मंगलवार, फ़रवरी 07, 2012

गरीबों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देने पर क्यों अड़ी है सरकार?

मनरेगा को दफनाने पर तुली है यू.पी.ए सरकार


आम आदमी खासकर गरीबों की सबसे बड़ी खिदमतगार होने का दावा करनेवाली यू.पी.ए सरकार और कांग्रेस पार्टी इसके सबूत के तौर पर महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार योजना (मनरेगा) की दुहाई देते नहीं थकते हैं. लेकिन सच यह है कि यू.पी.ए सरकार न सिर्फ इस योजना को एक अनावश्यक बोझ की तरह समझती है बल्कि खुद उसमें पलीता लगाने में जुटी हुई है.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण यह है कि मनमोहन सिंह सरकार संविधान, कानून, कोर्ट और नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए मनरेगा के मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देने के लिए भी तैयार नहीं है. इसके लिए मनरेगा को न्यूनतम मजदूरी कानून के दायरे से बाहर रखा गया है.

सरकार के अड़ियल रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस मुद्दे पर पहले आंध्र प्रदेश और फिर कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपने फैसलों में स्पष्ट रूप से कहा कि केन्द्र सरकार मनरेगा के तहत स्थानीय राज्य सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी नहीं दे सकती है. दोनों उच्च न्यायालयों के मुताबिक, यह अवैध है और ‘जबरन श्रम’ के बराबर है.

उल्लेखनीय है कि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने १९६७ में अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा था कि न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत घोषित न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी पर काम कराना ‘जबरन श्रम’ कराने की तरह है जो पूरी तरह अवैध है. मजदूरी को इससे नीचे गिरने की इजाजत नहीं दी जा सकती है और किसी भी हालत में यह मजदूरी देनी ही होगी.

यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने उस फैसले में न्यूनतम मजदूरी (मिनीमम वेज), उचित मजदूरी (फेयर वेज) और लिविंग वेज में अंतर स्पष्ट करते हुए बताया था कि न्यूनतम मजदूरी वह मजदूरी है जिसमें श्रमिक की न्यूनतम जरूरतें भी मुश्किल से पूरा हो पाती हैं. इस मजदूरी में कोई सिर पर छत, बदन पर कपडे, मेडिकल सुविधा और शिक्षा की भी नहीं सोच सकता है.

सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक, उचित मजदूरी वह मजदूरी है जिसमें मेडिकल सुविधा, शिक्षा और कपड़े आदि न्यूनतम जरूरतें भी पूरी होनी चाहिए जबकि लिविंग वेज वह मजदूरी है जिसमें वह अपनी और परिवार की विभिन्न जरूरतें पूरा करने के अलावा अपने बुढ़ापे और भविष्य की चिंताओं से मुक्त हो सके.

लेकिन कहाँ देश न्यूनतम मजदूरी से उचित मजदूरी और लिविंग वेज की ओर और सभी श्रमिकों को एक बेहतर जीवन की गारंटी करने की दिशा में कदम बढ़ाता और कहाँ आम आदमी की दुहाईयां देनेवाली एक सरकार आज़ादी के ६४ साल बाद भी मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी देने के लिए भी तैयार नहीं है?

असल में, मनरेगा के तहत दी जानेवाली मजदूरी को यू.पी.ए सरकार ने न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत दी जानेवाली अनिवार्य मजदूरी से अलग रखा है. इस कारण कई राज्यों में मनरेगा के तहत तय मजदूरी दर राज्य सरकारों द्वारा घोषित न्यूनतम मजदूरी दर से कम है. इसे आंध्र प्रदेश और कर्नाटक हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी और दोनों ही न्यायालयों ने बारी-बारी से मनरेगा के इस प्रावधान को न्यूनतम मजदूरी कानून का उल्लंघन बताते हर ख़ारिज कर दिया.

लेकिन इससे यू.पी.ए सरकार की आँख नहीं खुली. सबसे ज्यादा चिंता और हैरानी की बात यह है कि खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अड़े हुए हैं कि मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी नहीं मिलेगी. उन्होंने ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश, अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह, अटार्नी जनरल गुलाम वाहनवती, श्रम और रोजगार मंत्रालय और यहाँ तक कि सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाली एन.ए.सी की राय को अनदेखा करते हुए दोनों हाई कोर्ट के फैसलों को सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पेटिशन दाखिल करके चुनौती देने का फैसला किया. सवाल यह है कि प्रधानमंत्री मनरेगा के तहत गरीब मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं देने पर क्यों अड़े हुए हैं?

