शुक्रवार, सितंबर 21, 2012

आर्थिक सुधारों की निरंतरता और स्थायित्व ने लोकतंत्र को बेमानी बना दिया है

‘झटका उपचार’ का सबसे अधिक झटका गरीबों, किसानों, कमजोर वर्गों, श्रमिकों और निम्न मध्यवर्ग को झेलना पड़ता है
 
दूसरी और आखिरी किस्त 
यही कारण है कि आर्थिक सुधारों की चैम्पियन नरसिम्हा राव सरकार को लोगों ने १९९५ के आम चुनावों में नकार दिया लेकिन उसके बाद सत्ता में आई संयुक्त मोर्चा सरकार ने न सिर्फ उन्हीं नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया बल्कि तत्कालीन वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने कारपोरेट और अमीरों को खुश करनेवाला ‘ड्रीम बजट’ पेश किया था.
लेकिन ‘ड्रीम बजट’ के बावजूद संयुक्त मोर्चा को आम लोगों ने चुनावों में सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया. इसके बाद आई भाजपा के नेतृत्ववाली एन.डी.ए सरकार ने और जोरशोर से नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया. वाजपेयी सरकार ने पहली बार विनिवेश मंत्रालय और उसके लिए मंत्री नियुक्त किया और सरकारी कंपनियों को धड़ल्ले से बेचा गया.
इस दौरान नीति-निर्माण में कार्पोरेट्स की सीधी और बढ़ती भूमिका का प्रमाण था- प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद जिसमें देश के सभी बड़े उद्योगपति मौजूद थे और वे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में सुधारों को आगे बढ़ाने लिए रोडमैप बनाते और लागू करते दिखे.

इन आर्थिक सुधारों के समर्थकों और गुलाबी कारपोरेट मीडिया ने एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में “इंडिया शाइनिंग” के दावे करते हुए इन सुधारों की कामयाबियों का खूब राग अलापा लेकिन आम चुनावों में लोगों ने उसे जोरदार झटका दिया और सत्ता से बाहर कर दिया. इसके बावजूद ‘भारतीय जनतंत्र’ का कमाल देखिये कि इस राजनीतिक परिवर्तन का अर्थनीति पर कोई असर नहीं पड़ा.

अर्थनीति, राजनीति से स्वतंत्र बनी रही और यू.पी.ए की नई सरकार भी इन्हीं नव उदारवादी सुधारों को आगे बढ़ाने में जुटी रही जिसके खिलाफ लोगों ने जनादेश दिया था. यहाँ तक कि वामपंथी पार्टियों के समर्थन पर टिके होने का भी कोई खास असर नहीं पड़ा.
उल्टे इन नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की सैद्धांतिक-राजनीतिक विरोधी माकपा पर यू.पी.ए खासकर कांग्रेस के साथ का ऐसा असर हुआ कि पश्चिम बंगाल में उसने उन्हीं नीतियों को जोरशोर से आगे बढ़ाना शुरू कर दिया और आखिकार उसकी राजनीतिक कीमत चुकाई. कहने की जरूरत नहीं है कि मुख्यधारा के सभी राजनीतिक दलों और गठबंधनों में नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को लेकर कमोबेश एक आम सहमति बन चुकी है.                               
सच पूछिए तो इसने लोकतंत्र को बेमानी बना दिया है क्योंकि विभिन्न सरकारों और उनकी आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ लगातार जनादेश के बावजूद आर्थिक नीतियों पर कोई फर्क नहीं पड़ता है.

यहाँ तक कि पिछले कुछ महीनों में यूरोप में गंभीर आर्थिक संकट में फंसे देशों- ग्रीस, इटली और स्पेन आदि में लोगों के खुले विरोध के बावजूद जिस तरह से नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को उनके गले में उतारा जा रहा है, उससे साफ़ हो गया है कि पूंजीवादी उदार लोकतंत्रों की असलियत क्या है. असल में, नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में सबसे अधिक जोर अर्थनीति को राजनीति के नियंत्रण से बाहर रखने पर दिया जाता है.

यही कारण है कि अधिकांश देशों में सरकारें चाहे जिस रंग की हों लेकिन आर्थिक नीतियों को बनाने और सुधारों को आगे बढ़ाने का जिम्मा राजनेताओं के बजाय विश्व बैंक-मुद्रा कोष के पूर्व अधिकारियों/अर्थशास्त्रियों और अमेरिकी विश्वविद्यालयों में पढ़े खासकर मिल्टन फ्रीडमैन के शिष्यों के हाथ में हैं.
यह सिर्फ संयोग नहीं है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से लेकर योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया तक विश्व बैंक-मुद्रा कोष के साथ काम कर चुके हैं और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के सबसे बड़े पैरोकारों में हैं. जाहिर है कि वे ‘झटका उपचार’ की ‘खूबियों’ से भली-भांति परिचित हैं.
यह सही है कि सरकार पर आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए बड़ी देशी-विदेशी का जबरदस्त दबाव था. लेकिन यू.पी.ए सरकार ने खूब सोच-समझकर एक झटके में ताबड़तोड़ ये फैसले किये हैं. इससे उसे न सिर्फ राष्ट्रीय राजनीति का एजेंडा बदलने का मौका मिल गया है बल्कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी को खुश करने के साथ फिर से उसका समर्थन और विश्वास जीतने का मौका मिल गया है.

यही नहीं, ताबड़तोड़ अंदाज़ में एक साथ कई फैसलों के कारण लोगों के लिए उनके गहरे निहितार्थों को समझना और उसपर प्रतिक्रिया देना भी मुश्किल हो रहा है. लोगों को डराया भी जा रहा है कि ये फैसले नहीं होते तो देश गंभीर आर्थिक संकट में फंस सकता था. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया के बयान पर गौर कीजिए कि अगर ये फैसले नहीं होते तो अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग गिरा देती और उससे देश के बड़े आर्थिक संकट में फंसने का खतरा पैदा हो जाता.

नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में ‘झटका उपचार’ रणनीति की यह एक और खास बात है कि वह आमतौर पर आर्थिक या राजनीतिक संकट को अवसर की तरह इस्तेमाल करती है. भले ही वह संकट खुद उन नीतियों के कारण आया हो लेकिन उस संकट से निपटने के नामपर नव उदारवादी आर्थिक सुधारों की और बड़ी और कड़वी खुराक को अनिवार्य बताकर लोगों के गले में उतारने में इसका कोई जवाब नहीं है.

एक बात और साफ़ है कि बिना किसी अपवाद के ‘झटका उपचार’ का सबसे अधिक झटका गरीबों, किसानों, कमजोर वर्गों, श्रमिकों और निम्न मध्यवर्ग को झेलना पड़ता है जबकि उसका सबसे अधिक फायदा बड़ी पूंजी, कार्पोरेट्स और अमीरों को होता है. चिली से लेकर रूस तक के उदाहरण इसकी गवाही देते हैं. यू.पी.ए सरकार के ताजा फैसले भी इसके अपवाद नहीं हैं.

समाप्त

('जनसत्ता' में 18 सितम्बर को प्रकाशित लेख की दूसरी और आखिरी किस्त)

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