सोमवार, नवंबर 15, 2010

इट्स जॉब स्टुपिड !

देश में ऊँची बेरोजगारी दर के बावजूद सरकार अमेरिका को रोजगार आउटसोर्स कर रही है

आप चाहें या न चाहें लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को इसका श्रेय देना पड़ेगा. उनके मुंबई दौरे से ‘रोजगार’ शब्द अचानक चर्चाओं में आ गया है. अपनी राजनीतिक मजबूरियों के कारण ही सही लेकिन ओबामा जिस तरह से ‘जॉब-जॉब’ का मन्त्र जाप कर रहे हैं, उसे अनदेखा करना मुश्किल है. हमारे-आपके लिए रोजी-रोजगार भले ही कितना भी महत्वपूर्ण क्यों न हो लेकिन कारोबारी समझौतों में रोजगार को शायद ही कभी इतना महत्व मिलता रहा हो, जितना ओबामा की भारत यात्रा में मिला है.

ऐसा पहली बार हो रहा है कि कारोबारी डील की कुल कीमत के बराबर चर्चा रोजगार की भी हो रही है. खबरों के मुताबिक ओबामा के मुंबई दौरे में अमेरिकी कंपनियों ने भारतीय कंपनियों के साथ लगभग १० अरब डालर (४४ हजार करोड़ रूपये) के कोई बीस समझौतों पर दस्तखत किए हैं जिनसे अमेरिका में कोई ५० हजार नई नौकरियां पैदा होंगी. जाहिर है कि ओबामा इन सौदों के जरिये एक तीर से कई शिकार कर रहे हैं.

वह एक ओर इन बड़े-बड़े सौदों के जरिये राजनीतिक रूप से अत्यधिक ताकतवर अमरीकी कारपोरेट लाबी को खुश करने की कोशिश कर रहे हैं तो दूसरी ओर, उनकी निगाह इन सौदों से पैदा होनेवाले रोजगार की जोरशोर से चर्चा करके मध्यमवर्गीय-कामकाजी अमेरिकियों का समर्थन जीतने पर है.

यह ओबामा की राजनीतिक मजबूरी है. माना जा रहा है कि अमेरिकी कांग्रेस के लिए हाल में हुए चुनावों में ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी की हार की सबसे बड़ी वजह इस समय अमेरिका में बेरोजगारी दर का ९.५ प्रतिशत के आसपास पहुंच जाना है. असल में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था जिस संकट में फंसी है, वह केवल एक अर्थव्यवस्था का संकट नहीं है बल्कि पूरे वैश्विक पूंजीवाद का संकट है.

हालांकि इस संकट से निकलने के लिए अमेरिका और यूरोप समेत अधिकांश विकासशील देशों ने स्टिमुलस पैकेजों के नाम पर खरबों डालर झोंक दिए लेकिन उनका असली फायदा वे बैंकिंग और वित्तीय कंपनियां उठा ले गईं जिनके लालच और सट्टेबाजी के कारण संकट पैदा हुआ था. नतीजा संकट कमोबेश ज्यों का त्यों बना हुआ है.

इस गहराते संकट ने एक झटके में कारपोरेट भूमंडलीकरण पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं. यहां तक कि अमेरिका समेत तमाम विकसित देशों में स्थानीय जनमत भूमंडलीकरण के नाम पर रोजगार के आउटसोर्सिंग से लेकर घरेलू अर्थव्यवस्था में प्रवासी कामगारों की बढ़ती संख्या के खिलाफ होता जा रहा है. इस कारण राजनीतिक रूप से कारपोरेट भूमंडलीकरण का बचाव करना मुश्किल हो रहा है. आश्चर्य नहीं कि अमेरिका में हाल के महीनों में आउटसोर्सिंग आदि के खिलाफ सुर तेज हो रहे हैं जिनकी अगुवाई खुद ओबामा कर रहे हैं.

हालांकि तथ्य यह है कि आउटसोर्सिंग और प्रवासी कामगार कारपोरेट भूमंडलीकरण की अनिवार्यताएं हैं और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ बड़ी अमेरिकी पूंजी जिम्मेदार है. लेकिन ओबामा असली वजह को निशाना बनाने के बजाय उन विकासशील देशों और उनकी कंपनियों को निशाना बना रहे हैं जिनके सस्ते श्रम के बिना कई बड़ी अमेरिकी कंपनियों के लिए बाजार में टिकना मुश्किल हो जायेगा. ओबामा इन्हीं कंपनियों को बचाने के लिए ‘रोजगार-रोजगार’ खेल रहे हैं ताकि अमेरिकी जनमत को संतुष्ट किया जा सके.

अफसोस की बात यह है कि ओबामा के इस खेल में मनमोहन सिंह सरकार भी शामिल हो गई है. वह अमेरिका को खुश करने के लिए भारत से रोजगार आउटसोर्स करने पर भी तैयार हो गई है. सवाल सिर्फ ५० हजार नौकरियों का ही नहीं है बल्कि भारतीय औद्योगिक संगठन- सी.आई.आई के मुताबिक अगले एक दशक में भारत द्वारा अमेरिकी हथियारों, युद्धक विमानों, परमाणु रिएक्टरों और उपकरणों और इन्फ्रास्ट्रक्चर क्षेत्र की मशीनरी की खरीद से अमेरिका में सात लाख से अधिक रोजगार के नए अवसर पैदा होंगे.

इस उदारता को देखकर ऐसा लगता है कि भारत में रोजगार की कोई समस्या ही नहीं है. लगता है कि यू.पी.ए सरकार ने खुद अपने श्रम मंत्रालय के लेबर ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट नहीं देखी है जिसके मुताबिक वर्ष २००९-१० में देश में बेरोजगारी की दर ९.४ प्रतिशत तक पहुंच चुकी है. इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय देश में चार करोड़ से अधिक बेरोजगार हैं. बेरोजगारी की यह वही दर है जिसपर अमेरिकी राजनीति में इस कदर भूचाल आया हुआ है कि ओबामा की पूरी कूटनीति सिर्फ एक शब्द- रोजगार के इर्द-गिर्द घूम रही है.

लेकिन भारत में बेरोजगारी की इस विस्फोटक स्थिति के बावजूद कहीं कोई हलचल नहीं है. इस मुद्दे पर न तो कभी संसद ठप्प हुई और न ही कोई बंद हुआ. ऐसा लगता है, जैसे इस मुद्दे पर सरकार, विपक्ष, राजनीतिक दलों और कारपोरेट मीडिया में एक ‘षड्यंत्र भरी चुप्पी’ छाई हुई है. जाहिर है कि इसकी कीमत देश के वे करोड़ों बेरोजगार चुका रहे हैं जिनकी नौकरियों को सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता के वायदे की भेंट चढ़ाने का फैसला कर लिया गया है.

लेकिन अंततः इसकी कीमत भारतीय अर्थव्यवस्था को ही चुकानी पड़ेगी क्योंकि बढ़ती बेरोजगारी से घरेलू बाजार में भी मांग में गिरावट की वही स्थिति पैदा हो सकती है जिसका सामना अमेरिका समेत विकसित देश कर रहे हैं. बिल क्लिंटन के शब्दों में कुछ फेरबदल करके कहें तो मुद्दा सुरक्षा परिषद् की सीट या पाकिस्तान को अमेरिकी झाड़ नहीं है- "इट्स जाब स्टुपिड!"

('अमर उजाला' के १२ नवम्बर के अंक सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित)