शनिवार, नवंबर 27, 2010

राजा ही नहीं, सुखराम और प्रमोद महाजन को भी याद कीजिये

उन कंपनियों  को भी मत बख्शिये जो आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने की कीमत पर सुखराम से लेकर महाजनों और राजाओं की मदद से भारी मुनाफा कमा रही  हैं  


क्या आपको कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार में संचार मंत्री रहे पंडित सुखराम की याद है? वही सुखराम जिनके घर और बिस्तर से आज से कोई १५ साल पहले सी.बी.आई ने ३.६ करोड़ रूपये नकद बरामद किए थे. सी.बी.आई ने उनपर संचार मंत्रालय में घोटाले और आय से अधिक संपत्ति के मामलों में मुक़दमा दर्ज किया था जिसमें उन्हें एक साल की सजा भी हुई. कहा जाता है कि सुखराम के कार्यकाल में संचार मंत्रालय में भ्रष्टाचार, पक्षपात और अनियमितताएं अपने चरम पर थीं.

उस समय हर सौदे और लाइसेंस से लेकर छोटे से छोटे काम की दर तय थी. अनुमानों के मुताबिक, सुखराम के कार्यकाल के दौरान हुए सौदों और लाइसेंस के बंटवारों में कोई १५०० से २००० करोड़ रूपये घूस की रकम का लेनदेन हुआ था जो मंत्री और अफसरों से लेकर दलालों के बीच बंटा था.

आज यहां सुखराम को याद करने का उद्देश्य सिर्फ यह रेखांकित करना है कि संचार मंत्रालय में भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और घोटालों की कथाएं ‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’ की तरह व्यापक, गहरी और दूर तक फैली हुई हैं. हालांकि संचार मंत्रालय में घोटालों और अनियमितताओं का इतिहास बहुत पुराना है लेकिन पिछले १८ वर्षों में जब से संचार मंत्रालय में उदारीकरण के नाम पर निजी देशी-विदेशी टेलीकाम कंपनियों को प्रवेश की इजाजत मिली है, भ्रष्टाचार और घोटालों की संख्या ही नहीं उनका आकार भी बहुत बढ़ गया है. यही नहीं, पिछले डेढ़ दशक में संचार मंत्रालय में हुए सभी बड़े सौदों और प्राइवेट टेलीकाम आपरेटरों को बंटे लाइसेंसों और स्पेक्ट्रम पर गंभीर सवाल और उंगलियां उठी हैं.

कहने का तात्पर्य यह कि आज १.७६ लाख करोड़ रूपये से अधिक के जिस २ जी घोटाले की इतनी चर्चा हो रही है, उसकी नींव ९० के दशक की शुरुआत में ही रख दी गई थी. असल में, आर्थिक उदारीकरण के दौरान जिस तरह से अर्थव्यवस्था के अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों की तरह टेलीकाम क्षेत्र को देशी-विदेशी निजी कंपनियों के लिए खोला गया, उस प्रक्रिया में ही भारी गडबडियां थीं. इस पूरी प्रक्रिया में टेलीकाम कंपनियों और उनके राजनीतिक और नौकरशाह आकाओं को अनुचित फायदा पहुंचने के लिए जान-बूझकर इतने छिद्र छोड़े गए कि सुखराम से लेकर ए. राजा तक और बड़े टेलीकाम आपरेटरों और एच.एफ.सी.एल से लेकर हालिया यूनिटेक और स्वान जैसी कंपनियों को मनमानी करने का लाइसेंस सा मिल गया.

हालांकि आज उस प्रसंग की बहुत चर्चा नहीं हो रही है लेकिन सच्चाई है कि संचार मंत्री के बतौर सुखराम ने जिस तरह से नियम-कानूनों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर मोबाइल और अन्य टेलीकाम सेवाएं शुरू करने के लिए लाइसेंस और स्पेक्ट्रम बांटे और खासकर अपने हिमाचली मित्र महेंद्र नाहटा की कंपनी एच.एफ.सी.एल पर कृपादृष्टि बरसाई, उसका मुकाबला सिर्फ ए. राजा के कार्यकाल से ही हो सकता है. लेकिन ऐसा नहीं है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में टेलीकाम मंत्रालय में रामराज्य आ गया था बल्कि सच यह है कि सुखराम के ज़माने के घोटालों और अनियमितताओं को ठीक करने के नाम पर वाजपेयी सरकार ने भी आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने की कीमत पर निजी टेलीकाम कंपनियों पर नजरे-इनायत बनाये रखी.

उल्लेखनीय है कि एन.डी.ए सरकार के कार्यकाल में ही उन निजी टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस से राजस्व साझेदारी- रेवेन्यू शेयरिंग व्यवस्था में शिफ्ट करने की इजाजत दी गई थी. हुआ यह था कि पहले इन कंपनियों ने ऊँची बोलियां लगाकर लाइसेंस और स्पेक्ट्रम हासिल कर लिए और बाद में सरकार पर दबाव बनाया कि उनके लिए इतनी ऊँची लाइसेंस फ़ीस दे पाना संभव नहीं है और घाटे के कारण उन्हें अपना कारोबार बंद करना पड़ेगा. संचार मंत्री प्रमोद महाजन और बाद में अरुण शौरी ने अत्यधिक उदारता और अतिरिक्त तत्परता दिखाते हुए निजी टेलीकाम कंपनियों को लाइसेंस फ़ीस के बजाय रेवेन्यू शेयरिंग में शिफ्ट होने की इजाजत दे दी.

जाहिर है कि इसके कारण सरकारी खजाने को सैकड़ों करोड़ रूपये का चूना लगा. यह पूरा फैसला इसलिए भी गलत था कि इन कंपनियों ने बोली प्रक्रिया में अनाप-शनाप और अत्यधिक ऊँची बोली लगाकर लाइसेंस और स्पेक्ट्रम हथिया लिए और बाद में अपने कांट्रेक्ट की शर्तों से पीछे हटकर उसे बदलवा लिया जबकि वे कंपनियां जिन्होंने बोली प्रक्रिया में कम लेकिन तार्किक बोली लगाई थी, वे लाइसेंस से वंचित हो गईं. एन.डी.ए सरकार के फैसले ने पूरी निविदा और बोली प्रक्रिया को ही अप्रासंगिक बना दिया. यही नहीं, तत्कालीन संचार मंत्री प्रमोद महाजन पर रिलायंस इन्फोकाम के प्रति कुछ ज्यादा ही उदारता दिखाने के भी आरोप लगे.

दरअसल, उत्तर उदारीकरण दौर में टेलीकाम जैसे दुधारू आर्थिक मंत्रालयों पर उनके मंत्रियों, बड़े अफसरों, रेग्युलेटर, देशी-विदेशी बड़ी टेलीकाम कंपनियों, पावर ब्रोकर्स और लाबीइंग कंपनियों का एक ऐसे गठजोड़ राज कर रहा है जो सारे नियम-कानूनों और प्रक्रियाओं को ताक पर रखकर आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने को लूट रहा है. लेकिन इस गठजोड़ की ताकत सिर्फ यही नहीं है कि वह नियम-कानूनों की को खुलेआम ठेंगा दिखता है बल्कि इसकी सबसे बड़ी ताकत यह है कि यह उदार और उद्योग अनुकूल ऐसी नीतियां और नियम बनवाने में कामयाब हो रहा है जिससे देशी-विदेशी छोटी-बड़ी टेलीकाम कंपनियों को आम उपभोक्ताओं और सरकारी खजाने की कीमत पर भारी मुनाफा बनाने का मौका मिल रहा है.

कहने को यह सब नियमाकूल है लेकिन सवाल यह है कि ये नियम कौन और किसके हित में बना रहा है? दोहराने की जरूरत नहीं है कि देशी-विदेशी बड़ी टेलीकाम कंपनियां और उनके एजेंट ये नियम बनवा रहे हैं. इन टेलीकाम कंपनियों की संस्था- सेल्युलर आपरेटर्स असोसिएशन आफ इंडिया- सी.ओ.ए.आई की ताकत का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उसने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके सार्वजनिक क्षेत्र की दोनों टेलीकाम कंपनियों- एम.टी.एन.एल और बी.एस.एन.एल को पांच साल तक मोबाइल सेवा में प्रवेश करने से रोके रखा. इसका खामियाजा आम उपभोक्ताओं को किस तरह से उठाना पड़ा, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि जैसे ही इन दोनों सरकारी कंपनियों को मोबाइल सेवा की इजाजत मिली, मोबाइल सेवा की दरें गिरने लगीं.

इन प्राइवेट कंपनियों की ताकत और सरकार पर प्रभाव का ही नतीजा है कि दोनों सरकारी टेलीकाम कंपनियों को एक सोची-समझी योजना के तहत धीरे-धीरे खत्म किया जा रहा है. एक और उदाहरण नंबर पोर्टेबिलिटी के फैसले को लंबे समय तक टालने में देखा जा सकता है. यही नहीं, देशी-विदेशी बड़ी टेलीकाम कंपनियां और उनकी सेवाओं से अधिकांश उपभोक्ताओं तंग और परेशान हैं लेकिन उनकी कहीं सुनवाई नहीं है. टेलीकाम मंत्रालय की तरह ट्राई उपभोक्ताओं के हितों के बजाय बड़ी कंपनियों के हितों का रक्षक बन चुका है. संचार मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री नहीं, कंपनियां और उनके राजनीतिक-व्यावसायिक-मीडिया एजेंट लाबीइंग की ताकत से करवा रहे हैं.

ऐसे में, टेलीकाम मंत्रालय में घोटाले नहीं तो क्या वहां सदाचार का रिंग बजेगी? यह ठीक है कि इस कारण ए. राजाओं, महाजनों, मारानों, सुखरामों का दोष कम नहीं हो जाता है. लेकिन उस व्यवस्था को भी बख्शना ठीक नहीं है जो सुखराम से लेकर ए. राजा जैसों को ही पैदा कर रही है. इस व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करना इसलिए भी जरूरी है कि सुखराम से लेकर ए. राजा तक राजनेता और अफसर तो पकड़ में आ भी जाते हैं लेकिन घोटालों की सबसे बड़ी लाभार्थी कंपनियां साफ बच निकलती हैं. एक बार फिर से राजा की बलि चढाकर कंपनियों को बचाने की मुहिम शुरू हो गई है और इसके साथ ही, एक नए घोटाले के आसार बनने लगे हैं.

(राष्ट्रीय सहारा के २७ नवम्बर'१० के अंक में हस्तक्षेप में प्रकाशित : http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=17 )

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