मंगलवार, सितंबर 25, 2012

कुछ लाख अमीरों/कार्पोरेट्स के फायदे के लिए करोड़ों को संकट में डालने के खतरे

खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने के निहितार्थ


यू.पी.ए सरकार ने नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी अटूट निष्ठा को फिर से साबित करने का फैसला कर लिया है. उसने एक झटके में सब्सिडी कटौती, सरकारी कंपनियों के विनिवेश और अर्थव्यवस्था के संवेदनशील क्षेत्रों को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान करके आर्थिक सुधारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर मुहर लगा दी है.

खासकर गठबंधन सरकार के सबसे प्रमुख सहयोगी दल तृणमूल कांग्रेस और लगभग समूचे विपक्ष के खुले विरोध के बावजूद सरकार ने जिस तरह से खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का एलान किया है, उससे साफ़ हो गया है कि कांग्रेस के शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व ने यह तय कर लिया है कि मौजूदा राजनीतिक संकट से बाहर निकलने के लिए देशी-विदेशी बड़ी पूंजी और कार्पोरेट्स को खुश करना और उसका समर्थन और विश्वास हासिल करना सबसे ज्यादा जरूरी है.

हालाँकि सरकार का दावा है कि खुदरा व्यापार को विदेशी पूंजी के लिए खोलने का फैसला इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों से बातचीत और विचार-विमर्श और उनकी चिंताओं को पूरी तरह ध्यान में रखते हुए लिया गया है. देशी खुदरा व्यापारियों और उनके हितों की सुरक्षा के पर्याप्त प्रावधान किये गए हैं.
यही नहीं, उद्योग और वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा के मुताबिक, इस फैसले से किसानों को उनके उत्पादों की अधिक और वाजिब कीमत मिलेगी, उपभोक्ताओं को सस्ता सामान मिलेगा और युवाओं को बड़े पैमाने पर रोजगार मिलेगा. उनके दावों पर भरोसा करें तो देश में कृषि संकट से लेकर महंगाई और बेरोजगारी जैसी बड़ी और मुश्किल समस्याओं का हल खुदरा व्यापार में बड़ी विदेशी पूंजी खासकर वालमार्ट, टेस्को, कार्फूर और मेट्रो जैसी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आने से निकलेगा.
लेकिन तथ्य कुछ और ही कहानी कहते हैं. दुनिया भर में खुदरा व्यापार में बड़ी और संगठित कंपनियों के प्रवेश के अनुभवों और भारत में खुदरा व्यापार की विशेष स्थिति को ध्यान में रखें तो यू.पी.ए सरकार का यह फैसला देश की बड़ी आबादी के लिए घातक और विनाशकारी साबित हो सकता है.
यह ठीक है कि इस फैसले से आबादी के एक बहुत छोटे से हिस्से खासकर बड़े कारपोरेट समूहों, अमीरों, उच्च मध्यवर्ग और बड़े किसानों को फायदा होगा. निश्चय ही, बड़ी खुदरा विदेशी कंपनियों के विशाल स्टोर्स में खरीददारी का आकर्षण मध्यवर्गीय उपभोक्ताओं को ललचा रहा है और इनमें कुछ लाख युवाओं को रोजगार भी मिलेगा. यह भी सही है कि शुरू में बड़ी विदेशी कंपनियों के साथ आनेवाले निवेश के कारण अर्थव्यवस्था में उछाल भी दिख सकती है.

