सोमवार, फ़रवरी 20, 2012

वित्तीय कठमुल्लावाद की वापसी के खतरे

अर्थव्यवस्था को गति को तेज करने के लिए नए निवेश की सख्त जरूरत है

आम बजट पेश होने में अब एक माह से भी कम का समय बचा है. बजट की तैयारियां जोरों पर हैं. वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी पर अपेक्षाओं और उम्मीदों के बोझ के साथ चौतरफा दबाव भी हैं.

जैसाकि हर बजट के साथ होता है, इस बार भी बजट से पहले नार्थ ब्लाक में ताकतवर कारपोरेट समूहों से लेकर औद्योगिक-वाणिज्यिक संगठनों और देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के प्रतिनिधियों से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष के अफसरों तक की आमदरफ्त बढ़ गई है.
अपने कारपोरेट हितों को आगे बढ़ाने और उसके अनुकूल नीतियों और बजट प्रावधानों के लिए जमकर लाबीइंग हो रही है. देशी-विदेशी बड़ी पूंजी इस बजट में बिना नाम लिए अपने लिए बेल आउट पैकेज चाहती है.

हालांकि औपचारिकता निभाने के लिए वित्त मंत्री ने किसान और ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों से भी बजट में उनकी अपेक्षाओं को लेकर चर्चा की है लेकिन यह किसी से छुपा नहीं है कि कारपोरेट समूहों और फिक्की-सी.आई.आई-एसोचैम जैसे संगठित लाबीईंग समूहों की ताकत और प्रभाव के आगे वे कहीं नहीं ठहरते हैं.

वे न सिर्फ सरकार के अंदर लाबीइंग कर रहे हैं बल्कि बाहर भी अपने पक्ष में माहौल बनाने में जुटे हैं. इसमें उन्हें गुलाबी अख़बारों की मदद भी मिल रही है जो बजट का एजेंडा कारपोरेट समूहों के पक्ष में तय करने में भिड़े हुए हैं.

लेकिन मजे की बात यह है कि जो कारपोरेट क्षेत्र इस बजट में अपनी मलाई के लिए लाबीइंग कर रहा है, वह सार्वजनिक तौर पर बजट को (आमलोगों के लिए) सख्त बनाने की वकालत कर रहा है. कहा जा रहा है कि यू.पी.ए सरकार और वित्त मंत्री के पास २०१४ के आम चुनावों से पहले यह आखिरी मौका है जब वे कुछ सख्त फैसले ले सकते हैं.

यहाँ सख्त फैसले का मतलब यह है कि बजट में वित्तीय घाटे को काबू में करने के लिए पेट्रोलियम, खाद और खाद्य सब्सिडी में कटौती, विनिवेश में तेजी और आर्थिक सुधारों के आगे बढ़ाने वाले नीतिगत फैसलों की घोषणा की जाए.

यही नहीं, फिक्की के महासचिव राजीव कुमार ने एक बड़े अंग्रेजी अखबार में लिखकर प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून को सरकारी खजाने की कमर तोड़ने वाला बताते हुए वित्त मंत्री को अगले बजट में उसपर अमल से बचने की सलाह दी है. कहने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी पूंजी से लेकर विश्व बैंक-मुद्रा कोष तक सभी की सबसे बड़ी चिंता वित्तीय घाटे में बढ़ोत्तरी है.

साफ है कि वित्तीय कठमुल्लावाद फिर सक्रिय हो गया है. गुलाबी अख़बारों में रोज रिपोर्टें ‘प्लांट’ की जा रही हैं कि चालू वित्तीय वर्ष में वित्तीय घाटा का बजट अनुमान जी.डी.पी के ४.६ फीसदी से बढ़कर ५.६ फीसदी या उससे भी अधिक जा सकता है. कहा जा रहा है कि वित्तीय घाटे का यह स्तर बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. यह अर्थव्यवस्था के लिए घातक है.


तर्क दिया जा रहा है कि इसे अगर इस साल काबू में करने के लिए सख्त फैसले नहीं किये गए तो अगले साल चुनाव वर्ष का बजट होने के करण वित्त मंत्री के लिए उसमें कोई कड़ा फैसला करना संभव नहीं होगा.

