खबरों की खरीद-फरोख्त का धंधा अब पूरी तरह से संस्थाबद्ध हो चुका है और ब्लैकमेल उसका हथियार है
ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोशियेशन (बी.ई.ए) ने न सिर्फ इस मामले की जांच के लिए तीन सदस्यी समिति गठित कर दी बल्कि जाँच-पड़ताल के बाद जी न्यूज के एडिटर/बिजनेस हेड और बी.ई.ए के कोषाध्यक्ष सुधीर चौधरी को संगठन से बाहर कर दिया. मजे की बात यह है कि चौधरी की बी.ई.ए की सदस्यता खत्म करने का फैसला सदस्यों के बीच गोपनीय वोट के जरिये किया गया.
लेकिन मुश्किल यह है कि ख़बरों की खरीद-बिक्री के इस हम्माम में ज्यादातर चैनल और अखबार नंगे हैं. पेड न्यूज के पहले से जारी शोर-शराबे के बीच अब जी-जिंदल प्रकरण के खुलासे से न्यूज चैनलों को यह डर सताने लगा है कि कल उनका नंबर भी सकता है.
दूसरे, इस प्रकरण ने न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों के उस ‘नैतिक प्रभामंडल’ पर और भी कालिख पोत दी है जो पहले से ही दाग-धब्बों से चमक खो रहा है और जिसके बिना उनका धंधा नहीं चल सकता है.
यही नहीं, न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में हाल के वर्षों में कारपोरेट के अलावा और भी कई तरह की पूंजी आई है जिनमें नेताओं-अफसरों-व्यापारियों/कारोबारियों/ठेकेदारों/बिल्डरों के अलावा चिट फंड कम्पनियाँ की ओर से किया गया निवेश शामिल है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें ज्यादातर कालाधन है और जिसका मकसद चैनलों के आवरण में अपने दूसरे कानूनी-गैर कानूनी धंधों के लिए राजनीतिक और नौकरशाही का संरक्षण और प्रोत्साहन हासिल करना है.
जैसाकि वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ कहते रहे हैं कि बड़ी कारपोरेट पूंजी से संचालित न्यूज मीडिया ‘संरचनागत तौर पर झूठ बोलने के लिए बाध्य’ है. सच पूछिए तो न्यूज मीडिया के अंडरवर्ल्ड की मुनाफे की हवस और कारपोरेट और दूसरे निजी हितों को आगे बढ़ाने के दबाव ने संपादकों और पत्रकारों को भी हप्ता वसूलने वाले हिटमैन और शार्प शूटर्स में बदलना शुरू कर दिया है.
न्यूज मीडिया के अंदर लगातार मजबूत होते अंडरवर्ल्ड और इसके साथ बढ़ते
नैतिक-आपराधिक विचलन और फिसलन के बीच जैसे यह होना ही था. कोयला आवंटन घोटाला
मामले में आरोपों में घिरी जिंदल स्टील एंड पावर कंपनी के मालिक और कांग्रेसी
सांसद नवीन जिंदल ने जी न्यूज समूह पर ब्लैकमेलिंग और डरा-धमकाकर पैसा वसूलने का
आरोप लगाया है.
जिंदल ने सबूत के बतौर जी न्यूज समूह के दो संपादकों और बिजनेस
हेड- सुधीर चौधरी और समीर अहलुवालिया का स्टिंग पेश किया है जिसमें वे दोनों जिंदल
समूह के खिलाफ चल रही खबरों को रोकने के लिए १०० करोड़ रूपये का बिजनेस मांगते हुए
नजर आते हैं.
लेकिन इस खुलासे के बाद से न्यूज मीडिया खासकर चैनलों में ऐसी हैरानी
और घबराहट दिखाई पड़ रही है, जैसे अचानक कोई दुर्घटना हो गई हो. आनन-फानन में बचाव
की कोशिशें शुरू हो गईं. ब्राडकास्ट एडिटर्स एसोशियेशन (बी.ई.ए) ने न सिर्फ इस मामले की जांच के लिए तीन सदस्यी समिति गठित कर दी बल्कि जाँच-पड़ताल के बाद जी न्यूज के एडिटर/बिजनेस हेड और बी.ई.ए के कोषाध्यक्ष सुधीर चौधरी को संगठन से बाहर कर दिया. मजे की बात यह है कि चौधरी की बी.ई.ए की सदस्यता खत्म करने का फैसला सदस्यों के बीच गोपनीय वोट के जरिये किया गया.
खबर यह भी है कि न्यूज चैनलों के मालिकों/प्रबंधकों के संगठन- न्यूज
ब्राडकास्टर्स एसोशियेशन (एन.बी.ए) की स्व-नियमन व्यवस्था- न्यूज ब्राडकास्टिंग
स्टैण्डर्ड आथरिटी भी इस मामले की जांच कर रही है. लेकिन सारा जोर जी-जिंदल मामले
से भडकी आग पर तात्कालिक तौर पर काबू पाने और नुकसान कम करने पर है.
इसके साथ ही दूरगामी
नुकसान से बचाव के लिए इस पूरे प्रकरण को एक अपवाद, नैतिक भटकाव और एक खास न्यूज
चैनल और उसके दो संपादकों के विचलन के रूप में पेश करने की कोशिश की जा रही है.
गोया यह विचलन और भटकाव सिर्फ उस चैनल और उसके संपादकों तक सीमित मामला है.
लेकिन यह चैनलों के मालिक और संपादक भी जानते हैं कि यह पूरा सच नहीं
है. अगर मामला सिर्फ एक चैनल और उसके दो संपादकों के नैतिक विचलन और आपराधिक
व्यवहार का होता तो चैनलों में इतनी घबराहट और बेचैनी नहीं दिखाई देती. उससे
निपटना बहुत आसान होता. लेकिन मुश्किल यह है कि ख़बरों की खरीद-बिक्री के इस हम्माम में ज्यादातर चैनल और अखबार नंगे हैं. पेड न्यूज के पहले से जारी शोर-शराबे के बीच अब जी-जिंदल प्रकरण के खुलासे से न्यूज चैनलों को यह डर सताने लगा है कि कल उनका नंबर भी सकता है.
दूसरे, इस प्रकरण ने न्यूज मीडिया और खासकर न्यूज चैनलों के उस ‘नैतिक प्रभामंडल’ पर और भी कालिख पोत दी है जो पहले से ही दाग-धब्बों से चमक खो रहा है और जिसके बिना उनका धंधा नहीं चल सकता है.
असल में, लोकतंत्र के चौथे खम्भे को लगी बीमारी कहीं ज्यादा गहरी और
व्यापक है. अगर शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ का हवाले से कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा
कि ‘लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में भी कुछ सड़ सा गया है.’ इस अर्थ में जी न्यूज-जिंदल
प्रकरण न सिर्फ इस सड़न और लाइलाज होती बीमारी के एक और लक्षण के रूप में सामने आया
है बल्कि उसके और गंभीर होते जाने की पुष्टि करता है.
इससे पता चलता है कि न्यूज
मीडिया में खबरों की खरीद-बिक्री का धंधा किस हद और स्तर तक पहुँच चुका है. जी
न्यूज-जिंदल प्रकरण में नया यह है कि कारपोरेट मीडिया में खबरों की खरीद-बिक्री के
धंधे में न सिर्फ दाँव बहुत ऊँचे होते जा रहे हैं बल्कि उसे एक सांस्थानिक रूप भी
दिया जा रहा है और उसमें संपादक और विज्ञापन/सेल्स मैनेजर/बिजनेस हेड के बीच कोई
फर्क नहीं रह गया है.
लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है? साफ़ है कि न्यूज मीडिया में आ रही बड़ी
कारपोरेट पूंजी को न सिर्फ अधिक से अधिक मुनाफा चाहिए बल्कि वह न्यूज मीडिया के
प्रभाव का इस्तेमाल अपने दूसरे कारपोरेट/निजी हितों को आगे बढ़ाने के लिए भी करना
चाहती है. यही नहीं, न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों में हाल के वर्षों में कारपोरेट के अलावा और भी कई तरह की पूंजी आई है जिनमें नेताओं-अफसरों-व्यापारियों/कारोबारियों/ठेकेदारों/बिल्डरों के अलावा चिट फंड कम्पनियाँ की ओर से किया गया निवेश शामिल है.
कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें ज्यादातर कालाधन है और जिसका मकसद चैनलों के आवरण में अपने दूसरे कानूनी-गैर कानूनी धंधों के लिए राजनीतिक और नौकरशाही का संरक्षण और प्रोत्साहन हासिल करना है.
सच पूछिए तो इन दोनों यानी कारपोरेट और आपराधिक पूंजी को मिलाकर न्यूज
मीडिया खासकर न्यूज चैनलों का अंडरवर्ल्ड बनता है जिसमें मालिक-संपादक खबरों के
सौदागर बन गए हैं. यहाँ खबर समेत हर पत्रकारीय मूल्य और नैतिकता बिकाऊ है और जिसके
पास भी पैसा है, वह उसे खरीद/दबा/बदल सकता है. चाहे वह भ्रष्टाचार के मामलों फंसी
कोई कंपनी/नेता/अफसर हो या चुनाव लड़ रहा कोई माफिया डान.
हालत इतने बदतर हो चुके
हैं कि ज्यादातर चैनलों और अखबारों में जहाँ से भी और जैसे भी पैसा आता हो और उसके
लिए चाहे खबर बेचनी हो या पत्रकारीय मूल्यों-नैतिकता को ताक पर रखना हो या कोई
नियम-कानून तोड़ना पड़े, इसकी कोई परवाह या शर्म नहीं रह गई है.
इस मायने में जी-जिंदल प्रकरण पेड न्यूज की परिघटना का ही स्वाभाविक
विस्तार है और इसमें चौंकानेवाली कोई बात नहीं है और न ही यह कोई अचानक हुई
दुर्घटना है. जैसाकि वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ कहते रहे हैं कि बड़ी कारपोरेट पूंजी से संचालित न्यूज मीडिया ‘संरचनागत तौर पर झूठ बोलने के लिए बाध्य’ है. सच पूछिए तो न्यूज मीडिया के अंडरवर्ल्ड की मुनाफे की हवस और कारपोरेट और दूसरे निजी हितों को आगे बढ़ाने के दबाव ने संपादकों और पत्रकारों को भी हप्ता वसूलने वाले हिटमैन और शार्प शूटर्स में बदलना शुरू कर दिया है.
क्या नवीन जिंदल के ‘उल्टा स्टिंग’ आपरेशन में जी न्यूज के संपादक भी
ऐसे ही हिटमैन और शार्प शूटर की तरह नजर नहीं आते हैं? याद रखिये, वे न्यूज मीडिया
के अंडरवर्ल्ड के हिटमैन और शार्प शूटर भर हैं, असली डान नहीं हैं.
लेकिन
अंडरवर्ल्ड का खेल देखिये, डान के बारे में कोई बात नहीं हो रही है. क्या इसमें
आपको ‘षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी’ नहीं सुनाई दे रही है.
(''तहलका" के 15 नवम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी : )
1 टिप्पणी:
वर्तमान् परिघटना यह इंगित करती है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में नैतिक मूल्य रसातल में पहुँच गये हैं।
ज़ी न्यूज़ ने माँग थोड़ी कम रखी होती और जिंदल समूह राज़ी हो जाता तो शायद यह डील पक्की हो गयी होती। किसी को पता भी नहीं चलता और जिंदल समूह की नकारात्मक ख़बरें कूड़ेदान में होतीं और हम समूह के सकारात्मक समाचारों व विश्लेषणों से रू-ब-रू होते!
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