सोमवार, जनवरी 30, 2012

चुनावी वादे हैं, वादों का क्या?

कोई भी पार्टी चुनावी वायदों को लेकर ईमानदार और गंभीर नहीं दिखती है



विकास के सभी सूचकांकों पर सबसे निचले पायदान पर फिसल गए उत्तर प्रदेश को बीमारू प्रदेशों में लाइलाज सा मान लिया गया है. लेकिन यह जल्दी ही बीते दिनों की बात हो जायेगी. इस बार विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश में विकास की बहार और तोहफों की बरसात आनेवाली है. प्रदेश के मतदाताओं के दिन फिरते दिख रहे हैं.

कारण यह कि चुनाव के लिए बसपा को छोडकर बाकी तीनों प्रमुख पार्टियों- सपा, भाजपा और कांग्रेस ने अपने घोषणापत्रों में वायदा किया है कि प्रदेश में २४ घंटे बिजली होगी, किसानों को मुफ्त बिजली-पानी मिलेगा, हर छात्र के हाथ में लैपटाप या टैबलेट कंप्यूटर होगा, हर साल २० लाख बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा, बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता मिलेगा और वह सब कुछ जो उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने शायद सपने में भी नहीं सोचा हो.

इन चुनावी घोषणापत्रों में क्या नहीं है? केवल स्वर्ग में सीढ़ी लगाने का वायदा रह गया है, अन्यथा शायद ही कोई ऐसा वायदा हो जो रह गया हो. इन घोषणापत्रों में हर वर्ग, जाति-उपजाति-गोत्र, धर्म और क्षेत्र के लिए वायदों और तोहफों की पेशकश की गई है. वायदों के मामले में सपा, भाजपा और कांग्रेस में एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ सी मची हुई है.

कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है. इस चक्कर में अगर सपा ने इंटरमीडिएट करनेवाले सभी छात्रों को मुफ्त लैपटाप और हाई स्कूल के छात्रों को टैबलेट कंप्यूटर देने का वायदा किया तो उससे आगे निकलने के लिए भाजपा ने प्राइमरी के छात्रों को टैबलेट और आठवीं के बाद सभी छात्रों को लैपटाप देने के एलान कर दिया है.

हालत यह हो गई है कि अब सपा शिकायत कर रही है कि भाजपा ने उसके घोषणापत्र के वायदों को चुरा लिया है. वायदों की बरसात और भीड़-भाड़ के बीच उनमें इतना गड्डमड्ड हो गया है कि तीनों ही पार्टियों के घोषणापत्र लगभग एक से दिखने लगे हैं. उत्तर प्रदेश की विभाजित और प्रतियोगी राजनीति में विविधता में एकता का इससे बढ़िया उदाहरण शायद ही मिले.

यही नहीं, सबसे आगे निकलने की कोशिश में भाजपा ने महापुरुषों और भगवान तक से वायदा किया है. इस बार भी भाजपा ने भगवान राम से वायदा किया है कि अगर वह सत्ता में आती है तो उनका भव्य मंदिर बनवाएगी.

इसके अलावा उसने कबीर, रैदास, उदा देवी और झलकारी बाई की याद में मूर्तियां लगवाने और मथुरा-वृन्दावन में ‘आध्यात्मिक डिजनीलैंड’ बनवाने का वायदा किया है. कहने का मतलब यह कि चुनावी वायदे करने के मामले में इन पार्टियों ने बेतुकेपन और अनर्गलता (एब्सर्डिटी) की सभी हदें पार कर दी हैं.

मतदाताओं को लुभाने के लिए किये गए इन बेतुके और हास्यास्पद वायदों से भरे इन घोषणापत्रों और विजन दस्तावेजों को पढ़ते हुए ग़ालिब बेसाख्ता याद आ रहे हैं: “तेरे वादे पे जिए हम तो ये जान झूठ जाना, कि खुशी से मर न जाते, गर एतबार होता.” आश्चर्य नहीं कि उत्तर प्रदेश के मतदाता इन सुनहरे वायदों और लुभावने तोहफों के बावजूद खुशी से मरना तो दूर, चुनावों को लेकर उनमें कोई उत्साह नहीं दिख रहा हैं.

