सोमवार, फ़रवरी 13, 2012

उत्तर प्रदेश में आकांक्षाओं की दावेदारी


बसपा से लेकर कांग्रेस तक कोई भी पार्टी इन आकांक्षाओं को विश्वसनीय स्वर देने में कामयाब नहीं


उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए दो दौर का मतदान पूरा हो चुका है. दोनों ही दौर में उम्मीदों से कहीं बढ़कर मतदान हुआ है. वोटरों के उत्साह खासकर युवाओं और महिलाओं की बढ़ी हुई भागीदारी के गहरे निहितार्थ हैं. इसमें बदलाव की बेचैनी और जनोन्मुखी विकास और बेहतर प्रशासन की आकांक्षाओं को साफ़ पढ़ा जा सकता है.

आप मानें या न मानें लेकिन अस्मिताओं की राजनीति गहरे दबाव में है, लोगों खासकर युवाओं की बढ़ी हुई आकांक्षाएं जातीय अस्मिता के दमघोंटू घेरों से टकरा रही हैं और उत्तर प्रदेश के राजनीतिक रंगमंच पर आकांक्षाओं की राजनीति के लिए जगह बनने लगी है.

लेकिन अफसोस की बात यह है कि उत्तर प्रदेश में सत्ता की दावेदारी कर रही चारों पार्टियां इस सच्चाई से वाकिफ होते हुए भी राज्य की राजनीति को अस्मिताओं के दमघोंटू दायरे से बाहर नहीं निकलने दे रही हैं. वे अभी भी जातियों के जोड़तोड़ और समीकरणों के आधार सत्ता में पहुँचने की जुगत में लगी हुई हैं.

इसके लिए न सिर्फ जातियों का गणित बैठाया जा रहा है बल्कि धार्मिक पहचानों को भी उभारने की कोशिश की जा रही है. लेकिन ये पार्टियां भूल रही हैं कि राजनीति सिर्फ अंकगणित नहीं है, यह रसायन विज्ञान है, कला है, समाजशास्त्र है, अर्थशास्त्र है और सबसे बढ़कर लोक मनोविज्ञान है.

कहने का अर्थ यह कि केवल जाति और धर्म के अंकगणित के आधार पर चुनाव जीता जा सकता तो सांख्यिकीविद और गणितज्ञ सबसे बड़े राजनेता होते और कोई पार्टी चुनाव नहीं हारती. उत्तर प्रदेश में जाति के अंकगणित के आधार पर चुनाव हो रहा होता तो बसपा के अंकगणित का किसी के पास भी जवाब नहीं है. चुनाव सिर्फ एक औपचारिकता भर रह जाता.

लेकिन ऐसा नहीं है. बसपा के पसीने छूट रहे हैं. दूसरी ओर, धार्मिक पहचान के साथ जाति की सामाजिक इंजीनियरिंग करनेवाली भाजपा इस तरह से हांफ नहीं रही होती, कांग्रेस के रणनीतिकारों के चेहरे पर हवाइयां नहीं उड़ रही होतीं और सपा इतनी बेचैन नहीं होती.

लेकिन सच यही है कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं के मन-मिजाज को भांपने में चारों ही पार्टियां नाकाम रही हैं. वे २०१२ में ९० के दशक की राजनीति से चिपकी हुई हैं जबकि इस राजनीति की सीमाएं बहुत पहले स्पष्ट हो चुकी हैं.

ये पार्टियां भूल गईं कि इन २०-२२ वर्षों में मतदाताओं की एक ऐसी पीढ़ी जवान हो चुकी है जिसके लिए सामाजिक पहचान और सम्मान के साथ-साथ बेहतर शिक्षा और रोजगार का सपना कहीं ज्यादा बड़ा सपना बन गया है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस नई पीढ़ी के लिए लैपटाप और टैबलेट नई आकांक्षाओं के प्रतीक हैं.

लेकिन वह यह भी जानती है कि अच्छे और बेहतर स्कूलों और कालेजों/विश्वविद्यालयों के बिना लैपटाप और टैबलेट बेमानी है. यह चुनावी झुनझुने से अधिक नहीं है क्योंकि उत्तर प्रदेश के इन युवाओं का अपने स्कूलों/कालेजों/विश्वविद्यालयों का अनुभव बहुत कड़वा है.

