मंगलवार, जनवरी 17, 2012

विरोध का जनतंत्र बनाम कारपोरेट मीडिया प्रबंधित जनतंत्र


कार्पोरेट मीडिया की विश्वसनीयता दिन पर दिन रसातल में जा रही है

पहली किस्त  

देश-दुनिया में राजनीतिक झंझावातों और छोटे-बड़े राजनीतिक परिवर्तनों, सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल और प्राकृतिक-मानव निर्मित त्रासदियों के बीच एक और साल गुजर गया. कई मामलों में काफी हद तक गुजरे सालों से मिलता-जुलता होने के बावजूद कई मामलों में यह साल बहुत खास रहा. देश के लिए भी और दुनिया के लिए भी.

निश्चय ही, इस साल को पारिभाषित करने वाली सबसे महत्वपूर्ण परिघटना दुनिया भर में कारपोरेट लूट, भ्रष्टाचार, बढ़ती सामाजिक-आर्थिक गैर बराबरी-विषमता और तानाशाही के खिलाफ और सच्चे जनतंत्र के लिए भड़के आन्दोलनों, विरोध प्रदर्शनों और कब्ज़ा-घेराव-धरना-हड़ताल में आम लोगों खासकर मध्य वर्ग की बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी थी.

आश्चर्य नहीं कि मशहूर समाचार पत्रिका “टाइम” ने वर्ष २०११ के ‘पर्सन आफ द इयर’ के बतौर उन ‘प्रदर्शनकारियों’ को चुना है जिन्होंने अरब जगत में ट्यूनीशिया से लेकर मिस्र में दमनकारी तानाशाहियों, यूरोप में बड़ी पूंजी को खुश करने के लिए सामाजिक सुरक्षा में कटौतियों और अमेरिका में कारपोरेट और आवारा पूंजी के लालच और हवस के खिलाफ ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ (आक्युपाई वाल स्ट्रीट) से लेकर भारत में कारपोरेट और राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल के लिए शुरू हुए आन्दोलनों की अगुवाई की है.

इन आम प्रदर्शनकारियों ने इस साल को बहुत खास बना दिया. इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये आंदोलन, विरोध प्रदर्शन और प्रदर्शनकारी कई मायनों में पहले के आन्दोलनों, विरोधों और प्रदर्शनकारियों से अलग थे.

उनकी सक्रियता, भागीदारी, गोलबंदी से लेकर विरोध प्रदर्शनों के तरीकों और सबसे बढ़कर उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों ने न सिर्फ देश-दुनिया का ध्यान खींचा बल्कि उसके राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक एजेंडे पर कई नए सवालों और मुद्दों को खड़ा कर दिया है.

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इन आन्दोलनों ने एक बार फिर बहुत मजबूती से यह साबित करने की कोशिश की है कि लोकतंत्र को लोकतंत्र बनाने में लोगों की सक्रिय भागीदारी, गोलबंदी, उनके आन्दोलनों और विरोध प्रदर्शनों की बहुत बड़ी भूमिका है.

सच पूछिए तो लोकतंत्र की आत्मा है स्थापित-यथास्थितिवादी सत्ताओं और शासक वर्गों और उनके एजेंडे के खिलाफ असहमति के स्वर, विरोध प्रदर्शन और उन्हें चुनौती देनेवाले बदलाव के आंदोलन. इस मायने में बीते साल दुनिया भर में कारपोरेट भूमंडलीकरण, नव उदारवादी अर्थनीतियों, आवारा पूंजी की मनमानी और तानाशाही के बीच निरंतर सिकुड़ते और दमनकारी होते पूंजीवादी लोकतंत्रों में असहमति की तेज होती आवाजों और विरोध प्रदर्शनों की नई लहरों ने लोकतंत्र की आत्मा को पुनरुज्जीवित करने की कोशिश की है.

यही नहीं, इन आन्दोलनों ने राजनीति के नए मुहावरे गढे हैं, उनके मुद्दों-नारों ने समतामूलक, न्यायपूर्ण और सच्चे लोकतंत्र की लड़ाइयों को नया आवेग दिया है और लोगों खासकर मध्यवर्ग को घरों से बाहर सड़कों पर उतरने के लिए प्रेरित किया है.

लेकिन इन विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों के बीच मुख्यधारा का मीडिया खासकर इलेक्ट्रानिक मीडिया कहाँ खड़ा है? यह ऐसा सवाल है जो कारपोरेट मीडिया को खुद से जरूर पूछना चाहिए. यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि जो कारपोरेट मीडिया खुद को ‘जन माध्यम’ (मास मीडिया) कहता है, उसका ‘जन यथार्थ’ (मास रीयलिटी) से कितना सम्बन्ध रह गया है?

कहने की जरूरत नहीं है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में तानाशाही और नव उदारवादी अर्थनीति के खिलाफ फूट पड़े इन विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों के प्रति कारपोरेट मीडिया का शुरूआती रुख उपेक्षा और सिरे से ख़ारिज करने का था.

लेकिन जब नजरंदाज करना मुश्किल होने लगा तो उसके प्रति एक शक-संदेह और हैरानी से भरा भाव सामने आया और उसकी खिल्ली उड़ाने की कोशिश की गई.

लेकिन जब विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों का दायरा बढ़ने और उनकी आवाज़ और तेज होने लगी तो कारपोरेट मीडिया ने अपना ट्रैक बदलकर एक ओर उन्हें यूटोपियन, आदर्शवादी, अव्यवहारिक और अराजक बताना शुरू कर दिया, वहीँ दूसरी ओर, उसे हड़पने में भी जुट गया.

यही कारण है कि जो विरोध प्रदर्शन उसके अपने निहित स्वार्थों और हितों के अनुकूल थे, उन्हें उसने बढ़-चढ़कर समर्थन दिया, यहाँ तक कि इन प्रदर्शनों को गोद ले लिया लेकिन जहां भी ये विरोध प्रदर्शन और आंदोलन सीधे उनके कारपोरेट हितों पर चोट कर रहे थे, उन्हें यूटोपियन से लेकर खलनायक बनाने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी.

उदाहरण के लिए पश्चिमी कारपोरेट मीडिया ने जिस तरह से अरब वसंत से लेकर रूस में पुतिन विरोधी प्रदर्शनों तक को हाथों-हाथ लिया, उसी तरह का उत्साह आक्युपाई वाल स्ट्रीट और ग्रीस से लेकर इटली में बजट और सामाजिक सुरक्षा में कटौतियों के खिलाफ भड़के विरोध प्रदर्शनों के प्रति नहीं दिखाई पड़ा.

वैश्विक कारपोरेट मीडिया में अरब वसंत खासकर सीरिया और लीबिया में हुए विरोध प्रदर्शनों के प्रति न सिर्फ अतिरिक्त उत्साह दिखाई पड़ा बल्कि उन्होंने असद और गद्दाफी सरकार के खिलाफ एक तरह का मोर्चा खोल दिया.

पश्चिमी मीडिया का यह पूर्वाग्रह खुलकर दिखाई पड़ा. उन्होंने सीरिया, ईरान और लीबिया में मानवीय आधार और परमाणु हथियारों के खतरे के मद्देनजर नाटो/अमेरिकी सैन्य कार्रवाई के लिए जनमत बनाने की पूरी कोशिश की.

हैरानी की बात नहीं है कि लीबिया में गद्दाफी को एक क्रूर तानाशाह के बतौर पेश करते हुए पश्चिमी मीडिया ने नाटो की सैन्य कार्रवाई को खुलकर समर्थन दिया. हालांकि इसमें कुछ भी नया नहीं है. यह पश्चिमी वैश्विक कारपोरेट मीडिया की पुरानी रणनीति है. इस मायने में वह काफी हद तक अमेरिकी विदेश विभाग और नाटो के प्रवक्ता की तरह काम करता है.

सच यह है कि वह ऐसी सैन्य कार्रवाइयों के लिए जनमत बनाने के जरिये जमीन तैयार करता है. लीबिया में गद्दाफी शासन के अंत के बाद इस वैश्विक कारपोरेट मीडिया के निशाने पर सीरिया, ईरान और उत्तर कोरिया हैं जिनके खलनायकीकरण का अभियान जोर-शोर से जारी है.

आश्चर्य नहीं होगा अगर वर्ष २०१२ में वैश्विक कारपोरेट मीडिया की मदद से अमेरिका/नाटो इन्हें सैन्य निशाना भी बनाएं.

लेकिन इसके ठीक उलट इन बहुराष्ट्रीय वैश्विक मीडिया कंपनियों ने यूरोप और अमेरिका में कारपोरेट पूंजीवाद और नव उदारवादी अर्थनीतियों के खिलाफ भड़के लोगों के गुस्से, विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों को उस तरह का सहानुभूतिपूर्ण कवरेज तो दूर उन्हें तथ्यपूर्ण, वस्तुनिष्ठ और निष्पक्ष कवरेज भी नहीं दिया. यह स्वाभाविक भी था.

असल में, इन विरोध प्रदर्शनों और आन्दोलनों खासकर आक्युपाई वाल स्ट्रीट प्रदर्शनों में सिर्फ बड़े कारपोरेट समूह, सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग ही निशाने पर नहीं थे बल्कि खुद कारपोरेट मीडिया और उसका झूठ भी निशाने पर थे.

सच पूछिए तो इस आंदोलन ने जिस तरह से मुख्यधारा के कारपोरेट मीडिया को नकार दिया और नए और वैकल्पिक मीडिया के जरिये लोगों के बीच सूचना-संवाद-बहस और गोलबंदी शुरू की है, वह भविष्य की ओर संकेत करता है.

यह कारपोरेट मीडिया के लिए खतरे की घंटी है. उसकी विश्वसनीयता दिन पर दिन नीचे की ओर जा रही है. बीते साल में भी कई ऐसी घटनाएँ हुईं जिनसे वैश्विक कारपोरेट मीडिया की विश्वसनीयता और साख को और गहरा धक्का लगा है.

खासकर ब्रिटेन में जिस तरह से मीडिया मुग़ल रूपर्ट मर्डोक और उनकी कंपनी न्यूज इंटरनेशनल की गैरकानूनी और अनैतिक गतिविधियां सामने आईं हैं और उसके खिलाफ लोगों का गुस्सा फूटा है, वह इस बात का सबूत है कि बड़े वैश्विक मीडिया समूहों के लिए आगे का रास्ता इतना आसान नहीं होगा. उनकी सार्वजनिक जांच पड़ताल बढ़ेगी और उनसे अब कहीं ज्यादा जवाबदेह होने की मांग की जायेगी.

यही नहीं, उनके लिए शासक वर्गों के हित में सूचनाओं और विमर्शों का प्रबंधन करना भी उतना आसान नहीं रह गया है. इस मायने में बीता साल पारंपरिक कारपोरेट मीडिया का नहीं बल्कि नए माध्यमों खासकर विकीलिक्स जैसे मंचों और सोशल नेटवर्किंग साइट्स का था.

रैडिकल समूहों ने लोगों को जागरूक बनाने से लेकर उन्हें गोलबंद करने और सामूहिक कार्रवाइयों में उतारने में इन नए माध्यमों का जिस तरह से खुलकर उपयोग किया है, उसने कारपोरेट मीडिया के साथ-साथ सत्ता प्रतिष्ठानों और शासक वर्गों को भी सतर्क कर दिया है. आश्चर्य नहीं कि इस साल सरकारों के निशाने पर ये नए माध्यम भी आ गए हैं.

जारी...

('कथादेश' के जनवरी'१२ के अंक में प्रकाशित स्तम्भ की पहली किस्त)

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