गरीबों की जरूरतों और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अर्थनीति का राजनीति के मातहत होना जरूरी है
इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र की स्थिति कितनी बद से बदतर होती जा रही है. उसपर एक तो करेला, उसपर नीम चढ़े की तरह पिछले कुछ वर्षों में किसानों से विकास के नामपर उद्योग, सेज, हाईवे, बिजलीघर, रीयल इस्टेट आदि बनाने के लिए ८० लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन जबरदस्ती ली गई है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि यह कोलंबस के बाद दुनिया में जमीन की सबसे बड़ी लूट है.
तर्क यह दिया जाता है कि यह देश के ‘तेज विकास’ के लिए जरूरी है. लेकिन इस ‘तेज विकास’ का हाल यह है कि यह ‘रोजगारविहीन विकास’ (जाब्लेस ग्रोथ) है. खुद सरकारी रिपोर्टें कह रही है हैं कि देश में तेज जी.डी.पी वृद्धि दर के बावजूद रोजगार वृद्धि की दर बहुत मामूली या नगण्य है. संगठित क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है.
नए रोजगार के अवसर असंगठित क्षेत्र में पैदा हुए हैं जहाँ वेतन-सेवाशर्तों आदि के मामले में श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही है. ठेका और अस्थाई श्रमिकों की तादाद बढ़ी है और उन्हें जिन बदतर स्थितियों में काम करना पड़ता है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
यही नहीं, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के मुद्दे पर जिस तरह से मध्यवर्गीय व्यापारियों का एक बड़ा हिस्सा सड़कों पर उतर आया है, उससे साफ़ हो गया है कि देश में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है. इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहे जितने दावे करें लेकिन सच्चाई पर पर्दा डालना अब संभव नहीं रह गया है.
(लखनऊ से प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के नवम्बर अंक में प्रकाशित लेख की तीसरी और आखिरी क़िस्त)
तीसरी और आखिरी क़िस्त
इसकी वजह किसी से छुपी नहीं है. आर्थिक सुधार के इन वर्षों में कृषि
को उसके हाल पर छोड़ दिया गया. किसानों को न सिर्फ खाद, बिजली और बीज आदि की बढ़ी
कीमतें चुकानी पड़ी, उन्हें उनकी उपज का उचित और लाभकारी मूल्य नहीं मिला बल्कि
उन्हें डब्ल्यू.टी.ओ के बाद बाजार में सस्ते विदेशी कृषि उत्पादों से मुकाबला करना
पड़ा.
इसका सबसे बुरा प्रभाव नगदी फसलों के किसानों पर पड़ा है. यही नहीं, आर्थिक
सुधारों के तहत सब्सिडी कटौती के कारण कृषि में सरकारी निवेश घटा और उसके कारण
कृषि की उत्पादकता वृद्धि में भी गिरावट आ रही है. आश्चर्य नहीं कि जिन वर्षों में
जी.डी.पी की वृद्धि दर औसतन ८ फीसदी के आसपास थी, उन वर्षों में भी कृषि की वृद्धि
दर औसतन मात्र २ फीसदी के आसपास थी.
नतीजा यह कि जी.डी.पी में कृषि का योगदान घटते-घटते १४.८ फीसदी से भी
कम रह गया है जबकि कृषि पर अब भी देश की ५४ फीसदी आबादी निर्भर है. इसका अर्थ यह
हुआ कि देश में जी.डी.पी के रूप में पैदा होनेवाली कुल समृद्धि में सिर्फ १४.८
फीसदी हिस्सा ही कृषि क्षेत्र में आता है लेकिन उसपर देश की कुल ५४ फीसदी से अधिक
लोगों की आजीविका निर्भर है. इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र की स्थिति कितनी बद से बदतर होती जा रही है. उसपर एक तो करेला, उसपर नीम चढ़े की तरह पिछले कुछ वर्षों में किसानों से विकास के नामपर उद्योग, सेज, हाईवे, बिजलीघर, रीयल इस्टेट आदि बनाने के लिए ८० लाख हेक्टेयर से अधिक जमीन जबरदस्ती ली गई है. योजना आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि यह कोलंबस के बाद दुनिया में जमीन की सबसे बड़ी लूट है.
लेकिन यह लूट सिर्फ जमीन तक सीमित नहीं है. सच यह है कि आर्थिक
सुधारों के नामपर उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की आड़ में खुले बाजार को जिस
तरह से आगे बढ़ाया गया है, उसमें ‘जल-जंगल-जमीन से लेकर प्राकृतिक संसाधनों’ की
कारपोरेट लूट ने सभी रिकार्ड तोड़ दिए हैं.
असल में, देश में डालर अरबपतियों और
करोड़पतियों की संख्या यूँ ही नहीं बढ़ रही है. यह कोई जादू नहीं है. यह वास्तव में
आर्थिक सुधारों से ज्यादा आर्थिक सुधारों के नामपर बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को दी जा
रही रियायतें, छूट और सार्वजनिक प्राकृतिक संसाधनों के बेलगाम हस्तान्तरण के कारण
संभव हुआ है. अकेले २-जी और कोयला आवंटन में कोई ३.६२ लाख करोड़ रूपयों से अधिक की
सार्वजनिक संपत्ति बड़ी कंपनियों और नेताओं के रिश्तेदारों/करीबियों को बाँट दी गई.
हैरानी की बात नहीं है कि आर्थिक सुधारों के नामपर यह कहते हुए कि
पैसे पेड पर नहीं उगते, सब्सिडी कटौती का सारा बोझ आम आदमी और गरीबों पर डाला जा
रहा है, उस समय देश के कार्पोरेट्स, बड़े निवेशकों, अमीरों, उच्च मध्य और मध्य वर्ग
को टैक्स छूटों, रियायतों और कटौतियों के जरिये सालाना कोई ५.१५ लाख करोड़ से अधिक
की सब्सिडी दी जा रही है. तर्क यह दिया जाता है कि यह देश के ‘तेज विकास’ के लिए जरूरी है. लेकिन इस ‘तेज विकास’ का हाल यह है कि यह ‘रोजगारविहीन विकास’ (जाब्लेस ग्रोथ) है. खुद सरकारी रिपोर्टें कह रही है हैं कि देश में तेज जी.डी.पी वृद्धि दर के बावजूद रोजगार वृद्धि की दर बहुत मामूली या नगण्य है. संगठित क्षेत्र लगातार सिकुड़ रहा है.
नए रोजगार के अवसर असंगठित क्षेत्र में पैदा हुए हैं जहाँ वेतन-सेवाशर्तों आदि के मामले में श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियाँ उड़ाई जा रही है. ठेका और अस्थाई श्रमिकों की तादाद बढ़ी है और उन्हें जिन बदतर स्थितियों में काम करना पड़ता है, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है.
सच पूछिए तो आज नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की असलियत खुल चुकी है.
खासकर देश के करोड़ों गरीबों, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, दलितों, पिछडों और
अल्पसंख्यकों ने अपने कड़वे अनुभवों से जान लिया है कि आर्थिक सुधारों की कीमत
उन्हें चुकानी पड़ रही है लेकिन इसकी मलाई मुट्ठी भर अमीर-अभिजात्य लोग उड़ा रहे
हैं.
यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में देश के हर कोने में किसान, आदिवासी,
दलित और गरीब ‘जल-जंगल-जमीन और खनिजों’ की लूट के खिलाफ डटकर खड़ा हो गया है. किसान
और आदिवासी किसी भी नए प्रोजेक्ट के लिए जमीन देने को तैयार नहीं हैं और वे लड़ने
और मरने-मारने पर उतारू हैं. श्रमिकों की बेचैनी फूटने लगी है. मारुति में
श्रमिकों का आंदोलन अपवाद नहीं है.
और तो और आर्थिक सुधारों का मुखर समर्थक रहा मध्य और निम्न मध्य वर्ग
का भी एक बड़ा हिस्सा अब इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद करने लगा है. भ्रष्टाचार के खिलाफ
अन्ना आंदोलन इस प्रवृत्ति की एक मिसाल है. यही नहीं, खुदरा व्यापार में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के मुद्दे पर जिस तरह से मध्यवर्गीय व्यापारियों का एक बड़ा हिस्सा सड़कों पर उतर आया है, उससे साफ़ हो गया है कि देश में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों की संख्या दिन पर दिन घटती जा रही है. इसलिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चाहे जितने दावे करें लेकिन सच्चाई पर पर्दा डालना अब संभव नहीं रह गया है.
इस अर्थ में नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी को चुनौती मिलने लगी है. लेकिन
उसे मुकम्मल चुनौती देने के लिए जरूरी है कि अर्थनीति को राजनीति के मातहत लाने की
वैकल्पिक राजनीति को आगे बढ़ाया जाए.
आखिर राजनीति क्या है? राजनीति और कुछ नहीं
बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों की जरूरतों, आकांक्षाओं और इच्छाओं की अभिव्यक्ति का
माध्यम है. लेकिन नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी के जो समर्थक अर्थनीति को
राजनीति से अलग रखने की मांग करते हैं, वे असल में, उसे आम लोगों की जरूरतों,
आकांक्षाओं और इच्छाओं से अलग रखने की मांग करते हैं.
लेकिन आम लोगों खासकर इस देश
के बहुसंख्यक गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की जरूरतों, इच्छाओं और आकांक्षाओं की
पूर्ति के लिए अर्थनीति का राजनीति के मातहत होना जरूरी है.
लेकिन इसके लिए जरूरी है कि कारपोरेट और बड़ी आवारा पूंजी की चाकर बन
गई राजनीति को जनसंघर्षों के जरिये उनके कब्जे से मुक्त कराया जाए और उसे फिर से
गरीबों की आवाज़ बनाया जाए. साफ़ है कि वैकल्पिक और जनोन्मुखी अर्थनीति के लिए
वैकल्पिक राजनीति जरूरी है. यह भी तय है कि वह वैकल्पिक राजनीति जनसंघर्षों से ही
निकलेगी.(लखनऊ से प्रकाशित 'समकालीन सरोकार' के नवम्बर अंक में प्रकाशित लेख की तीसरी और आखिरी क़िस्त)
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