जनांदोलनों के खलनायकीकरण में जुटा है मीडिया
वहीं दूसरी ओर, ग्रामीण गरीबों, आदिवासियों, श्रमिकों, किसानों, विकास योजनाओं के विस्थापितों के मुद्दों और आन्दोलनों खासकर रैडिकल जन आन्दोलनों को अक्सर अनदेखा करते हैं या कई बार जब अनदेखा करना मुश्किल हो जाए तो मजबूरी में आधे-अधूरे मन से चलते-चलाते थोड़ा-मोड़ा कवरेज दे देते हैं.
लेकिन ऐसा लगता है कि जन आन्दोलनों के प्रति उसकी इस वैचारिक चिढ़ और उपेक्षा भाव का शिकार वे शांतिपूर्ण-लोकतान्त्रिक और गैर पार्टी आंदोलन भी होने लगे हैं जो मौजूदा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उसपर आधारित विकास के मौजूदा माडल को चुनौती दे रहे हैं.
लेकिन मुद्दा सिर्फ नर्मदा बचाओ और कुडनकुलम आंदोलन नहीं हैं. सच यह है कि देश भर में विकास के मौजूदा माडल के खिलाफ जल-जंगल-जमीन और अपनी आजीविका बचाने के लिए जारी सैकड़ों आन्दोलनों के प्रति कारपोरेट न्यूज मीडिया का कमोबेश यही रवैया है.
सवाल यह है कि जन आन्दोलनों के प्रति कारपोरेट न्यूज मीडिया का यह रवैया भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बना रहा है या कमजोर?
('तहलका' के 30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)
जन आंदोलन किसी भी गतिशील लोकतंत्र के अनिवार्य अंग हैं. वे लोकतंत्र
में लोक की तंत्र को चुनौती हैं. इस कारण जन आंदोलन लोकतंत्र को न सिर्फ बेहतर और
समृद्ध बनाते हैं बल्कि सांस्थानिक जड़ता, यथास्थितिवाद और जन
विरोधी नीतियों को चुनौती देकर बदलाव का रास्ता भी साफ़ करते हैं. भारत भी इसका
अपवाद नहीं है.
भारत में लोकतंत्र को बचाए रखने और उसकी जड़ों को गहरा करने में जन
आन्दोलनों खासकर गरीबों, किसानों, श्रमिकों, आदिवासियों, महिलाओं के आन्दोलनों की
बहुत बड़ी भूमिका रही है. यहाँ तक कि स्वतंत्र न्यूज मीडिया के लिए अनिवार्य
अभिव्यक्ति की आज़ादी को भी सुरक्षित रखने और उसके दायरे को बढ़ाने में इन जन
आन्दोलनों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
लेकिन एक ऐसे समय में जब देश आजीविका, हक-हुकूक और
राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक बदलाव के छोटे-बड़े हजारों जन आन्दोलनों (मिलियन म्यूटनीज)
के बीच से गुजर रहा है, मुख्यधारा के न्यूज मीडिया खासकर न्यूज चैनलों की इस बात
के लिए बहुत आलोचना हो रही है कि वे शहरी और मध्यवर्गीय सरोकारों से जुड़े मुद्दों
और उनपर आधारित आन्दोलनों (उदाहरण के लिए हालिया भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन) को
बहुत ज्यादा कवरेज देते हैं. वहीं दूसरी ओर, ग्रामीण गरीबों, आदिवासियों, श्रमिकों, किसानों, विकास योजनाओं के विस्थापितों के मुद्दों और आन्दोलनों खासकर रैडिकल जन आन्दोलनों को अक्सर अनदेखा करते हैं या कई बार जब अनदेखा करना मुश्किल हो जाए तो मजबूरी में आधे-अधूरे मन से चलते-चलाते थोड़ा-मोड़ा कवरेज दे देते हैं.
यही नहीं, कई मामलों में मुख्यधारा का न्यूज मीडिया इन आन्दोलनों को
हिंसक, अलोकतांत्रिक, विकास विरोधी या नक्सली/माओवादी संगठनों द्वारा संचालित या
विदेशी एजेंसियों की साजिश बताकर उनके खलनायकीकरण में भी जुट जाते हैं.
चाहे वह माओवादियों
के नेतृत्व में चलनेवाले आदिवासियों-दलितों के जल-जंगल-जमीन-खनिज बचाने के आंदोलन हों
या दूसरे नक्सली संगठनों की अगुवाई में चलनेवाले रोटी-रोजगार-मजदूरी, जमीन-सामाजिक
सम्मान और बुनियादी हक-हुकूक के आंदोलन या फिर हाल में मानेसर में मारुति फैक्टरी
में चला मजदूरों का आंदोलन हो- मुख्यधारा का न्यूज मीडिया इन सभी आन्दोलनों को हिंसक,
विकास और देश विरोधी बताकर उनका खलनायीकरण करता रहा है.
निश्चय ही, इससे सत्ता के लिए इन्हें कुचलना आसान हो जाता है. यहाँ तक
कि इन आन्दोलनों को दबाने की कोशिश में होनेवाले मानवाधिकार हनन के मामलों को भी
न्यूज मीडिया अनदेखा करता है. हालाँकि रैडिकल खासकर अति वाम नेतृत्व वाले जन
आन्दोलनों के प्रति उसका यह रवैया नया नहीं है. बड़ी पूंजी से संचालित कारपोरेट
न्यूज मीडिया का इन जन आन्दोलनों के प्रति यह रवैया स्वाभाविक तौर पर उनके वर्गीय
हितों और विचारों से प्रेरित है. लेकिन ऐसा लगता है कि जन आन्दोलनों के प्रति उसकी इस वैचारिक चिढ़ और उपेक्षा भाव का शिकार वे शांतिपूर्ण-लोकतान्त्रिक और गैर पार्टी आंदोलन भी होने लगे हैं जो मौजूदा नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और उसपर आधारित विकास के मौजूदा माडल को चुनौती दे रहे हैं.
अन्यथा क्या कारण है कि भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना आंदोलन को 24x7 और लगातार दसियों दिनों तक व्यापक कवरेज और एक
तरह का खुला नैतिक समर्थन देने वाले न्यूज मीडिया ने मध्य प्रदेश के खंडवा जिले
में ओंकारेश्वर बाँध की ऊंचाई कम करने जैसी कई मांगों को लेकर नर्मदा नदी में
गर्दन तक पानी में खड़े होकर जल सत्याग्रह कर रहे पचासों महिलाओं और पुरुषों की तब
तक कोई सुध नहीं ली, जब तक उनके हाथ-पैर गलने नहीं लगे और सोशल मीडिया से लेकर
दूसरे मंचों पर विरोध के सुर तेज होने लगे?
अगर मध्यप्रदेश और केन्द्र सरकार १६
दिनों तक सोई रही तो राष्ट्रीय न्यूज मीडिया भी शुरूआती १२-१४ दिनों तक सोया रहा. अगर
उसने इस आंदोलन को शुरू से कवरेज दी होती तो उन महिलाओं को शायद १७ दिनों तक पानी
में खड़े नहीं रहना पड़ता.
कारपोरेट न्यूज मीडिया का
यह रवैया पिछले कई महीनों से तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु बिजलीघर लगाने के
विरोध में चल रहे शांतिपूर्ण और लोकतान्त्रिक जन आंदोलन के प्रति भी देखा जा सकता
है. सरकार के साथ-साथ न्यूज मीडिया का बड़ा हिस्सा भी इस आंदोलन को विकास विरोधी और
विदेशी ताकतों की साजिश साबित करने में जुटा है. लेकिन मुद्दा सिर्फ नर्मदा बचाओ और कुडनकुलम आंदोलन नहीं हैं. सच यह है कि देश भर में विकास के मौजूदा माडल के खिलाफ जल-जंगल-जमीन और अपनी आजीविका बचाने के लिए जारी सैकड़ों आन्दोलनों के प्रति कारपोरेट न्यूज मीडिया का कमोबेश यही रवैया है.
सवाल यह है कि जन आन्दोलनों के प्रति कारपोरेट न्यूज मीडिया का यह रवैया भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बना रहा है या कमजोर?
('तहलका' के 30 सितम्बर के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)