असल में, मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी न देने के पीछे एकमात्र तर्क यह है कि इससे न सिर्फ अधिक मजदूरी देनी पड़ेगी और मनरेगा का बजट बढ़ाना पड़ेगा बल्कि राज्य सरकारें मनमाने तरीके से मजदूरी बढ़ाने लगेंगी.

केन्द्र सरकार का असल डर यह है कि राजनीतिक फायदा उठाने के लिए राज्य सरकारों में न्यूनतम मजदूरी बढाने की होड़ शुरू हो जायेगी और उसका सारा बोझ केन्द्र सरकार को उठाना पड़ेगा. लेकिन केन्द्र सरकार का यह डर निराधार है. तथ्य यह है कि पूरे देश में सिर्फ पांच राज्य ऐसे हैं जहां न्यूनतम मजदूरी मनरेगा के तहत घोषित मजदूरी दर से ज्यादा है.

दूसरे, न्यूनतम मजदूरी घोषित करने के मामले में राज्य सरकारें बहुत कंजूस रही हैं. सच यह है कि न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत न्यूनतम मजदूरी दर घोषित करने की प्रक्रिया को नौकरशाहों और राजनेताओं की मदद से उद्योगपतियों-व्यापारियों-ठेकेदारों-जमींदारों के गठजोड़ ने हाइजैक कर लिया है. यह गठजोड़ सुनिश्चित करता है कि राज्य सरकारों द्वारा घोषित की जानेवाली न्यूनतम मजदूरी न्यूनतम ही रहे. आखिर उसके खुद के हितों का सवाल है.

यही नहीं, अधिकांश राज्यों में न्यूनतम मजदूरी कानून का घोषित/अघोषित उल्लंघन एक नियम है. निजी क्षेत्र में खुलेआम इसकी धज्जियाँ उड़ाई जाती है. इस कानून को लागू करनेवाला श्रम विभाग इतना भ्रष्ट और अक्षम है कि वह कोई आँखें बंद किये सोया रहता है.

कहने की जरूरत नहीं है कि मनरेगा कानून के आने से यह उम्मीद बनी थी कि अब ग्रामीण गरीबों को कम से कम न्यूनतम मजदूरी मिलेगी और उससे ग्रामीण इलाकों में मजदूरी का नया बेंचमार्क तय होगा. यह कुछ हद तक हुआ भी है. आश्चर्य नहीं कि मनरेगा के खिलाफ एक कु-प्रचार यह भी है कि इसके कारण शहरों खासकर औद्योगिक केन्द्रों में सस्ते मजदूर मिलने बंद हो गए हैं और दूसरी ओर, किसानों को भी मजदूर नहीं मिल रहे हैं.

यह अर्धसत्य है. सच यह है कि मजदूर अब मनरेगा में घोषित मजदूरी दर से अधिक दर मांग रहे हैं. अब तक न्यूनतम मजदूरी से कम पर काम कराने के आदी उद्योगों और बड़े फार्मरों/जमींदारों को यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है.

इसका असर यह हुआ है कि शरद पवार जैसे नेता खुलकर और बहुतेरे नेता अंदरखाते इस कानून का विरोध करने में जुटे हैं. मांग हो रही है कि मनरेगा को कृषि कार्यों के पीक सीजन में स्थगित कर दिया जाए क्योंकि किसन को मजदूर नहीं मिल रहे हैं और मजदूरी “आसमान छूने” लग रही है.

इसलिए मनमोहन सिंह का यह डर बिलकुल बेमानी है कि मनरेगा को न्यूनतम मजदूरी कानून के साथ जोड़ देने पर राज्य सरकारें तेजी से न्यूनतम मजदूरी बढ़ाने लगेंगी. सच्चाई प्रधानमंत्री को भी पता है. लेकिन वे पीछे हटने को तैयार नहीं हैं.

लेकिन अब उम्मीद करनी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले के बाद वे अपने रवैये पर पुनर्विचार करेंगे और मनरेगा को न्यूनतम मजदूरी कानून के तहत लाने का विरोध नहीं करेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर साफ़ कर दिया है कि केन्द्र सरकार मनरेगा के तहत न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी नहीं दे सकती है. यह गैरकानूनी है. क्या आम आदमी के साथ खड़ी होने का दावा करनेवाली यू.पी.ए सरकार ग्रामीण गरीबों के हक में खड़ी होगी?

('नया इंडिया' में ६ फरवरी को सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित लेख)

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