लेकिन दिलचस्प बात यह है कि वित्तीय घाटे में कटौती के लिए आमलोगों खासकर गरीबों की सब्सिडी में कटौती को एकमात्र विकल्प बतानेवाले इस विकल्प पर भूलकर भी चर्चा नहीं करते हैं कि इसका एक तरीका सरकार की आय बढ़ाने का भी हो सकता है.
इसके लिए कारपोरेट और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को दी जा रही हजारों करोड़ रूपये की कर छूटों/रियायतों का खात्मा और कारपोरेट टैक्स में बढ़ोत्तरी का भी हो सकता है.

तथ्य यह है कि वर्ष २०१०-११ के बजट में अकेले कारपोरेट टैक्स में विभिन्न छूटों के जरिये कंपनियों को ८८२६३ करोड़ रूपये और सोने-हीरे पर सीमा शुल्क में छूट के रूप में ४८७९८ करोड़ रूपये दिए गए. अगर सिर्फ इन दोनों को ही जोड़ दिया जाए तो यह प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून पर होनेवाले अधिकतम व्यय के अनुमानों से भी ज्यादा है.

लेकिन इसकी चर्चा नहीं होती है. यह भी चर्चा नहीं होती है कि जिस वित्तीय घाटे का इतना रोना रोया जाता है, क्या वह सचमुच, खतरे के निशान को पार कर गया है? तथ्य यह है कि दुनिया के अमीर देशों के संगठन- ओ.सी.ई.डी (ओसेड) के सदस्य देशों में वर्ष २०१० में वित्तीय घाटा औसतन जी.डी.पी के ७.५ फीसदी के आसपास था जबकि इसके वर्ष २०११ में जी.डी.पी के ६.१ फीसदी के करीब रहने का अनुमान है.

सच यह है कि किसी भी विकासशील देश में अर्थव्यवस्था में अत्यधिक निवेश की जरूरतों के कारण बजट में वित्तीय घाटा स्वाभाविक और काफी हद तक अनिवार्य भी माना जाता है. भारत इसका अपवाद नहीं है.

भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय जिस मोड पर खड़ी है वहां उसे सबसे अधिक जरूरत बुनियादी संरचनात्मक ढांचे यानी बिजली-सड़क-रेल-बंदरगाह-पानी, सामाजिक ढांचे यानी शिक्षा-स्वास्थ्य और कृषि में सार्वजनिक निवेश बढ़ाने की है ताकि समावेशी विकास को गति दी जा सके. यह इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था की धीमी पड़ती रफ़्तार के पीछे सबसे बड़ी वजह निवेश में ठहराव और गिरावट है.

असल में, दुनिया भर में छाई आर्थिक अनिश्चितता और विकसित देशों की अर्थव्यवस्थाओं की बुरी स्थिति के कारण देश के अंदर भी निजी क्षेत्र नए निवेश से बच रहा है. ऐसे समय में निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय घाटे की चिंता न करते हुए सार्वजनिक निवेश में भारी बढ़ोत्तरी करने की जरूरत है. इससे निजी क्षेत्र के निवेश को भी आवेग मिलेगा.
लेकिन अफसोस की बात यह है कि कारपोरेट लाबीस्ट के इशारे पर बजट को लेकर हो रही सार्वजनिक चर्चाओं में एक बार फिर सबसे अधिक शोर वित्तीय घाटे में कटौती और आर्थिक सुधारों की रफ़्तार को तेज करने को लेकर है.
लगता है कि नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के पैरोकारों ने अपने हालिया अनुभवों से कुछ नहीं सीखा है. सच यह है कि अमेरिका और यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं की मौजूदा खस्ता हालत के सबसे अधिक जिम्मेदार यह सोच ही है.
इसने न सिर्फ २००७-०८ के वित्तीय ध्वंस की जमीन तैयार की बल्कि उसके बाद वित्तीय उत्प्रेरक (स्टिमुलस) पैकेजों की मदद से उससे उबरने की कोशिश कर रही अर्थव्यवस्थाओं पर जिस हड़बड़ी में वित्तीय अनुशासन थोपने की कोशिश की गई, उससे ये अर्थव्यवस्थाएं फिर से मंदी और संकट में फंस गई हैं.

क्या वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी इससे कोई सबक लेंगे या बड़ी देशी-विदेशी पूंजी को खुश करने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को दांव पर लगाएंगे? बजट का इंतज़ार कीजिये.
('नया इंडिया' में २० फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख) 

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