बुधवार, नवंबर 03, 2010

दोस्तों, देश जमीन का टुकड़ा या उसपर खींचा नक्शा भर नहीं है...

...और न संविधान अंतिम सत्य है...

“(देश) के प्रति प्रेम को (जबरन) पैदा (मैन्युफैक्चर) या कानून से संचालित नहीं किया जा सकता है.”
- महात्मा गांधी

मेरे कई फेसबुकिया दोस्तों और विद्यार्थियों को अरुंधती के कश्मीर पर दिए बयान पर इतनी आपत्ति है कि वे उन्हें देशद्रोही मान बैठे हैं और उन्हें जेल भेजने की मांग कर रहे हैं. कुछ थोड़ी रियायत देते हुए उन्हें देश निकाला से कम की सजा देने के पक्ष में नहीं हैं. कुछ का यह भी कहना है कि अरुंधती पाकिस्तान क्यों नहीं चली जाती हैं? सभी की शिकायत है कि भला दुनिया में कौन से देश देशद्रोह और देश को तोड़ने वाली बातें कहने की इजाजत देता है?
कहने की जरूरत नहीं है कि अधिकांश मित्रों के तर्कों में इस दौर में ‘देशभक्ति’ का होलसेल ठेका लिए ‘टाइम्स नाउ’ के अर्णब गोस्वामी के लगभग दैनिक शोर-शराबे की छाप साफ दिखाई देती है. सबसे पहले इन मित्रों के ‘तर्कों’ को देखते हैं:
• अरुंधती ने “संविधान और भारतीय गणराज्य पर हमला” किया है इसलिए उन्हें संविधान में दी गई अभिव्यक्ति की आज़ादी का हक हासिल नहीं है. यह इस “आज़ादी का दुरुपयोग” है.
• अरुंधती ने अगर ऐसा चीन या पाकिस्तान या उत्तर कोरिया में बोला होता तो उन्हें फंसी पर लटका दिया जाता. वे शुक्र मनाएं कि भारत में हैं जहां इसे बर्दाश्त किया जा रहा है.
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ कुछ शर्तें भी हैं. इस आज़ादी के नाम पर बकवास की आज़ादी नहीं दी जा सकती है.
• अरुंधती ने गिलानी के साथ मंच क्यों शेयर किया? क्या अरुंधती माओवादियों या इस्लामवादियों के राज में भी ऐसे ही बोल पाएंगी?
• भारत एक ‘साफ्ट स्टेट’ है जो आतंकवादियों के समर्थकों और उनके प्रति सहानुभूति रखनेवालों को भी बर्दाश्त करता है.

पहली बात तो यह है कि अरुंधती ने कश्मीर पर जो भी कहा, वह संविधान पर हमला क्यों है? आखिर ऐसा क्यों होता है कि इस देश में ‘आम सहमति’ से अलग हटकर कोई बात कहते ही कुछ लोग इसे तुरंत संविधान और देश पर हमला बताने लगते हैं? क्या यह देश और इसका संविधान इतना कमजोर है कि अरुंधती के बयान मात्र से छिन्न-भिन्न हो जायेगा? अगर ऐसा है तो इस देश का सचमुच भगवान ही मालिक है.

दरअसल, यह एक किस्म का पैरानोइया (भयग्रंथि) है जो भारत के अत्यंत पीड़ादायक विभाजन के बाद से इस देश के मध्यवर्ग में गहराई से बैठा हुआ है. कहने की जरूरत नहीं है कि इस भयग्रंथि का पिछले चार-पांच दशकों की भारतीय राजनीति में शासक वर्गों की पार्टियों खासकर कांग्रेस और भाजपा ने जमकर दोहन किया है. इन पार्टियों और इनके बौद्धिक लगुए-भगुओं ने हमेशा देश की एकता को खतरे में बताया है ताकि उनका देशभक्ति का कारोबार चलता रहे.

सवाल यह है कि जिस संविधान की अक्सर दुहाई दी जाती है, वह इस देश के लोगों के लिए है या लोग संविधान के लिए हैं? जाहिर है कि कोई संविधान लोगों से बड़ा नहीं होता है और न ही कोई देश लोगों से बड़ा होता है क्योंकि देश और संविधान लोग ही बनाते हैं. यही कारण है कि पिछले साठ सालों में संविधान में सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं. यहां तक कि देशप्रेम की सबसे बड़ी ठेकेदार भगवा पार्टी के राज में इस संविधान की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस वेंकटचलैय्या की अध्यक्षता में एक आयोग भी बैठाया गया था.

यही नहीं, जिस राष्ट्रवाद और देशप्रेम की इतनी दुहाई दी जाती है, क्या देश लोगों से बड़ा है? देश कौन बनाता है? क्या देश सिर्फ एक भूभाग भर है या जमीन पर खिंचा गया कोई नक्शा? इतिहास तो यही बताता है कि देश लोगों की इच्छाओं के अनुसार बनते-बिगडते रहे हैं. जो देश लोगों की इच्छाओं, सपनों, भावनाओं, आकांक्षाओं और उम्मीदों के आधार पर बनते हैं और उच्च मानवीय मूल्यों के अनुसार चलते हैं, वही टिके रहते हैं. याद रखिये, राष्ट्रवाद का मतलब अंध राष्ट्रवाद नहीं है. दुनिया का हालिया इतिहास इस बात का गवाह है कि जब भी राष्ट्रवाद, अंध राष्ट्रवाद में बदला है, उसने देश, उसके नागरिकों और समूची मानवता को नुकसान पहुँचाया है.

भूलिए मत, राष्ट्रवाद के नाम पर फासीवाद-नाजीवाद ने न सिर्फ दुनिया को विश्वयुद्ध की आग में झोंक दिया बल्कि खुद अपने देशों को भी बर्बाद कर दिया. इसलिए राष्ट्र से प्रेम जरूर करिए लेकिन आँखें मूंदकर और तर्क का साथ छोड़कर नहीं. देशप्रेम का मतलब अन्याय, मानवाधिकार हनन, दमन-उत्पीडन और सत्ता के जनतंत्र विरोधी रवैये पर चुप्पी साधना नहीं है. देशप्रेम का मतलब यह भी नहीं है कि सत्ता में बैठे लोगों के हर फैसले का समर्थन किया जाए और न ही इसका मतलब यह है कि जो सर्वदलीय राय हो, उसका गुणगान किया जाए.

दूसरे, जिस संविधान से देशप्रेम को जोड़ दिया जाता है और जिसके प्रति अतार्किक और अविवेकपूर्ण निष्ठा की मांग की जाती है, उसके प्रति खुद इसकी शपथ लेकर सत्ता की ऊँची कुर्सियों पर बैठनेवाले महानुभाव कितने समर्पित रहते हैं, यह समझदार मित्रों को बताने की जरूरत नहीं है. पिछले साठ सालों में संविधान की जितनी धज्जियाँ इन लोगों ने उड़ाई है, उतनी माओवादी, नक्सली, कश्मीरी या उत्तर पूर्व के उग्रवादी मिलकर नहीं उड़ा सकते. संविधान को अपनी सुविधा और निहित स्वार्थों के लिए कैसे और किस हद तक तोडा-मरोड़ा जा सकता है, यह संविधान के चैम्पियनों से ज्यादा बेहतर कौन जानता है?

इंतज़ार कीजिये, बाकी कल....

2 टिप्‍पणियां:

parikshit ने कहा…

mujhe ashcharay hai ki aap bhi arundhati roy ko itni gambheerta se lete hain. sawal bayaan ka nahi hai jo aadmi bayaan de raha hai ussko bhi parkha jay , vo pichale dinon ranchi me thi maine bahut kareeb se unhe suna hai. arundhati bahut kam or bahut adhura jaanti hai magar baaten badi badi karti hain. arundhati is waqt khud ki branding me lagi hui hai or aap or mr usme unki help kar rahe hain.

delhi ने कहा…

Satyam buria priam buriat
apki bat sahi hai ki des sirf zamin ka tukda bhar nahi hai.andh rastrvad b des ke liye khatrnak hota hai.lakin kya kisi ko abhvikati ke nam per itni choot di ja sakti hai hi ki vo jo marzi kahe.koi seema to ho na? naton v partyon ne des ke savidhan ka mazak b bana rakha hai. lakin smasia ka solution kya hai?kasmir problem ko arundhhi rai kya dur ker sakti hai? han is smasia ko suljane ke liye apni bat rakhi ja sakti hai.shyad yahi unohne kiya b tha.lakin usko alag alag nazarian se pesh kiya gya.kaha b gyha hai satym buriat priam buria n buriat satyam piriam.