प्रतियोगी और पूरक
का सम्बन्ध है भारत-चीन के बीच
हालाँकि यह चीन के कुल माल/जिंस आयात का मात्र १.४ प्रतिशत था लेकिन इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों देशों खासकर भारत के लिए चीन के साथ आपसी व्यापार को बढ़ाने की कितनी अधिक गुंजाइश मौजूद है. दूसरी ओर, चीन ने अपने कुल जिंस/माल निर्यात का मात्र २.५४ प्रतिशत भारत को निर्यात किया लेकिन यह भारत के कुल माल/जिंस आयात का ११.७७ प्रतिशत बैठता है.
हालाँकि मीडिया के एक हिस्से में चीनी सामानों/उत्पादों को लेकर दिखाया जानेवाला डर अतिरेक से भरा और अंध चीन विरोध से प्रेरित है लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होनेवाले सस्ते चीनी सामानों से भारतीय बाजार पटता जा रहा है और उनके आगे भारतीय उत्पादकों खासकर लघु और मंझोले उद्योगों के लिए प्रतियोगिता में टिकना मुश्किल होता जा रहा है.
लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का यह वि-औद्योगिकीकरण सिर्फ चीनी वस्तुओं/उत्पादों के कारण नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों से भी हो रहे सस्ते आयात के कारण है और व्यापक अर्थों में यह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का नतीजा है.
दूसरे, आपसी व्यापार में वृद्धि से दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को फायदा हो रहा है. आज जब पूरी दुनिया में आपसी और क्षेत्रीय व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए व्यापारिक समझौते हो रहे हैं और गठबंधन हो रहे हैं, उस समय दो तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकती हैं. उससे दोनों को नुकसान होगा.
('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 3 नवम्बर को प्रकाशित टिप्पणी)
भारत और चीन के बीच १९६२ के युद्ध के बाद पिछले ५० वर्षों में बहुत
कुछ बदल गया है. गंगा और यांग्त्सी नदियों में बहुत पानी बह चुका है. आज भारत और
चीन एशिया की दो ऐसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएं हैं जिन्होंने पिछले दो दशकों में
अपने विशाल घरेलू बाजार और आर्थिक उछाल के कारण पूरी दुनिया का ध्यान खींचा है.
हैरानी की बात नहीं है कि युद्ध की कड़वी यादों, परस्पर अविश्वास और सीमा विवाद के
बावजूद पिछले दो-ढाई दशकों में दोनों देशों के बीच आपसी व्यापार तेजी से बढ़ा है.
सच यह है कि दोनों देशों के बीच सामान्य होते द्विपक्षीय संबंधों को पारिभाषित
करनेवाली सबसे महत्वपूर्ण परिघटना आपसी व्यापार में वृद्धि है.
तथ्य खुद इसकी गवाही देते हैं. आज चीन, भारत का पहले नंबर का व्यापारिक
साझीदार बन चुका है जबकि भारत भी चीन के पहले दस बड़े व्यापारिक साझीदारों में से
एक है. वर्ष २०१० में भारत ने अपने कुल जिंस/माल निर्यात का ७.९१ प्रतिशत अकेले
चीन को निर्यात किया. हालाँकि यह चीन के कुल माल/जिंस आयात का मात्र १.४ प्रतिशत था लेकिन इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि दोनों देशों खासकर भारत के लिए चीन के साथ आपसी व्यापार को बढ़ाने की कितनी अधिक गुंजाइश मौजूद है. दूसरी ओर, चीन ने अपने कुल जिंस/माल निर्यात का मात्र २.५४ प्रतिशत भारत को निर्यात किया लेकिन यह भारत के कुल माल/जिंस आयात का ११.७७ प्रतिशत बैठता है.
आश्चर्य की बात नहीं है कि ‘इकनामिक एंड पोलिटिकल वीकली’ (३ नवंबर’१२)
के एक विशेष रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले एक दशक में दोनों देशों के बीच आपसी
व्यापार में इन दोनों देशों के एशियान देशों और दुनिया के अन्य देशों से व्यापार
की तुलना में दुगुनी तेज गति से वृद्धि हुई है.
एक अनुमान के अनुसार, दोनों देशों
का आपसी व्यापार वर्ष २०१५ तक १०० अरब डालर तक पहुँच जाएगा. वर्ष २०११ में दोनों
देशों के बीच आपसी व्यापार ७३.९ अरब डालर का था. उल्लेखनीय है कि दोनों देशों ने
आर्थिक सहयोग के लिए एक पांच सालों के समझौते पर दस्तखत किये हैं जिसका मकसद आपसी
व्यापार को तेजी से बढ़ाना है.
लेकिन ऐसा भी नहीं है कि दोनों देशों के बीच तेजी से बढ़ते व्यापार को
लेकर सब कुछ अच्छा ही अच्छा है. सच यह है कि इसे लेकर कई सवाल, आशंकाएं और चिंताएं
भी हैं. उदाहरण के लिए एक बड़ी आशंका और चिंता यही है कि चीन से आनेवाले सस्ते
उपभोक्ता सामानों, औद्योगिक उत्पादों और मालों का कहीं भारतीय बाजारों पर कब्ज़ा न
हो जाए. हालाँकि मीडिया के एक हिस्से में चीनी सामानों/उत्पादों को लेकर दिखाया जानेवाला डर अतिरेक से भरा और अंध चीन विरोध से प्रेरित है लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता है कि रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होनेवाले सस्ते चीनी सामानों से भारतीय बाजार पटता जा रहा है और उनके आगे भारतीय उत्पादकों खासकर लघु और मंझोले उद्योगों के लिए प्रतियोगिता में टिकना मुश्किल होता जा रहा है.
कहने की जरूरत नहीं है कि चीन आज दुनिया की सबसे बड़ी मैन्युफैक्चरिंग
फैक्ट्री बन चुका है. खासकर श्रम केंद्रित-निर्यातोन्मुख मैन्युफैक्चरिंग में उसका
कोई जवाब नहीं है और उसने एक ऐसी ‘इकनामी आफ स्केल’ हासिल कर ली है जिसका मुकाबला
करना मुश्किल है.
आश्चर्य नहीं कि चीन आज दुनिया भर में अपने सस्ते
सामानों/उत्पादों खासकर दैनिक जरूरत के सामानों/उत्पादों आदि के लिए जाना जाता है
और उससे मुकाबला करना सभी के लिए मुश्किल हो रहा है. इसका नतीजा यह हुआ है कि
दुनिया की अधिकांश बड़ी कंपनियों (भारतीय कंपनियों सहित) ने चीन में अपनी औद्योगिक
ईकाइयां लगा ली हैं और खुद की ब्रांडिंग के साथ सामानों को निर्यात कर रही हैं और
अपने घरेलू बाजारों में बेच रही हैं.
जाहिर है कि इसके कारण भारत समेत दुनिया के कई देशों में घरेलू
उद्योगों के सामने कड़ी चुनौती खड़ी हो गई है. भारत में कई उद्योगों में खासकर
लघु-मंझोली औद्योगिक ईकाइयों के बंद होने का खतरा बढ़ता जा रहा है. कई बंद हो चुकी
हैं. इससे लाखों श्रमिकों के रोजगार पर संकट मंडरा रहा है और हजारों बेरोजगार हो
चुके हैं. इसे नजरंदाज़ करना मुश्किल है. लेकिन इसके साथ ही यह भी सच है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का यह वि-औद्योगिकीकरण सिर्फ चीनी वस्तुओं/उत्पादों के कारण नहीं बल्कि दुनिया के अन्य देशों से भी हो रहे सस्ते आयात के कारण है और व्यापक अर्थों में यह भूमंडलीकरण की प्रक्रिया का नतीजा है.
दूसरे, भारत-चीन व्यापार के बीच तेजी से बढ़ते व्यापार में एक पेंच
भारत के सन्दर्भ में बढ़ता व्यापार घाटा है. वर्ष २०१० में चीन से व्यापार में भारत
का व्यापार घाटा (आयात की तुलना में निर्यात का अंतर) बढ़कर २१.२५ अरब डालर तक
पहुँच गया.
हालाँकि चीन को भारत का निर्यात १८.७७ अरब डालर रहा जो वर्ष २००९ की
तुलना में ८१ फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्शाता है लेकिन इस बढ़ोत्तरी के बावजूद दोनों
देशों के बीच व्यापार में व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में झुका हुआ है. यह दोनों
देशों के बीच बढ़ते व्यापारिक तनाव की वजह भी बन रहा है. इसके कारण चीन से हो रहे
आयात पर अंकुश लगाने की मांग भी जोर पकड़ रही है.
लेकिन इन समस्याओं और असंतुलन के बावजूद दोनों देशों के बीच बढ़ते
व्यापार में संभावनाएं और उम्मीदें भी बहुत हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि
बढ़ते व्यापार के कारण दोनों देशों में राजनीतिक संबंध सामान्य हो रहे हैं. आपसी
कटुता और अविश्वास कम हुआ है. दूसरे, आपसी व्यापार में वृद्धि से दोनों देशों की अर्थव्यवस्थाओं को फायदा हो रहा है. आज जब पूरी दुनिया में आपसी और क्षेत्रीय व्यापार को आगे बढ़ाने के लिए व्यापारिक समझौते हो रहे हैं और गठबंधन हो रहे हैं, उस समय दो तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाएं एक-दूसरे से अलग नहीं रह सकती हैं. उससे दोनों को नुकसान होगा.
तीसरे, भारत-चीन के बीच बढ़ते व्यापार का एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है
कि भारत और चीन जहाँ कई क्षेत्रों में कड़े प्रतियोगी हैं, वहीं कई क्षेत्रों में
उनके वे एक दूसरे के पूरक भी हैं और कई और क्षेत्रों में उनकी ताकत अलग-अलग भी है.
जैसे चीन अगर मैन्युफैक्चरिंग के क्षेत्र में वैश्विक ताकत है तो भारत सेवा
क्षेत्र में तेजी से उभर रहा है.
इसी तरह चीन सूचना तकनीक-कंप्यूटर के क्षेत्र में
हार्डवेयर के निर्यात में आगे है तो भारत साफ्टवेयर में आगे है. इन क्षेत्रों में
एक-दूसरे के सहयोगी हो सकते हैं. ऐसे में, यह दोनों देशों के हक में है कि आपसी
व्यापार में मौजूद असंतुलन और विसंगतियों को दूर करते हुए एक-दूसरे के
सहयोग-समर्थन पर आधारित व्यापार को और प्रोत्साहित करें ताकि उसका फायदा दोनों
देशों की जनता को मिल सके.
यह इसलिए भी जरूरी है कि इस मामले में पीछे लौटने का विकल्प दोनों
देशों के पास नहीं है. गंगा और यांग्त्सी में बहते हुए पानी की तरह उन्हें आगे ही
बहना होगा. ('राष्ट्रीय सहारा' के हस्तक्षेप परिशिष्ट में 3 नवम्बर को प्रकाशित टिप्पणी)
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