लेकिन असल सवाल यह है कि यह किस कीमत पर होगा? इसमें कोई दो राय नहीं है कि बड़ी और संगठित देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों की जबरदस्त आर्थिक ताकत, नेटवर्क और मार्केटिंग के आगे छोटे-मंझोले और यहाँ तक कि बड़े देशी खुदरा व्यापारियों का भी प्रतियोगिता में लंबे समय तक टिकना बहुत मुश्किल होगा.
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों के पास अथाह पूंजी है और इस कारण वे छोटे-मंझोले प्रतियोगियों को बाजार से बाहर करने के लिए लंबे समय तक घाटा खाकर भी सस्ता बेच सकते हैं. यह सिर्फ कोरी आशंका नहीं है बल्कि दुनिया के कई देशों और यहाँ तक कि खुद अमेरिका के उदाहरण से इसकी पुष्टि होती है जहाँ कई शोधों से यह तथ्य सामने आया है कि जिन भी इलाकों में बड़ी खुदरा कंपनियों के स्टोर्स खुले, वहां बड़े पैमाने पर छोटे स्टोर्स बंद हुए.
भारत के लिए इसके गंभीर मायने हैं जहाँ कृषि के बाद खुदरा व्यापार में सबसे ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है. एक मोटे अनुमान के मुताबिक, देश में कोई १.४ करोड़ खुदरा दूकानें हैं जिनमें कोई चार करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार मिला हुआ है. अगर इनमें से हर व्यक्ति के परिवार को औसतन चार से पांच का माना जाए तो कोई १६ से २० करोड़ लोगों की आजीविका इन छोटी-मंझोली किराना दुकानों के भरोसे है.

असल में, ऐसे खुदरा व्यापार में ऐसे लोगों की संख्या भी अच्छी-खासी है जिन्हें कोई और रोजगार-धंधा नहीं मिला और वे घर के बाहर छोटी दूकान या रेहडी लगाकर आजीविका कमाने लगते हैं. यही कारण है कि छोटी खुदरा दूकानों के घनत्व के मामले में भारत दुनिया में अव्वल है और यहाँ प्रति एक हजार की आबादी पर ११ छोटी किराना दुकानें हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि बड़ी विदेशी खुदरा कंपनियों और उनके स्टोर्स से सबसे अधिक खतरा इन्हीं खुदरा व्यापारियों को ही है जिनके पास बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों और उनके आक्रामक मार्केटिंग से निपटने की क्षमता और तैयारी बिलकुल नहीं है. यह सही है कि सभी छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारी एकबारगी नहीं खत्म हो जाएंगे और उनका एक छोटा सा हिस्सा फिर भी बचा रहेगा लेकिन इसके साथ ही यह भी तय है कि उनका एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाएगा.
मान लीजिए कि छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारियों का ५० फीसदी भी मुकाबले में बाहर हो गया तो इसका मतलब होगा कोई दो करोड़ लोगों की आजीविका और उनपर निर्भर ८ करोड़ लोगों की रोजी-रोटी पर संकट क्योंकि संगठित और बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कम्पनियों में कुछ लाख लोगों को तो रोजगार मिल सकता है लेकिन सभी दो करोड लोगों के उसमें एडजस्ट होने की गुंजाइश नहीं है.
सवाल यह है कि क्या सरकार के पास उनके लिए रोजगार और रोजी-रोटी का कोई वैकल्पिक उपाय है? याद रहे कि कृषि पर पहले से ही ६० फीसदी आबादी निर्भर है और उसका बड़ा हिस्सा उससे बाहर निकलने के मौके की तलाश में है. दूसरी ओर, उद्योगों में भी रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं या बहुत नगण्य वृद्धि हुई है.

यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में तेज आर्थिक वृद्धि के बावजूद ‘रोजगारविहीन विकास’ (जाबलेस ग्रोथ) बहुत बड़ा मुद्दा बन गई है. ऐसे में, खुदरा व्यापार का क्षेत्र जो कम निवेश और साधनों के बावजूद आजीविका कमाने का अवसर देता है, उसे बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले करके करोड़ों लोगों की रोजी-रोटी दांव पर लगाने का आर्थिक और सामाजिक तर्क समझ से बाहर है.

