मंगलवार, फ़रवरी 14, 2012

चैनलों के शोर-शराबे के बीच संसदीय चैनल

वास्तविक स्वतंत्रता और स्वायत्तता के बिना सृजनात्मकता संभव नहीं है


एक ऐसे समय में जब निजी चैनलों की चमक-दमक, भीड़-भाड़ और शोर-शराबे के बीच सार्वजनिक प्रसारण की भूमिका, प्रासंगिकता और जरूरत बढ़ती जा रही है, हमारे सार्वजनिक प्रसारक- दूरदर्शन और आकाशवाणी अपने ही कारणों से लोगों की पसंद और कल्पनाओं से बाहर होते जा रहे हैं.

इनमें सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि वे सार्वजनिक प्रसारक कम और सरकारी चैनल अधिक लगते हैं जिनकी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता को नौकरशाही और निठल्लेपन की संस्कृति ने लील लिया है.

आज लगता ही नहीं है कि ये वही दूरदर्शन और आकाशवाणी हैं जिन्होंने कई दशकों तक सृजनात्मक प्रतिभाओं को अपनी ओर आकर्षित किया और जन-गण के मन को छुआ. लेकिन उस दूरदर्शन और आकाशवाणी के आछे दिन, कबके पाछे गए.

ऐसे में, सार्वजनिक प्रसारण के क्षेत्र में दो नए संसदीय चैनलों- पहले लोकसभा और अब राज्यसभा चैनल के आगमन ने नई उम्मीद पैदा की है. निश्चय ही, यह एक नया प्रयोग है जिसकी शुरुआत कोई पांच साल पहले लोकसभा चैनल के साथ हुई. इन पांच सालों में लोकसभा चैनल ने कई सीमाओं के बावजूद एक अलग पहचान बनाई है.

एक संसदीय चैनल होने के नाते जाहिर है कि लोकसभा चैनल से गंभीर, खुली और बेबाक चर्चाओं की अपेक्षा की जाती है. अच्छी बात यह है कि इस मामले में यह चैनल निराश नहीं करता है. आपको लोकसभा चैनल पर ऐसे बहुतेरी गंभीर बहसें, चर्चाएँ और इंटरव्यू दिख जाएंगे जो आमतौर पर निजी चैनलों और यहाँ तक कि अपने सार्वजनिक प्रसारक- दूरदर्शन पर भी नहीं दिखते हैं.

सबसे खास बात यह है कि लोकसभा चैनल पर निजी चैनलों के उलट प्रस्तुति में शोर-शराबा कम और गहराई और गंभीरता ज्यादा होती है. उसपर कई अनछुए विषयों और मुद्दों पर आपको ऐसे विशेषज्ञों से इंटरव्यू और चर्चाएँ देखने-सुनने को मिल जाएंगी जो निजी चैनलों पर अपवाद की तरह हैं.

इस चैनल पर आपको निजी चैनलों पर चमकनेवाले बहुतेरे चेहरे नहीं दिखाई देंगे लेकिन सबसे अच्छी बात है कि उसपर आपको ऐसे बहुत से चर्चाकार दिख जाएंगे जिनके बाल सफ़ेद हो चुके हैं. कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने अपने बाल धूप में सफ़ेद नहीं किये हैं और यह चर्चाओं के स्तर से साबित भी होता है.

लोकसभा चैनल की सफलता से प्रेरित होकर राज्यसभा चैनल ने भी बीते कुछ महीनों से २४ घंटे के चैनल के रूप में प्रसारण शुरू किया है. हालांकि उसपर प्रसारण शुरू हुए अभी सिर्फ कुछ महीने हुए हैं और यह उसके मूल्यांकन करने का उचित समय नहीं है.

लेकिन राज्यसभा चैनल ने भी इस मायने में उम्मीदें जगाई हैं कि उसमें एक नयापन है, अछूते विषयों को उठाने की तत्परता दिखती है और कई मामलों में वह लोकसभा चैनल से भी आगे जाता दिख रहा है. एक तो राज्यसभा चैनल का दायरा बड़ा है. वह समाचार से लेकर दैनिक चर्चाओं तक में और समसामयिक विषयों से लेकर कला/संगीत/सिनेमा/नृत्य पर कार्यक्रमों तक में झलक रहा है.

