गुरुवार, जनवरी 19, 2012

‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ उर्फ चैनलों का चुनावी जनतंत्र


चैनलों ने चुनावों को तमाशा बना दिया है

उत्तरप्रदेश समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों का बिगुल बज चुका है. ये चुनाव राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे न सिर्फ इन राज्यों की बल्कि राष्ट्रीय राजनीति की दिशा भी तय होनी है. यही कारण है कि इन चुनावों को २०१४ के आम चुनावों से पहले का सेमीफाइनल माना जा रहा है.

इसमें कांग्रेस-भाजपा जैसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों से लेकर सपा-बसपा-अकाली दल जैसी छोटी पार्टियों और राहुल गाँधी-मायावती-मुलायम सिंह जैसे नेताओं का बहुत कुछ दांव लगा हुआ है. यही नहीं, ये चुनाव अन्ना हजारे के उस भ्रष्टाचार विरोधी और जन-लोकपाल आंदोलन की छाया में हो रहे हैं जिसने देश को झकझोर कर रख दिया.

स्वाभाविक तौर पर इन चुनावों की ओर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं. ऐसे में, न्यूज चैनल कहाँ पीछे रहने वाले हैं? जहां दर्शक, वहां चैनल. आश्चर्य नहीं कि इस चुनावी महा-संग्राम में सत्ता की दावेदार राजनीतिक पार्टियों, उनके स्टार प्रचारकों और उम्मीदवारों के साथ-साथ न्यूज चैनल भी मैदान में कूद पड़े हैं.

नतीजा, चैनलों पर लंबे अरसे बाद क्रिकेट, सिनेमा, क्राइम और सेलेब्रिटीज से इतर राजनीतिक खबरों की वापसी हुई है. नियमित और स्पेशल बुलेटिनों के अलावा प्राइम टाइम बहसों में राजनीतिक मुद्दों खासकर चुनावी घमासान को अच्छी-खासी कवरेज मिलने लगी है.

हालांकि चुनाव पांच राज्यों में हो रहे हैं लेकिन न्यूज चैनलों का सबसे अधिक फोकस उत्तर प्रदेश पर है. उत्तर प्रदेश चुनाव को 24x7 कवरेज देने के लिए एक दर्जन से ज्यादा प्रमुख हिंदी न्यूज चैनलों के अलावा जी न्यूज-यू.पी, ईटीवी-यू.पी, सहारा-यू.पी, महुआ-यू.पी और जनसंदेश जैसे आधा दर्जन से अधिक क्षेत्रीय न्यूज चैनल भी कमर कसकर मैदान में उतर पड़े हैं.

चैनलों पर ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ जैसे दर्जनों कार्यक्रम शुरू हो गए हैं जिनमें प्रमुख शहरों से विभिन्न पार्टियों के उम्मीदवारों की तू-तू-मैं-मैं से लेकर चुनावी रिपोर्टें और समीकरण समझाए जा रहे हैं.

यही नहीं, राहुल गाँधी जैसे स्टार प्रचारकों की चुनावी सभाओं के लाइव कवरेज दिखाए जा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों और उनके बड़े नेताओं की प्रेस कांफ्रेंस दिल्ली और लखनऊ से लाइव हो रही है. इस तरह पार्टियों के बीच श्लील-अश्लील आरोप-प्रत्यारोपों से लेकर नेताओं के दलबदल, टिकट और उम्मीदवारी के लिए मारामारी, बागियों की धमाचौकड़ी तक सब कुछ लाइव है या आगे-पीछे चैनलों पर है.

चुनाव आयोग के निर्देश पर चुनावी आचार संहिता को लागू करने के लिए नगद रूपयों से लेकर शराब जब्ती की रिपोर्टों के अलावा नेताओं/प्रत्याशियों के हर उल्टे-सीधे कारनामों पर न्यूज चैनलों के कैमरों की निगाहें लगी हुई हैं.

इस तरह न्यूज चैनल खासकर क्षेत्रीय चैनल इस हाई वोल्टेज चुनाव के नए अखाड़े बन गए हैं. यह दिखने और दिखाने का दौर है. मान लिया गया है कि जो जितना दिखेगा, वह चुनावों में उतना ही चमकेगा.