उनकी आकांक्षाएं उत्तर प्रदेश में ध्वस्त हो चुकी प्राथमिक/माध्यमिक और उच्च शिक्षा के मलबे के नीचे दबकर दम तोड़ रही हैं. उन्हें पता है कि उत्तर प्रदेश के सरकारी स्कूलों/कालेजों में पढाई के नामपर जो कुछ चल रहा है, उससे उनके लिए बेहतर नौकरियों के रास्ते नहीं खुलने वाले हैं.

दूसरी ओर, उनमें से बहुतों के पास ऐसी आर्थिक सामर्थ्य नहीं है कि वे उन प्राइवेट कान्वेंट स्कूलों, प्राइवेट इंजीनियरिंग और मेडिकल कालेजों की ऊँची फीस चुका सकें. इसके बावजूद सच यह है कि देश के कई और राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी लोग अपने बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए अपनी तमाम जरूरतों में कटौती करके, कर्ज लेकर और जमीन बेचकर ऊँची फीस चुका रहे हैं और उन्हें प्रदेश से बाहर पढ़ने भेज रहे हैं.

उनके लिए यह सामाजिक गतिशीलता और प्रतिष्ठा का पर्याय है. खासकर पिछड़ी जातियों, दलितों और मुसलमानों में इस बढ़ती हुई आकांक्षा को साफ़ देखा जा सकता है.

आश्चर्य नहीं कि पिछले एक-डेढ़ दशक में उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूलों/कालेजों/विश्वविद्यालयों की तुलना में दस गुणा तेजी से प्राइवेट शिक्षा संस्थान खुले हैं. इसका सबूत यह है कि आप दिल्ली से मेरठ, आगरा, मुरादाबाद किसी ओर भी राष्ट्रीय राजमार्ग पर चलिए, आपको दर्जनों प्राइवेट इंजीनियरिंग/मेडिकल कालेज और विश्वविद्यालय दिखाई पड़ेंगे.

इन शिक्षा संस्थानों में सबसे ज्यादा विद्यार्थी प्रदेश के पिछड़े, दलित और गरीब सवर्ण परिवारों के मिलेंगे जो कई सामाजिक-आर्थिक कारणों से देश के बड़े इलीट शिक्षा संस्थानों तक नहीं पहुँच पाते हैं.

लेकिन लैपटाप और टैबलेट बाँटने का वायदा करनेवाली सपा और भाजपा के पास प्रदेश की ध्वस्त शिक्षा व्यवस्था के पुनर्निर्माण की न तो कोई दृष्टि है और न ही कोई कार्यक्रम. इसी तरह, हर साल २० लाख नए रोजगार पैदा करने की बातें करनेवाली कांग्रेस का एजेंडा शिक्षा के निजीकरण और व्यवसायीकरण का है जिसमें गरीबों के लिए कोई जगह नहीं है.

बसपा के बारे में जितना कहा जाए कम है. हैरानी की बात नहीं है कि शिक्षा व्यवस्था की कब्र खोदने और उसे निजी व्यापारियों के हाथों में सौंपने में इन सभी पार्टियों की बड़ी भूमिका रही है. नतीजा, प्रदेश में शिक्षा विभाग सबसे भ्रष्ट विभागों की सूची में टाप विभागों में एक है.

लेकिन बसपा समेत चारों पार्टियों के लिए शिक्षा कोई मुद्दा नहीं है. बसपा को लगता है कि दलित सत्ता में भागीदारी के अहसास भर से संतुष्ट है. लेकिन सत्ता में भागीदारी के साथ आए सामाजिक सशक्तिकरण ने दलित समुदाय खासकर अति दलितों में जो नई आकांक्षाएं पैदा कर दी हैं, बसपा और उसकी नेता मायावती उसे शायद समझ नहीं पा रही हैं.

इस मामले में उन्होंने सबसे ज्यादा निराश किया है. उन्हें उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी. लेकिन कीमत बाकी पार्टियों को भी चुकानी पड़ेगी. इसकी वजह यह है कि वे जानते-समझते हुए भी लोगों खासकर युवाओं की आकांक्षाओं को अपनी राजनीति में विश्वसनीय स्वर देने में नाकाम रही हैं.

कहने की जरूरत नहीं है कि अगर उत्तर प्रदेश में त्रिशंकु विधानसभा बनती है तो इसके लिए वोटर नहीं, चारों पार्टियों को जिम्मेदार माना जाना चाहिए क्योंकि यह वोटर की नहीं, इन पार्टियों की राजनीतिक नाकामी का नतीजा होगी.

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