कारण यह कि उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को चुनावी घोषणापत्रों के जन्नत की हकीकत अच्छी तरह से पता है. वे जानते हैं कि चुनावी वादे, वादे हैं और वादों का क्या? जैसे रात गई, बात गई. वैसे ही चुनाव गए, वादे गए. वायदों की जगह बहाने होंगे. कहने की जरूरत नहीं है कि मतदाताओं के ऐसा सोचने के पीछे उनका अपना पुराना अनुभव है.

वे इतनी बार छले जा चुके हैं कि उनका इन घोषणापत्रों में रत्ती भर भी विश्वास नहीं है. उन्हें यह एक मजाक की तरह लगता है. लेकिन इसके लिए और कोई नहीं, खुद ये राजनीतिक दल और उनके नेता जिम्मेदार हैं. वे खुद अपने घोषणापत्रों/विजन दस्तावेजों को लेकर गंभीर नहीं हैं.

सच यह है कि अगर ये पार्टियां अपने चुनावी घोषणापत्रों को लेकर ईमानदार और गंभीर होतीं तो मतदाताओं से चाँद-सितारों के वायदे करने से पहले सौ बार सोचतीं. यही नहीं, इन घोषणापत्रों से इन पार्टियों की वैचारिक और राजनीतिक दरिद्रता का पता चलता है.

इन घोषणापत्रों से लगता नहीं है कि उत्तर प्रदेश में वर्षों तक राज कर चुकी इन पार्टियों के पास प्रदेश की जमीनी समस्याओं और जरूरतों का कोई वास्तविक समाधान है. समाधान तो दूर, कड़वा सच यह है कि उन्हें उत्तर प्रदेश की वास्तविक समस्याओं और जमीनी जरूरतों का इल्म भी नहीं है. इससे पता चलता है कि ये पार्टियां वास्तविकता से कितनी कट चुकी हैं.

असल में, लुभावने वायदे करके वे अपनी इसी दरिद्रता और हवाई चरित्र को छुपाने की कोशिश कर रही हैं. उनके विजन दस्तावेजों में दृष्टि (विजन) के अलावा सब कुछ है. अगर ऐसा नहीं होता तो प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक के छात्रों को मुफ्त में लैपटाप और टैबलेट कंप्यूटर बांटने का वायदा कर रही पार्टियां प्रदेश में सबसे पहले शिक्षा की बदतर स्थिति और स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की बदहाल हालत को सुधारने का प्रस्ताव करतीं. यह किस से छुपा है कि प्रदेश में प्राइमरी से लेकर यूनिवर्सिटी तक की शिक्षा का क्या हाल है?

लेकिन एक मायने में ये घोषणापत्र/विजन दस्तावेज और वायदे प्रदेश की राजनीति में एक बड़े परिवर्तन की ओर भी इशारा कर रहे हैं. उस प्रदेश में जहां राजनीति जाति और धर्म के संकीर्ण अस्मितावादी दायरे में सिमट गई थी, जहां वोट के लिए लोगों की धार्मिक और जातीय अस्मिता का आह्वान काफी होता था, वहां सत्ता की दावेदार सभी पार्टियों को संकीर्ण अस्मितावादी दायरे से बाहर जाकर वायदे करने पड़ रहे हैं और घोषणापत्र/विजन दस्तावेज पेश करना पड़ रहा है.

 यह इस बात का संकेत है कि संकीर्ण अस्मितावादी राजनीति अपनी चमक खोने लगी है. लोगों की आकांक्षाएं और अपेक्षाएं जग चुकी हैं. राजनीतिक दलों को इसका अहसास है और उनपर इसका दबाव भी है.

ये चुनावी वायदे उसी का नतीजा हैं. इन वायदों में कोई बुराई नहीं है. लेकिन असल सवाल यह है कि इन वायदों का वास्तविकता से कितना सम्बन्ध है, पार्टियां इन्हें लेकर कितना ईमानदार और गंभीर हैं और उन्हें लागू/पूरा करने के लिए उनके पास क्या योजना है? अफसोस की बात यह है कि इन सवालों के उत्तर में सिर्फ चुनावी शोर-शराबा है और मतदाताओं को एक बार और बेवकूफ बनाने की मंशा है.

जागो मतदाताओं, जागो.

('नया इंडिया' के ३० जनवरी के अंक में प्रकाशित लेख)

1 टिप्पणी:

S.N SHUKLA ने कहा…

सार्थक और सामयिक प्रस्तुति, आभार.

कृपया मेरे ब्लॉग "meri kavitayen" पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा /