बुधवार, सितंबर 12, 2012

नव उदारवादी अर्थनीति की विकल्पहीनता ही अर्थव्यवस्था के संकट की जड़ में है

अर्थव्यवस्था के आधार को बढ़ाए और इससें गरीबों को हिस्सेदार बनाए बिना इस संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं है
 दूसरी किस्त 
लेकिन कोई भी अर्थव्यवस्था लंबे समय तक तेज रफ़्तार में नहीं दौड़ सकती है, अगर वह एक छोटे वर्ग और क्षेत्र तक सीमित है. उसे देशी-विदेशी सट्टेबाज वित्तीय पूंजी और राज्य पूंजी के स्टिमुलस के सहारे कुछ वर्षों तक तेज रफ़्तार में हांका जा सकता है, उसे किसानों और श्रमिकों के शोषण से हासिल मुनाफे से कुछ दिन और दौडाया जा सकता है लेकिन लंबी दौड़ में उसका हांफना और लडखडाना तय है.
भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट इस अर्थ में सिर्फ तात्कालिक या बाह्य कारणों (यूरोपीय देशों और वैश्विक आर्थिक-वित्तीय संकट) से नहीं है बल्कि यह बुनियादी तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनागत सीमाओं से पैदा हुआ है. भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनागत सीमा यह है कि यह मूलतः एक अर्द्ध सामंती-अर्द्ध पूंजीवादी और अर्द्ध औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था बनी हुई है और पिछले डेढ़-दो दशकों में विदेशी पूंजी पर उसकी निर्भरता और बढ़ी है.
यही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के तहत उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण को जोर-शोर से आगे बढ़ाया जा रहा है. ऐसे में, स्वाभाविक तौर जब तक वैश्विक अर्थव्यवस्था बूम पर थी, विदेशी पूंजी भारतीय अर्थव्यवस्था की ओर दौडी चली आ रही थी और वेतन आयोग से लेकर बैंक कर्जों की कृत्रिम स्टिमुलस के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था की संरचनागत कमजोरियां न सिर्फ दब-छुप गईं बल्कि उसकी तेज रफ़्तार ने कुछ समय के लिए यह भ्रम पैदा कर दिया कि भारतीय अर्थव्यवस्था ३ फीसदी की ‘हिंदू वृद्धि दर’ से बाहर निकल आई है और उच्च वृद्धि दर के स्थाई दौर में पहुँच गई है.
हालाँकि इस बीच भी अर्थव्यवस्था को कई झटके लगे लेकिन विदेशी पूंजी के नए डोज और कृत्रिम स्टिमुलस के जरिये वह बार-बार बाहर निकल आई. लेकिन इस बार संकट चौतरफा है. वैश्विक अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गई है और विदेशी पूंजी का प्रवाह धीमा हो गया है. यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ अमेरिकी-जापानी अर्थव्यवस्थाएं भी हांफ रही हैं.
दूसरी ओर, देश के अंदर विदेशी पूंजी के धीमे पड़ते प्रवाह और संरचनागत अंतर्विरोधों के उभर आने के कारण भारतीय अर्थव्यवस्था एक साथ ऊँची मुद्रास्फीति और ब्याज दर, रूपये की कीमत में तेज गिरावट, निर्यात में गिरावट और आयात में वृद्धि के कारण बढते व्यापार और चालू खाते के घाटे, गिरती औद्योगिक उत्पादन वृद्धि की दर, नए निवेश में कमी और राजकोषीय घाटे में वृद्धि जैसी तात्कालिक कठिनाइयों में फंस गई है.

इन सब कारणों से उसकी रफ़्तार भी मंद पड़ने लगी है. लेकिन जी.डी.पी की रफ़्तार में मंदी के कारण देशी-विदेशी बड़ी पूंजी देश से बाहर निकल रही और संकट और गहरा रहा है. इस तरह अर्थव्यवस्था एक तरह के दुष्चक्र में फंसती हुई दिख रही है. रही-सही कसर इस साल मॉनसून की बारिश कम होने और सूखे की आशंकाओं ने पूरी कर दी है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि स्थिति चिंताजनक है. संकट दिन पर दिन गहरा रहा है. सबसे अधिक मुश्किल उन गरीबों, बेरोजगारों और श्रमिकों के लिए है जो अर्थव्यवस्था के बूम के दिनों में भी हाशिए पर थे और अब जब वह संकट में है तो उसकी असली कीमत उन्हें ही चुकानी पड़ रही है.
पिछले तीन वर्षों में औद्योगिक मंदी और आर्थिक संकट के बहाने लाखों श्रमिकों की छंटनी हो चुकी है. तनख्वाहें नहीं बढ़ रही हैं. रोजगार के नए अवसर सूख से गए हैं. यही नहीं, राजकोषीय घाटा कम करने के नामपर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में वृद्धि से लेकर बिजली-उर्वरक आदि की कीमतों में भारी वृद्धि की जा रही है. इसके अलावा खर्चों में कटौती के नामपर उसका बोझ कल्याणकारी योजनाओं के बजट पर डाला जा रहा है.
दूसरी ओर, जिन नीतियों के कारण यह संकट आया है, उन्हीं में इसका हल ढूंढा जा रहा है. हैरानी की बात नहीं है कि यू.पी.ए सरकार इस संकट से निपटने के लिए अर्थव्यवस्था के बचे-खुचे क्षेत्रों को भी विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को और अधिक रियायतें देने की वकालत कर रही है. उसे लगता है कि इन उपायों से देशी-विदेशी निवेशकों की “एनिमल इंस्टिंक्ट” को जगाया और अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा सकता है.

यही कारण है कि नए वित्त मंत्री का सबसे अधिक जोर खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने से लेकर विदेशी पूंजी को अधिक से अधिक रियायतें (टैक्स से बचने पर रोक लगाने के लिए तैयार गार को स्थगित करने से लेकर वोडाफोन पर टैक्स माफ करने तक) देने पर है.

लेकिन क्या इससे अर्थव्यवस्था का संकट खत्म हो जाएगा? बिलकुल नहीं. संकट कुछ समय के लिए टल सकता है लेकिन खत्म नहीं होगा. हालिया अनुभवों से साफ़ है कि इन फैसलों से भले ही कुछ दिन के लिए जी.डी.पी में एक बार फिर कृत्रिम छलांग दिखे लेकिन जल्दी ही संकट वापस लौट आएगा क्योंकि अर्थव्यवस्था के आधार को बढ़ाए और इससें गरीबों को हिस्सेदार बनाए बिना इस संकट का कोई स्थाई समाधान नहीं है.
कहने की जरूरत नहीं है कि संकट के समाधान के लिए सबसे पहले नव उदारवादी आर्थिक नीतियों से परे देखना होगा. लेकिन क्या इसके लिए यू.पी.ए सरकार तैयार है? अफसोस की बात यह है कि विपक्ष खासकर सत्ता की दावेदारी कर रही एन.डी.ए के पास भी इन नव उदारवादी नीतियों का कोई विकल्प नहीं है.
क्या अब भी कहना पड़ेगा कि यह विकल्पहीनता ही अर्थव्यवस्था के संकट की जड़ में है?


('सामयिक वार्ता' के सितम्बर अंक में प्रकाशित लेख की पहली किस्त) 

1 टिप्पणी:

स्वप्नेश चौहान ने कहा…

वाकई एक और कृत्रिम उछाल का प्रबंध हमारी लोकतांत्रिक सरकार ने कर दिया...