी और हिंदी चैनलों में हमेशा होड़ रहती है.

कहते हैं कि चैनलों की दुनिया मुंबई से दिल्ली तक और कुछ हद तक पश्चिमी भारत तक सीमित है. यही कारण है कि मुंबई की अपेक्षाकृत सामान्य खबरें भी चैनलों पर तुरंत छा जाती हैं जबकि देश के अन्य हिस्से खासकर पूर्वी भारत और उनकी बड़ी घटनाएं, समस्याएं और मुद्दे अनदेखे चले जाते हैं. ठाकरे की बीमारी और मृत्यु/अंतिम संस्कार भी इसके अपवाद नहीं थे.
सच यह है कि अगर ठाकरे मुंबई में न हुए होते तो उनकी बीमारी और मृत्यु की खबर चैनलों पर इतने विस्तार से नहीं चलती. बहुत दूर जाने की जरूरत नहीं है, पिछले साल नवंबर में असम के मशहूर गायक/कलाकार भूपेन हजारिका की मौत हुई थी और उनकी शवयात्रा और अंतिम संस्कार में गुवाहाटी जैसे अपेक्षाकृत छोटे शहर में ५ लाख से ज्यादा लोग जुटे थे लेकिन कितने चैनलों पर भूपेन हजारिका को ठाकरे की तरह कवरेज मिली.
साफ़ है कि ठाकरे को इतनी अधिक और महिमापूर्ण कवरेज मिलने की एक बड़ी वजह उनका टी.आर.पी राजधानी मुंबई से होना था. चैनलों की टी.आर.पी आधारित ‘न्यूज वैल्यू’ पर स्वाभाविक तौर पर यह ‘बड़ी खबर’ थी. यहाँ तक भी गनीमत थी लेकिन मुंबई के ठाकरे भक्त ‘मराठी मानुष’ दर्शकों का दिल जीतने की चैनलों में ऐसी होड़ मची कि उन्हें ठाकरेमय होने में देर नहीं लगी.

हालाँकि यह भी चैनलों की कोई नई बीमारी नहीं है. वे हमेशा से ‘पापुलर मूड’ के  साथ तैरने की कोशिश करते हैं. ऐसा नहीं है कि वे ‘पापुलर मूड’ के साथ बहने के खतरे नहीं जानते हैं लेकिन इसके बावजूद वे इसलिए भी करते हैं क्योंकि इससे उनके कारोबारी के साथ-साथ वैचारिक हित भी जुड़े हुए हैं.

आश्चर्य नहीं कि वे ऐसे मौकों पर ‘पापुलर मूड’ बनाने की कोशिश भी करते हैं. ठाकरे प्रकरण इसका एक और ताजा प्रमाण है. चैनलों ने जिस तरह से कोई एक सप्ताह तक घंटों ठाकरे की बीमारी की कवरेज की और ठाकरे का महिमामंडन शुरू किया, उसके साथ ही यह तय हो गया था कि हवा का रुख क्या है?
उसी की तार्किक परिणति मृत्यु से लेकर अंतिम संस्कार तक की कवरेज में भी दिखी. असल में, चैनल और उनके विशेषज्ञ मुंबई में ठाकरे की शवयात्रा और अंतिम संस्कार में उमड़ी भीड़ को लोकप्रियता और पापुलर मूड के उदाहरण के बतौर पेश कर रहे हैं, वह काफी हद तक खुद चैनलों की अतिरेकपूर्ण 24X7 कवरेज का नतीजा थी.
एक तो चैनलों ने ऐसा माहौल बनाया जिसमें शुरू से लाखों की भीड़ जुटने के अनुमान-चर्चाओं और बाद में टी.वी कैमरों के कमाल ने एक बैंड-वैगन प्रभाव पैदा कर दिया और जिसके कारण बहुतेरे लोग देखा-देखी और इस डर के साथ उस भीड़ का हिस्सा बनते गए कि कहीं पीछे न छूट जाए. एक तरह की ‘सामूहिक उन्माद’ (मॉस हिस्टीरिया) की स्थिति पैदा हो गई थी.

कहते हैं कि भीड़ का अपने एक खास मनोविज्ञान होता है. मुंबई जैसे महानगर में जहाँ असुरक्षा बोध बहुत ज्यादा है, वहां एक विशाल ‘मराठी मानुष’ भीड़ का हिस्सा बनकर खुद को सुरक्षित और शक्तिशाली महसूस करने के मनोविज्ञान को नजरंदाज़ नहीं किया जा सकता है...

जारी ...... 

('कथादेश' के दिसंबर अंक में प्रकाशित हो रही टिप्पणी की पहली क़िस्त...विस्तार से पत्रिका में पढ़ें या 5 दिसंबर तक इंतजार करें। आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा।)

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