शनिवार, सितंबर 01, 2012

लोकतंत्र के लिए खतरा हैं मीडिया की विफलताएं

कैसे मानेसर से दिल्ली और न्यूज मीडिया की ज्यादा नजदीकी उसके मारुति और जिला प्रशासन से नजदीकी का कारण बन गई
 
तीसरी और आखिरी किस्त 
 
लेकिन अगर थोड़ी देर के लिए असम के बोडो इलाके में फैली सांप्रदायिक हिंसा की असंतोषजनक कवरेज का कारण उसका दिल्ली से दूर और दुर्गम होना मान भी लिया जाए तो दिल्ली से सटे मानेसर में मारुति की कार फैक्ट्री में श्रमिक असंतोष के बाद भडकी हिंसा में एक अधिकारी की मौत और उसके बाद श्रमिकों के दमन-उत्पीडन की लगभग एकतरफा, आधी-अधूरी और कुछ मामलों में फर्जी रिपोर्टिंग का कारण क्या है?
इक्का-दुक्का रिपोर्टों को छोड़ दिया जाए तो सभी चैनल/अखबार मारुति के श्रमिकों और यूनियन के खलनायकीकरण में लगे रहे? सबका ध्यान १८ जुलाई की हिंसा की घटना पर था लेकिन किसी की दिलचस्पी उसके पीछे के कारणों को जानने में नहीं थी.
ऐसा लगा कि मानेसर और मारुति से दिल्ली और चैनलों/अखबारों की ज्यादा नजदीकी उनके मारुति और जिला प्रशासन से नजदीकी का कारण बन गई और वे उनके प्रवक्ता की तरह रिपोर्ट करते दिखाई दिए.

क्या यह सिर्फ संयोग है या फिर सोची-समझी संपादकीय नीति का नतीजा? आखिर दिल्ली और चैनलों/अखबारों के दफ्तरों के आसपास लाखों मजदूर छोटी-बड़ी फैक्ट्रियों में काम करते हैं लेकिन क्यों किसी चैनल/अखबार में श्रमिक बीट कवर करनेवाला रिपोर्टर नहीं है और न श्रमिक मुद्दों की नियमित रिपोर्टिंग होती है? गोया वे इस देश के नागरिक ही न हों.                

आखिर न्यूज चैनलों से उनके दर्शकों की क्या अपेक्षाएं होती हैं? जाहिर है कि उनकी पहली और सबसे बड़ी अपेक्षा यह होती है कि न्यूज चैनल उन्हें देश-दुनिया के महत्वपूर्ण समाचारों से अवगत कराएँगे. खासकर वे जानना चाहते हैं कि देश के अंदर राष्ट्रीय जनजीवन और राजनीति, समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति की दुनिया में क्या महत्वपूर्ण घटा या चल रहा है?
वे यह भी जानना चाहते हैं कि जो कुछ घटा या चल रहा है, उसके पीछे क्या कारण हैं और ऐसा क्यों हुआ? उनकी न्यूज चैनलों से यह भी अपेक्षा रहती है कि वे महत्वपूर्ण घटनाओं/मुद्दों पर समाज में मौजूद विभिन्न विचारों से भी अवगत कराएँ ताकि वे उसे व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझ सकें.
इसके साथ ही दर्शकों की यह भी अपेक्षा रहती है कि न्यूज चैनल एक वाचडाग की बतौर उनके हितों के पहरेदारी करें और उन खबरों को सामने लाएं जिन्हें ताकतवर और सत्ता में बैठे लोग दबाने-छुपाने की कोशिश कर रहे हैं. इस तरह वे उन ताकतवर-प्रभावशाली लोगों की जवाबदेही सुनिश्चित करें.

यही नहीं, न्यूज चैनलों का दर्शक यह भी चाहता है कि चैनल उन कमजोर और दबे-कुचले लोगों की आवाज़ बनें जिनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है. लेकिन इन सभी अपेक्षाओं के मूल में है कि दर्शक खुद को जागरूक रखना चाहता है ताकि आगत संकटों/समस्याओं से निपट सके, अपने को बदलती हुई परिस्थितियों के अनुकूल एडजस्ट कर सके और संभावनाओं का इस्तेमाल कर सके.

लेकिन क्या भारतीय न्यूज मीडिया इन अपेक्षाओं को पूरा कर पा रहा है? अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि असम की हिंसा से लेकर मानेसर की मारुति फैक्टरी में श्रमिक असंतोष को कवर करने तक के हालिया प्रसंगों में न्यूज मीडिया की विफलता साफ़ दिखाई पड़ी है. चिंता की बात यह है कि उसकी यह विफलता भारतीय समाज और लोकतंत्र को बहुत भारी पड़ रही है.
यही नहीं, उसकी खुद की साख और विश्वसनीयता भी दांव पर है. क्या न्यूज मीडिया इन सवालों और मुद्दों पर आत्मावलोकन और आत्मालोचन करने और भारतीय समाज के महत्वपूर्ण हिस्सों- मुस्लिम समुदाय, उत्तर पूर्व और श्रमिक समुदाय से अपनी बढ़ती दूरी और संवादहीनता को खत्म करने के लिए ठोस पहल करेगा?
असम से लेकर मुंबई तक और बंगलूर से लेकर मानेसर तक की घटनाएँ मीडिया के लिए भी चेतावनी की घंटी हैं. लेकिन यह सिर्फ न्यूज मीडिया और उनके संचालकों के लिए ही चेतावनी नहीं है बल्कि उन आम दर्शकों/पाठकों से लेकर नागरिक समाज के लिए भी चेतावनी की घंटी है जो एक मुक्त, सतर्क, सजग और जिम्मेदार न्यूज मीडिया को एक गतिशील और जवाबदेह लोकतंत्र के लिए अनिवार्य शर्त मानते हैं.

क्या कोई लोकतंत्र बिना सर्व सूचित नागरिकों के बिना चल सकता है? क्या नागरिक समाज और न्यूज मीडिया के दर्शकों/पाठकों को अपने चैनलों/अखबारों से यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि आपने हमें असम से लेकर मानेसर तक और मुंबई से लेकर बंगलूर तक के बारे में अँधेरे में क्यों रखा?

समाप्त 

(इस लम्बी टिप्पणी का संक्षिप्त और सम्पादित/संशोधित अंश 'जनसत्ता' के सम्पादकीय पृष्ठ पर 29 जून को प्रकाशित)

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