शुक्रवार, नवंबर 16, 2012

आई.सी.यू. की ओर जाती हुई अर्थव्यवस्था

मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की उर्फ़ मामला है अर्थव्यवस्था के मर्ज की नीमहकीमी का

सुस्त और लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था में दीपावली का धूम-धड़ाका भी जान फूंकने में नाकाम रहा है. उल्टे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से आ रही नकारात्मक खबरों ने दीपावली की रौनक को भी कुछ हद तक फीका कर दिया. आश्चर्य नहीं कि शेयर बाजार में मुर्दनी सी छाई हुई है और सेंसेक्स नीचे लुढकता नजर आ रहा है.
कारण साफ़ है. बीमार अर्थव्यवस्था में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों और एफ.डी.आई के नए डोज के बावजूद कोई सुधार नहीं दिख रहा है. ताजा रिपोर्टों के मुताबिक, औद्योगिक उत्पादन से लेकर निर्यात तक में गिरावट और खुदरा मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति में वृद्धि का दौर जारी है.   
इन रिपोर्टों ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के इस दावे को झुठला दिया है कि भारतीय अर्थव्यवस्था गिरावट के सबसे निचले स्तर तक पहुँच चुकी है और यहाँ से वह ऊपर की ओर चढ़ेगी. इसके उलट अर्थव्यवस्था से आ रही रिपोर्टें स्थिति के और बिगड़ने की ओर इशारा कर रही हैं.

उदाहरण के लिए औद्योगिक उत्पादन को लीजिए. ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, सितम्बर महीने में औद्योगिक उत्पादन की दर एक बार फिर नकारात्मक (-) ०.४ प्रतिशत रही जबकि उसमें वृद्धि की उम्मीद की जा रही थी. यह गिरावट इसलिए भी चौंकानेवाली है क्योंकि यह गिरावट ठीक त्यौहारों- दशहरा, ईद और दीपावली से पहले के महीने में आई है.

माना जाता है कि त्यौहारों के दौरान उपभोक्ता वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है और इस मांग को पूरा करने के लिए उसके पहले के महीनों में उत्पादन भी बढ़ता है. यही नहीं, अगस्त में औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर २.३ प्रतिशत रही जिसके कारण औद्योगिक उत्पादन में सुधार की उम्मीदें दिखने लगी थीं.
लेकिन सितम्बर में औद्योगिक उत्पादन में गिरावट से सुधार की उम्मीदों को झटका लगा है. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि औद्योगिक क्षेत्र के अंदर मैन्युफैक्चरिंग की वृद्धि दर में (-) १.५ फीसदी और पूंजीगत सामानों में सबसे अधिक (-) १२.२ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है. यहाँ तक कि उपभोक्ता सामानों के उत्पादन में भी मामूली गिरावट दर्ज की गई है.
हैरानी की बात नहीं है कि चालू वित्तीय वर्ष के पहले छह महीनों- अप्रैल से सितम्बर के बीच औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर गिरकर सिर्फ ०.१ फीसदी रह गई है जबकि पिछले साल की इसी अवधि में यह ५.१ फीसदी थी. इससे साफ़ है कि औद्योगिक क्षेत्र की स्थिति नाजुक बनी हुई है.

सवाल यह है कि ऐसी स्थिति क्यों है? यू.पी.ए सरकार, औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबी संगठनों और गुलाबी अखबारों की मानें तो इसकी सबसे बड़ी वजहें वैश्विक आर्थिक संकट से लेकर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा पाने में आ रही राजनीतिक मुश्किलें हैं. इसके कारण एक अनिश्चितता और निराशा का माहौल बना है जिसके कारण देशी-विदेशी पूंजी अर्थव्यवस्था में नया निवेश करने से कतरा रही है और उसका असर मांग और औद्योगिक उत्पादन में गिरावट के रूप में दिखाई पड़ रहा है.

लेकिन यह आधा-अधूरा और भ्रामक तर्क है. यह सच है कि अर्थव्यवस्था में सुस्ती और उसकी लड़खड़ाहट की सबसे बड़ी वजह निवेश में आई गिरावट है. इसका एक बड़ा प्रमाण खुद औद्योगिक उत्पादन के ताजा आंकड़े हैं जिनके मुताबिक सितम्बर महीने में पूंजीगत सामानों के उत्पादन में सर्वाधिक (-) १२.२ फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है.
यह साफ़ तौर पर नए निवेश में आई गिरावट की ओर इशारा करता है. यही नहीं, वैश्विक आर्थिक संकट के कारण निर्यात में गिरावट आई है जिसका असर औद्योगिक उत्पादन पर पड़ा है. लेकिन नए निवेश में गिरावट की सबसे बड़ी वजह आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में कथित नाकामी या भ्रष्टाचार और घोटालों को लेकर बना नकारात्मक माहौल या विभिन्न प्रोजेक्ट्स को पर्यावरणीय मंजूरी आदि मिलने में हो रही देरी नहीं है.
सच यह है कि नए निवेश में गिरावट के लिए खुद यू.पी.ए सरकार की नव उदारवादी आर्थिक नीतियां जिम्मेदार हैं. समस्या यह है कि यू.पी.ए सरकार मौजूदा आर्थिक संकट के समाधान का रास्ता उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक नीतियों में खोज रही है जिनके कारण यह संकट आया है. इसका नतीजा ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ के रूप में सामने आ रहा है.

असल में, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में सबसे अधिक जोर सरकार के वित्तीय घाटे को काबू में रखने और निजी क्षेत्र को अधिक से अधिक प्रोत्साहित करने के वास्ते अर्थव्यवस्था को उसके लिए अधिक से अधिक खोलने पर जोर दिया जाता है. कहने की जरूरत नहीं है कि यू.पी.ए सरकार इसी रणनीति पर आगे बढ़ रही है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले दो महीनों में यू.पी.ए सरकार ने वित्तीय घाटे को कम करने के लिए सब्सिडी में कटौती पर काफी जोर दिया है. इसके लिए पेट्रोलियम उत्पादों और रसोई गैस से लेकर उर्वरकों की कीमतों में वृद्धि की है. बिजली क्षेत्र में सुधारों के नामपर राज्य सरकारों को बिजली दरों में वृद्धि करने पर बाध्य किया है. रेल किरायों में वृद्धि प्रस्तावित है.
इस साल के बजट में गैर योजना व्यय में १० फीसदी की कटौती पहले से जारी थी और खबर है कि योजना बजट में भी २० फीसदी कटौती का प्रस्ताव है. वित्त मंत्री पी. चिदंबरम बार-बार वित्तीय घाटे को बजट अनुमान के भीतर रखने की कसमें खा रहे हैं.
दूसरी ओर, सुधारों के नामपर एक झटके में खुदरा व्यापार को एफ.डी.आई के लिए खोलने से लेकर बीमा-पेंशन क्षेत्र में एफ.डी.आई की सीमा बढ़ाने तक के फैसले किये गए हैं. यहाँ तक कि निवेश को प्रोत्साहित करने के नामपर टैक्स बचाने की कोशिशों पर रोक लगानेवाले गार नियमों और वोडाफोन पर पीछे से टैक्स लगानेवाले प्रस्ताव को स्थगित कर दिया गया.

यही नहीं, देशी-विदेशी निवेशकों को खुश करने के नामपर निवेश की राह में आनेवाली पर्यावरणीय मंजूरी की अनिवार्यता को दूर करने के लिए खुद प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में राष्ट्रीय निवेश बोर्ड बनाने का प्रस्ताव है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इस पूरी कसरत का एकमात्र मकसद देशी-विदेशी पूंजी को लुभाना और उन्हें नए निवेश के लिए प्रोत्साहित करना है. लेकिन यू.पी.ए सरकार के यह दांव बहुत कामयाब होता नहीं दिख रहा है. यह ठीक है कि इन फैसलों का निजी देशी-विदेशी पूंजी और कारपोरेट समूहों ने स्वागत किया है और इससे बाजार में ‘फीलगुड’ का माहौल भी दिख रहा है.
लेकिन यह माहौल जमीन पर कम और हवा में ज्यादा है. अर्थव्यवस्था के ताजा संकेतकों से साफ़ है कि जमीन पर स्थिति बद से बदतर होती जा रही है क्योंकि अर्थव्यवस्था नए निवेश की कमी से सूखती जा रही है.
असल में, नया निवेश न बढ़ने के पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि वैश्विक आर्थिक संकट के कारण एक ओर देशी-विदेशी निवेशक/कार्पोरेट्स सुस्त हो गए हैं और दूसरी ओर, घरेलू तौर पर भी भ्रष्टाचार और याराना (क्रोनी) पूंजीवाद के कारण माहौल काफी नकारात्मक हो गया है. अति सक्रिय सिविल सोसायटी, कोर्ट्स, सी.ए.जी और मीडिया के कारण बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और कार्पोरेट्स को मनमाने लाभ देनेवाले फैसले करना आसान नहीं रह गया है.

दूसरे, निवेश के अधिकांश प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर उनके लिए पर्यावरणीय मंजूरी आदि लेने में भारी मुश्किल आ रही है क्योंकि किसान-आदिवासी और जनसंगठन अब न सिर्फ जागरूक हो गए हैं बल्कि वे अपने अधिकारों और पर्यावरण सुरक्षा के लिए मरने-मारने पर उतारू हैं. इसके कारण सैकड़ों प्रोजेक्ट फंसे पड़े हैं.

तीसरे, निजी निवेश में आई गिरावट की भरपाई यू.पी.ए सरकार सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी करके कर सकती थी. सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी से निजी निवेश को भी प्रोत्साहन मिलता है. लेकिन वित्तीय घाटे को काबू में रखने की जिद में सरकार सार्वजनिक निवेश में बढ़ोत्तरी तो दूर की बात है, उल्टे उसमें कटौती पर उतारू दिखाई दे रही है.
योजना बजट में २० फीसदी की कटौती का प्रस्ताव अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकता है. उल्लेखनीय है कि सार्वजनिक क्षेत्र की एक दर्जन से अधिक कंपनियों के पास लगभग २.७५ लाख करोड़ रूपये का अधिशेष पड़ा हुआ है लेकिन सरकार उन्हें निवेश को लिए उत्साहित करने में नाकाम रही है. उल्टे वह सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के विनिवेश और अधिक लाभांश से वित्तीय घाटे की भरपाई के लिए बेताब दिख रही है.
इससे अर्थव्यवस्था एक ऐसे दुष्चक्र में फंसती जा रही है जिससे बाहर निकलना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है. दीपावली पर अर्थव्यवस्था से आई चेतावनियों ने इसकी एक बार फिर पुष्टि की है लेकिन यू.पी.ए सरकार इसे देखने-सुनने को तैयार नहीं है.

यह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के प्रति उसके आब्सेशन का एक और उदाहरण है. आश्चर्य नहीं होगा अगर कुछ दिनों में अर्थव्यवस्था आई.सी.यू में पहुँच जाए.
           
('दैनिक भास्कर', नई दिल्ली के 16 नवम्बर के अंक में आप-एड पर प्रकाशित टिप्पणी)

2 टिप्‍पणियां:

Indra ने कहा…

प्रिय सर, बहुत प्रवाह में और व्यंगात्मक लेख.. बढ़िया लगा..

Indra ने कहा…

प्रिय सर, बहुत प्रवाह में और व्यंगात्मक लेख.. बढ़िया लगा..