इसी तरह किसानों और उपभोक्ताओं को फायदे की बात भी एक मिथ है जिसे तथ्य की तरह प्रचारित किया जा रहा है. अगर बड़ी खुदरा कंपनियों से किसानों को इतना ही फायदा होता तो खुद अमेरिका और यूरोप में सरकारों को किसानों को अरबों डालर की सब्सिडी क्यों देनी पड़ रही है?
सच्चाई यह है कि बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों से भारतीय किसान खासकर छोटे-मंझोले किसान मोलतोल नहीं कर पायेंगे और दूसरे, मौजूदा बिचौलियों की जगह सूट-बूट और टाई वाले बिचौलिए आ जायेंगे. ऐसे में, इस बात की बहुत कम उम्मीद है कि किसानों को उनकी फसल और उत्पादों की उचित कीमत मिल पाएगी.
इसी तरह उपभोक्ताओं को भी शुरू में आकर्षित करने के लिए बड़ी कम्पनियाँ सस्ता सामान जरूर बेच सकती हैं लेकिन जब छोटे-मंझोले खुदरा व्यापारी उनके मुकाबले में बाहर हो जाएंगे और बड़ी कंपनियों का एकाधिकार सा हो जाएगा, उस समय उन्हें उपभोक्ताओं का खून चूसने में जरा भी देर नहीं लगेगी.

सरकार का दावा है कि बड़ी देशी-विदेशी खुदरा कंपनियों के गैर-प्रतियोगी तौर-तरीकों पर प्रतिस्पर्द्धा आयोग निगाह रखेगा. लेकिन हकीकत सभी जानते हैं कि बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के आर्थिक-राजनीतिक रसूख के आगे नियामक संस्थाएं किस तरह से ‘बुरा न देखने-सुनने-बोलने वाले बन्दर’ बन जाती हैं.

इसी तरह सरकार का यह दावा भी बेमानी है कि खुदरा व्यापार में आनेवाली बड़ी विदेशी कम्पनियाँ देशी लघु और मंझोले उद्योगों से ३० फीसदी उत्पादों की खरीददारी करेंगी और कुल विदेशी निवेश का ५० फीसदी कोल्ड स्टोरेज जैसे बैक-एंड इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने में खर्च करेंगी. सच यह है कि ये शर्तें सिर्फ दिखावा हैं और व्यवहार में शायद ही कभी लागू होती हैं.
ताजा मामला ही लीजिए. एकल ब्रांड खुदरा व्यापार में सौ फीसदी एफ.डी.आई की इजाजत देते हुए यू.पी.ए सरकार ने ३० फीसदी अनिवार्य घरेलू खरीददारी की शर्त लगाई थी लेकिन छह महीने से भी कम समय में स्वीडिश कंपनी आइकिया के दबाव में उसमें ढील देने की घोषणा कर दी है.
दोहराने की जरूरत नहीं है कि एक बार जब ये बड़ी कम्पनियाँ देश के अंदर आ जायेंगी, उसके बाद उन्हें किसी भी शर्त में बांधना संभव नहीं रह जाता है. उल्टे वे कम्पनियाँ सरकारों पर शर्त थोपने लगती हैं. ऐसे एक नहीं, अनेकों उदाहरण हैं जब बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों ने न सिर्फ पहले स्वीकार किये गए शर्तों को नहीं माना बल्कि सरकारों को उन्हें बदलने के लिए मजबूर कर दिया है.

आखिर खुदरा व्यापार क्षेत्र को खोलने का फैसला सरकार बड़ी देशी-विदेशी कंपनियों के दबाव में ही कर रही है. ऐसे में भला कौन मानेगा कि यू.पी.ए या भविष्य की कोई सरकार ४३० अरब डालर के सालाना कारोबार वाली अमेरिकी खुदरा व्यापार कंपनी वालमार्ट से शर्तें मनवा सकेगी? 
 
 
 
(साप्ताहिक 'शुक्रवार' के 27 सितम्बर के अंक में प्रकाशित टिप्पणी)                            

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