मंगलवार, सितंबर 18, 2012

बड़ी विदेशी पूंजी को खुश करने के फेर में दूरगामी नतीजों को अनदेखा कर रही है यू.पी.ए सरकार


आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने के लिए गए ताजा फैसलों के मायने
   

यू.पी.ए सरकार जल्दी में है. उसकी घबराहट भी किसी से छुपी नहीं है. दोहराने की जरूरत नहीं है कि मनमोहन सिंह सरकार दोहरे दबाव में है. एक ओर हर दिन घोटालों और भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में नए खुलासों से घिरी सरकार पर विपक्ष के हमले तेज हो रहे हैं, सरकार की गिरती साख और महंगाई से लेकर अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में उसकी नाकामी के कारण यू.पी.ए के सहयोगी दल बेचैन हो रहे हैं.

दूसरी ओर, देशी-विदेशी बड़ी पूंजी, कारपोरेट समूह, वैश्विक रेटिंग एजेंसियां और मीडिया सरकार पर कड़े आर्थिक फैसले लेने और नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाने में नाकाम रहने का आरोप लगा रहे हैं. इसी जल्दबाजी और घबराहट में उसने एक झटके में ऐसे कई बड़े और विवादस्पद आर्थिक फैसले किये हैं जिनका मकसद देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों को खुश करना और सरकार पर लग रहे “नीतिगत लकवे” (पॉलिसी पैरालिसिस) के आरोपों को धोना है.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि डीजल की कीमतों में भारी वृद्धि और रसोई गैस के सब्सिडीकृत सिलेंडरों की संख्या छह तक सीमित करने से लेकर मल्टी ब्रांड खुदरा व्यापार में ५१ फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई), नागरिक उड्डयन क्षेत्र में ४९ प्रतिशत एफ.डी.आई के साथ विदेशी एयरलाइंस को भी निवेश की इजाजत, ब्राडकास्टिंग क्षेत्र में डी.टी.एच आदि में ७४ फीसदी एफ.डी.आई और पावर ट्रेडिंग में ४९ फीसदी एफ.डी.आई के अलावा सार्वजनिक क्षेत्र की चार प्रमुख कंपनियों में विनिवेश का एलान करके यू.पी.ए सरकार ने सबको चौंका दिया है.
याद रहे कि कुछ सप्ताह पहले वित्त मंत्रालय के पूर्व आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने वाशिंगटन में कहा था कि मौजूदा राजनीतिक स्थिति में आर्थिक सुधारों के अगले दौर को आगे बढ़ा पाना संभव नहीं है और अब २०१४ के आम चुनावों के बाद नई सरकार ही इन आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ा पाएगी. पिछले कुछ सप्ताहों में यू.पी.ए सरकार का राजनीतिक संकट जिस तरह से बढ़ा है और २०१४ के बजाय २०१३ में ही आम चुनाव होने की चर्चाओं ने जोर पकड़ा है, उसे देखते हुए कांग्रेस नेतृत्व पर देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों का जबरदस्त दबाव भी था.
इसी दबाव, जल्दबाजी और घबराहट में कांग्रेस नेतृत्व ने यह दाँव चला है. ऐसा लगता है कि कांग्रेस के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ने यह तय किया कि अगले आम चुनावों में जाने से पहले अनुकूल माहौल बनाने के लिए देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कारपोरेट समूहों को खुश करना और उनका विश्वास और समर्थन हासिल करना ज्यादा जरूरी है.

आश्चर्य की बात नहीं है कि कल तक यू.पी.ए सरकार पर “नीतिगत लकवे” का आरोप लगा रहे और उसकी खुली आलोचना कर रहे बड़े कारपोरेट समूह और सी.आई.आई-फिक्की-एसोचैम जैसे बड़े औद्योगिक-वाणिज्यिक लाबीइंग संगठन और गुलाबी आर्थिक अखबार और मीडिया सरकार के गुणगान में लग गए हैं. शेयर बाजार बमबम है और मुंबई शेयर बाजार का संवेदी सूचकांक एक झटके में ४४३ अंक चढ़ गया.

कहा जा रहा है कि बाजार में फीलगुड फैक्टर लौट आया है. योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया का दावा है कि इन कड़े और जरूरी आर्थिक फैसलों से सरकार की आर्थिक साख बेहतर होगी और अब विदेशी रेटिंग एजेंसियां भारत की रेटिंग को नहीं गिराएंगी. इससे पटरी से उतरती भारतीय अर्थव्यवस्था को सँभालने में मदद मिलेगी.
अहलुवालिया के बयान से साफ़ है कि यू.पी.ए सरकार के ताजा आर्थिक फैसलों का मुख्य उद्देश्य देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और बाजार को खुश करना और उसके जरिये बाजार में फीलगुड का माहौल पैदा करना है. जाहिर है कि सरकार को उम्मीद इसके साथ ही सरकार के राजनीतिक मैनेजरों का आकलन है कि एक झटके में ‘चौंकाने और बोलती बंद’ (शॉक एंड आव) करनेवाले अंदाज़ में लिए गए इन फैसलों से एक ओर जहाँ राष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडे से भ्रष्टाचार और घोटालों जैसे नकारात्मक मुद्दों को हटाने में मदद मिलेगी, वहीं एक ही बार में कई और बड़े फैसलों के एलान से लोगों को भ्रम में डालना आसान हो जाता है.

इससे सहयोगी दलों से लेकर विपक्ष तक को संभलने का मौका नहीं मिलता है. इसके साथ ही सरकार के आर्थिक मैनेजरों को यह भी उम्मीद है कि इन फैसलों से संकट में फंसी अर्थव्यवस्था में नई चमक आ सकती है और उसका राजनीतिक फायदा सरकार को ही मिलेगा.  

उल्लेखनीय है कि चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही (अप्रैल-जून’१२) में जी.डी.पी की वृद्धि दर मात्र ५.५ प्रतिशत दर्ज की गई है जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि में यह ८ फीसदी थी. इसी तरह औद्योगिक वृद्धि की दर जुलाई महीने में लगभग नगण्य ०.१ फीसदी रही. यही नहीं, पिछले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई) में औद्योगिक वृद्धि दर मात्र ०.१ फीसदी रही जिसका अर्थ यह है कि औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि ठहर गई है.

उधर, निर्यात में गिरावट जारी है. महंगाई काबू में नहीं आ रही है और रूपये पर दबाव बना हुआ है. नया निवेश नहीं हो रहा है और ज्यादातर प्रोजेक्ट्स रुक से गए हैं. साफ़ है कि अर्थव्यवस्था गहरे संकट में है. इसका असर रोजगार पर भी दिखने लगा है. रोजगार के नए अवसर पैदा नहीं हो रहे हैं और मौजूदा नौकरियों पर भी छंटनी की तलवार चलने लगी है.
लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि सब्सिडी में कटौती के जरिये वित्तीय घाटे को कम करने और आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले इन फैसलों से क्या अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट दूर हो जाएगा? यह यू.पी.ए सरकार की सबसे बड़ी खुशफहमी है.

असल में, भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा संकट की सबसे बड़ी वजह निवेश में आई गिरावट है. निवेश में गिरावट के कारण मांग पर असर पड़ा है और वृद्धि दर में गिर रही है. निवेश इसलिए नहीं बढ़ रहा है क्योंकि वैश्विक आर्थिक संकट समेत कई कारणों से देशी-विदेशी निजी पूंजी निवेश से हिचक रही है जबकि सरकार वित्तीय घाटे को कम करने के दबाव में निवेश से कन्नी काट रही है.

लेकिन अर्थव्यवस्था को मौजूदा संकट और गतिरोध से निकालने के लिए नया निवेश चाहिए खासकर इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र में. मुश्किल यह है कि यू.पी.ए सरकार अभी भी अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के लिए देशी-विदेशी निजी बड़ी पूंजी पर भरोसा कर रही है. लेकिन निजी पूंजी की मांग है कि निवेश बढ़ाने के लिए न सिर्फ ब्याज दरों में कटौती की जाए बल्कि उसे और रियायतें और छूट दी जाए.

आश्चर्य नहीं कि बड़ी निजी पूंजी को खुश करने के लिए यू.पी.ए सरकार ने पिछले कुछ दिनों में टैक्स से बचने पर रोक लगाने के लिए लाये गए ‘गार’ नियमों से लेकर पीछे से टैक्स लगाने (वोडाफोन प्रकरण) जैसे कानूनी संशोधन को ठंढे बस्ते में डालने का फैसला किया है. इसी क्रम में बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स की मांग पर अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण क्षेत्रों में एफ.डी.आई की इजाजत देने का फैसला भी किया गया है.
लेकिन इन सभी फैसलों खासकर अर्थव्यवस्था के अहम क्षेत्रों में विदेशी पूंजी को इजाजत देने के फैसले का मतलब यह नहीं है कि इन क्षेत्रों में विदेशी कम्पनियाँ अरबों डालर लेकर दरवाजे पर खड़ी हैं और इजाजत मिलते ही निवेश शुरू कर देंगी. तथ्य यह है कि इन सभी क्षेत्रों में विदेशी निवेश बहुत हद तक वैश्विक आर्थिक माहौल पर निर्भर करेगा.

उदाहरण के लिए, उड्डयन क्षेत्र में मौजूदा हालात में जब विदेशी एयरलाइंस की भी स्थिति नाजुक है, इस बात की कम उम्मीद है कि कोई बड़ा निवेश तुरंत आएगा. आखिर अर्थव्यवस्था के जिन क्षेत्रों में बहुत पहले से विदेशी निवेश की इजाजत मिली हुई है, वहां इस समय विदेशी निवेश क्यों नहीं आ रहा है. कारण बहुत स्पष्ट है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता और गहराते संकट के बीच बड़ी निजी पूंजी सुरक्षित ठिकाने की तलाश में है.

साफ़ है कि इन फैसलों से तात्कालिक तौर पर अर्थव्यवस्था को कोई वास्तविक लाभ नहीं होने जा रहा है और न ही अर्थव्यवस्था का संकट दूर होने जा रहा है. अलबत्ता इन फैसलों से कुछ दिनों के लिए शेयर बाजार में सटोरियों को खेलने और सरकार को फीलगुड का माहौल बनाने का मौका जरूर मिल जाएगा.

इससे चौतरफा दबावों से घिरी यू.पी.ए सरकार को थोड़ा सांस लेने का अवसर भी मिल जाएगा क्योंकि वैश्विक रेटिंग एजेंसियों भारत की रेटिंग में और कटौती नहीं करेंगी. लेकिन सवाल यह है कि देश पर दूरगामी असर डालनेवाले बड़े आर्थिक फैसले क्या विदेशी रेटिंग एजेंसियों की शर्तों को पूरा और उन्हें खुश करने के लिए होंगे?
उससे भी बड़ा सवाल यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ानेवाले इन फैसलों का अर्थव्यवस्था और आमलोगों पर दूरगामी असर क्या होगा? सरकार का दावा है कि इन फैसलों से किसानों और उपभोक्ताओं को फायदा होगा, रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे और आर्थिक विकास की दर को तेज करने में मदद मिलेगी.

कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार के इन सभी दावों में बड़े झोल हैं. उदाहरण के लिए, खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई अगर कृषि से लेकर महंगाई तक सभी मर्जों का इलाज है तो उसकी इजाजत केवल १० लाख से अधिक की आबादी वाले शहरों के लिए ही क्यों दी जा रही है? उसमें सौ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत क्यों नहीं दी गई? उसपर कई शर्तें क्यों लगाईं गई हैं?

साफ़ है कि मनमोहन सिंह सरकार को भी मालूम है कि खुदरा व्यापार में एफ.डी.आई का सीधा असर मौजूदा खुदरा व्यापारियों पर पड़ेगा और वालमार्ट जैसी बड़ी विदेशी कंपनियों से मुकाबले में देशी खुदरा व्यापारियों के बड़े हिस्से की छोटी और मंझोली दुकाने बंद हो जायेगी.

याद रहे कि खुदरा व्यापार क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था का कृषि के बाद सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जिससे सबसे अधिक लोगों की रोजी-रोटी चल रही है. लेकिन देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के दबाव में फैसले कर रही सरकार को इन नतीजों पर गौर करने का वक्त कहाँ है?

('दैनिक जागरण' के राष्ट्रीय संस्करण में 17 सितम्बर को आप-एड पृष्ठ पर प्रकाशित टिप्पणी)  

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