एक मायने में यह राजनीति और चुनावों के टीवीकरण का दौर हैं. चैनलों से हवा बनाने में मदद मिलती है. जाहिर है कि पार्टियों और नेताओं में न्यूज चैनलों पर अधिक से अधिक एयर टाइम जुगाड़ने की होड़ लगी हुई है. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि इन चुनावों में पैसा पानी की तरह बह रहा है.

चैनलों के लिए भी चुनाव हर्रे लगे, न फिटकिरी, रंग चोखा के तर्ज पर अच्छी कमाई का मौका हो गए हैं. आश्चर्य नहीं कि मंदी की मार से दबे न्यूज चैनलों के लिए चुनाव संजीवनी की तरह हो गए हैं. जब हजारों करोड़ रूपये दांव पर लगे हों तो न्यूज चैनल भी अपनी झोली भरने में पीछे नहीं रहना चाहते हैं.

चुनावी विज्ञापनों से कमाई के अलावा चैनलों खासकर क्षेत्रीय चैनलों पर दबे-छुपे ‘पेड न्यूज’ भी चल रहा है. हालांकि इसे साबित करना मुश्किल है लेकिन अगर इन चैनलों पर चलनेवाली बहुतेरी चुनावी खबरों और चुनावी सभाओं-रैलियों की लाइव कवरेज को गौर से देखिए तो उसमें एक पैटर्न और झुकाव साफ़ दिखाई देता है.

लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि इस कवरेज से दर्शकों को क्या मिल रहा है? लोकतंत्र कितना समृद्ध हो रहा है? इक्का-दुक्का अपवादों को छोडकर इस सवाल का जवाब निराश करनेवाला है.

चैनलों की चुनावी कवरेज में दर्शकों उर्फ वोटरों को सूचनाएं कम और प्रचार अधिक, चुनाव की बारीकियां कम और शोर-शराबा अधिक, मुद्दों की स्पष्टता कम और भ्रम अधिक, विचार कम और पूर्वाग्रह अधिक, जमीनी हकीकत कम और राजनीतिक चंडूखाने की गप्पें अधिक छाई हुई हैं. रिपोर्टर ठोस सूचनाएं और जानकारियां कम और विचार ज्यादा उगलते दिखते हैं.

यही नहीं, चैनलों पर होनेवाली प्राइम टाइम बहसों में पार्टियों और उनके नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और हंगामे के बीच असली मुद्दे गुम से हो जाते हैं. बहस का मतलब वाकयुद्ध और भाषाई कुश्ती हो गई है. इससे थोड़ी देर के लिए चैनलों के परदे पर खासी उत्तेजना और सनसनी भले पैदा हो जाए.

लेकिन इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि पार्टियों, उनके नेताओं और उम्मीदवारों की जवाबदेही नहीं तय हो पाती है. पिछले पांच सालों तक सरकार और विपक्ष में उनके प्रदर्शन का हिसाब-किताब नहीं हो पाता है. वे उन असुविधाजनक और तीखे सवालों का जवाब देने से बच निकलते हैं जो चुनावों के मौके पर उनसे जरूर पूछी जानी चाहिए.

लेकिन ज्यादातर यह दिखाई पड़ता है कि चैनलों के एंकर और उनके रिपोर्टर बिना किसी तैयारी, शोध और गहरी छानबीन के नेताओं और उम्मीदवारों से ऐसे सवाल पूछते हैं जो पी.आर पत्रकारिता की हद में आते हैं.

कहना मुश्किल है कि ऐसा नासमझी में होता है या किसी समझदारी के साथ. इसके अलावा चैनलों के चुनावी जनतंत्र में व्यक्तियों (नेताओं/उम्मीदवारों) पर इतना अधिक फोकस होता है कि असली मुद्दे और सवाल नेपथ्य में चले जाते हैं. जमीनी हलचलें और बदलाव निगाहों से ओझल हो जाती हैं.

पार्टियां और उनके नेता यही चाहते हैं. चैनल भी जाने-अनजाने उनके इस खेल में हिस्सेदार बन जाते हैं और चुनावों को तमाशा बना डालते हैं. बताने की जरूरत नहीं है कि इस तमाशे में बेवकूफ कौन बनता है?

('तहलका' के ३० जनवरी के अंक में प्रकाशित स्तम्भ. आप चाहें तो इस लेख पर अपनी टिपण्णी यहाँ भी दे सकते हैं:http://www.tehelkahindi.com/stambh/diggajdeergha/forum/1081.html#en )

कोई टिप्पणी नहीं: