शुक्रवार, मार्च 13, 2009

मुंतज़र अल जैदी की पत्रकारिता

आनंद प्रधान


मुंतज़र अल जैदी को जार्ज बुश पर जूते फेंकने के लिए तीन साल के कैद की सजा सुनाई गई है। ऐसे में यह लेख एक बार फिर प्रासंगिक हो गया है।

इराकी टीवी पत्रकार मुंतज़र अल जैदी ने भरी प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश पर जूते फेंककर प्रतिरोध की पत्रकारिता के इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया है। मुंतज़र न सिर्फ अरब जगत में बल्कि पूरी दुनिया में अमेरिकी नीतियों खासकर राष्ट्रपति बुश की आक्रामक और मनमानी विदेश नीति से नाराज लोगों के नायक बन गए हैं। उन्हें रिहा करने के लिए पूरी दुनिया में प्रदर्शन हुए हैं।
लेकिन दूसरी ओर, कारपोरेट और प्रतिष्ठानी पत्रकारिता संस्थानों में पत्रकारिता के मूल्यों, उसूलों और आचार संहिता का हवाला देते हुए मुंतज़र की आलोचना भी शुरू हो गयी है। कहा जा रहा है कि एक पत्रकार को जूते का नहीं, कलम और कैमरे का इस्तेमाल करना चाहिए। यह भी कि अगर मुंतज़र को बुश की नीतियों से कोई शिकायत और नाराजगी थी तो उसे बुश को सवाल पूछकर घेरना चाहिए था। मुंतज़र की कार्रवाई को अलोकतांत्रिक और अभिव्यक्ति की आजादी के प्रतिकूल बताया जा रहा है। इसके साथ ही एक और पुरानी बहस भी शुरू हो गयी है कि एक पत्रकार, आंदोलनकारी (एक्टिविस्ट) हो सकता है या नहीं?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मुंतज़र ने जो किया, आमतौर पर सामान्य समय में एक आम पत्रकार से उसकी अपेक्षा नहीं की जाती है। लेकिन मुंतज़र के आलोचकों को याद रखना चाहिए कि इराक में स्थितियां बिल्कुल असामान्य हैं। बुश के नेतृत्व में अमेरिका ने इराक पर एक गैर कानूनी, अन्यायपूर्ण और एकतरफा हमला किया, अब उसपर कब्जा कर रखा है और पिछले पांच वर्षों में लाखों इराकी नागरिक मारे गए हैं। इराक इस हमले और अमेरिकी कब्जे के कारण पूरी से तबाह हो चुका है। कहने की जरूरत नहीं है कि इराक अमेरिकी हमले के बाद से जिस असामान्य परिस्थितियों से गुजर रहा है, उसमें सामान्य पत्रकारिता संभव ही नहीं हैं।
विदेशी कब्जे के बीच वहां कलम और कैमरे से अपनी बात कहने की गुंजाइश नहीं रह गयी है। जाहिर है कि मुंतज़र ने जो किया, वह उसकी पहली पसंद नहीं था लेकिन हम- आप सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि इराक में बुश प्रशासन और उसकी पिट्ठू नूरी अल मलिकी की सरकार ने लोगों को जिस कदर बिल्कुल दीवार तक ठेल दिया है उसमें उनके पास और कोई रास्ता नहीं रह गया है। इस दमघोंटू माहौल में पत्रकारिता संभव नहीं रह गयी है। अलबत्ता, इस माहौल में ‘हम बिस्तर’ (इम्बेडेड) पत्रकारिता जरूर हो सकती है। मुंतज़र से भी इसी तरह की पत्रकारिता की अपेक्षा की जा रही थी।
सच यह है कि मुंतज़र ने राष्ट्रपति बुश पर जूते फेंककर इस ‘हम बिस्तर’ पत्रकारिता के खिलाफ प्रतिरोध की पत्रकारिता की है। असल में, मुंतज़र का जूता इस ‘हम बिस्तर’ पत्रकारिता पर फेंका गया जूता भी है। जब देश विदेशी कब्जे के खिलाफ लड़ रहा हो तो पत्रकार उस लड़ाई से अलग कैसे हो सकते हैं ? निष्पक्षता का अर्थ अन्याय से आंखें मूदना नहीं है। पत्रकारिता का मूल स्वर हमेशा अन्याय के खिलाफ न्याय, गुलामी के खिलाफ आजादी और झूठ के खिलाफ सच के हक में खड़ा होने का रहा है। जब तक यह कलम और कैमरे से संभव हो तो उससे और जब यह संभव न रह जाए तो जूते और प्रतिरोध के अन्य तरीकों से भी अपनी बात कहना पत्रकारिता ही है।
मुंतज़र के साहस और हौसले को देखते हुए मुझे दो दशक पहले का बिहार याद आ रहा है जब जहानाबाद में जनसंहारों की राजनीति के खिलाफ विरोध जताते हुए कवि, लेखक, पत्रकार वीरेंद्र विद्रोही ने तत्कालीन मुख्यमंत्री भागवत झा आजाद के चेहरे पर कालिख पोत दी थी। ऐसे ही न जाने कितने उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं। इसीलिए कहना पड़ेगा कि मुंतज़र ने प्रतिरोध के इस इतिहास में एक नया अध्याय लिखा है।

2 टिप्‍पणियां:

अफ़लातून ने कहा…

सही.मुंतज़र अली ज़ैदी को दी गयी सजा के विरुद्ध लिखा जाना चाहिए.मुझे नहीं लगता कि कथित 'अपराध' के लिए इतनी सजा उचित है ।

Gulshan Singh ने कहा…

सर!
मुंतज़र का काम काबिले तारीफ़ जरूर है लेकिन पत्रकारिता का विस्तार कलम,कैमरे से बढ़ा कर जूते तक करना मुझे सही नही लगता। बल्कि मुंतजर को खुद अपनी सजा स्वीकारनी चाहिये जिससे उसके विरोध को एक और नैतिक बल मिल सके। उसका ये जूता ज्यादा जोर का लगेगा।
गुलशन (केन्द्रीय हिंदी संस्थान)