दूसरे, राज्यसभा चैनल का इस मौके पर शुरू होना इस मायने में भी महत्वपूर्ण है कि पिछले एक-डेढ़ वर्षों से लोकसभा चैनल में एक थकान और ठहराव सा दिख रहा है. यह अच्छी बात है कि उसमें एक स्थायित्व आया है लेकिन चिंता की बात यह है कि उसमें और बेहतर करने और अपने को हमेशा नए सिरे से खोजते (री-इन्वेंट) और गढते रहने की बेचैनी नहीं दिख रही है.

ऐसे ही कारणों से दूरदर्शन धीरे-धीरे दर्शकों की कल्पनाओं से उतर गया था. लोकसभा चैनल को इस ओर जरूर ध्यान देना चाहिए. उम्मीद करनी चाहिए कि राज्यसभा चैनल के आने के बाद दोनों संसदीय चैनलों और यहाँ तक कि उनके और दूरदर्शन के बीच भी एक स्वस्थ प्रतिस्पर्द्धा शुरू हो सकेगी.

यह प्रतिस्पर्द्धा जरूरी है. इन चैनलों से यह उम्मीद है कि वे वास्तविक अर्थों में सार्वजनिक प्रसारक की भूमिका निभाएंगे और निजी चैनलों के लिए भी ऊँचे मानदंड स्थापित करेंगे. इस अर्थ में, इन दोनों ही चैनलों के सामने सबसे बड़ी चुनौती न सिर्फ संसदीय बहसों और कार्रवाइयों की नियमित, तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ रिपोर्टिंग है बल्कि संसद और सड़क को जोड़ना है.

संसदीय चैनल होने के नाते इन दोनों ही चैनलों से सबसे ज्यादा अपेक्षा यह है कि वे देश को सार्वजनिक महत्व के मुद्दों पर संसद के अंदर और बाहर चल रही बहसों और चर्चाओं से रूबरू कराएं, उन चर्चाओं में देश के अंदर मौजूद विभिन्न लोकतान्त्रिक अभिव्यक्तियों को जगह दें और संसद और आम लोगों के बीच संवाद के नए सेतु बनाएं.

इसके साथ ही उनसे यह भी अपेक्षा है कि वे सार्वजनिक प्रसारक के बतौर वे उन विषयों/मुद्दों पर अधिक ध्यान केंद्रित करें जिन्हें निजी प्रसारक व्यावसायिक कारणों से अनदेखा करते हैं. इस मायने में उन्हें निजी चैनलों के व्यावसायिक एजेंडे से इतर एक सार्वजनिक एजेंडा खड़ा करने और उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए.

इसके लिए उन्हें याद रखना होगा कि वे सरकारी नहीं, संसदीय चैनल हैं और जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे से चलते हैं. इसलिए जैसे संसद में राजनीति और विचारों के स्तर पर विविधता और बहुलता दिखाई देती है, उससे ज्यादा विविधता और बहुलता इन संसदीय चैनलों में दिखाई पड़नी चाहिए.

यह बात इसलिए कहनी पड़ रही है कि राज्यसभा चैनल में कई बार सरकार और खासकर सत्तारूढ़ पार्टी के प्रति झुकाव दिखता है. कहने की जरूरत नहीं है कि यह एक ऐसी फिसलन है जिसपर फिसलने के बाद संभलना बहुत मुश्किल हो जाता है.

दूसरी ओर, उसे निजी चैनलों के नक़ल के लोभ से भी बचना होगा. यह दोनों ऐसे फंदे हैं जिसमें फंसकर दूरदर्शन और आकाशवाणी खत्म हो गए. इन दोनों संसदीय चैनलों के कर्ता-धर्ताओं को याद रखना होगा कि वास्तविक स्वतंत्रता और स्वायत्तता के बिना सृजनात्मकता संभव नहीं है.

अगर उन्हें दूरदर्शन और आकाशवाणी के हश्र को नहीं प्राप्त होना है तो अपने पत्रकारों, कार्यक्रम निर्माताओं और प्रस्तुतकर्ताओं को वह सृजनात्मक आज़ादी देनी होगी जो लोगों की सूचनाओं, विचारों और मनोरंजन की वास्तविक जरूरतों को पूरा करने की अनिवार्य शर्त है. इस मायने में आनेवाले महीने दोनों संसदीय चैनलों के लिए परीक्षा के होंगे कि वे नई राह बनाते हैं या दूरदर्शन की राह जाते हैं.



('तहलका' के १५ फरवरी के अंक में प्रकाशित स्तम्भ)

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