आनंद प्रधान
कौन कहता है कि दुनिया और उसके साथ भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में है? चर्चित उद्योगपति अनिल अंबानी ने नए साल के तोहफे के बतौर अपनी पत्नी टीना अंबानी को लगभग 400 करोड़ रूपये की एक सुपर लग्ज़री नौका (याट) देने की घोषणा की है। याद रहे कि पिछले साल उनके बड़े भाई मुकेश अंबानी ने अपनी पत्नी नीता अंबानी को 240 करोड़ रूपये का एक लग्ज़री जेट भेंट किया था। मुकेश गए साल मुंबई में सैकड़ों करोड़ की लागत से बन रहे अपने बंगले के लिए भी सुर्खियों में थे जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें स्विमिंग पूल, सिनेमा हाल से लेकर हैलीकाप्टर उतरने के लिए हैलीपैड तक की व्यवस्था होगी। 2008 के गुजरने से ठीक पहले दिल्ली के वसंत विहार इलाके में जानी-मानी रीयल इस्टेट कम्पनी डीएलएफ ने अपने नए शापिंग मॉल खोलने की घोषणा की। इस शापिंग मॉल - डीएलफ इम्पोरिया की खूबी यह है कि इसमें केवल विदेशी लग्ज़री ब्रांडों जैसे अरमानी, वर्सेक, कार्टियर, लुईवितां आदि की दुकाने हैं जिसमें कीमतों की सूची किसी भी आम भारतीय के होश फाख्ता करने के लिए काफी है। जैसे कि किसी शर्ट की कीमत 35 हजार, लेडिज बैग 2 लाख, घड़ी 5 लाख, साड़ी 2.5 लाख और कोट की कीमत १.५ लाख से ऊपर हो सकती है। इन कीमतों के बावजूद देश में लग्ज़री उद्योग से जुड़े लोगों का कहना है कि भारत में लग्ज़री उत्पादों की बिक्री में सालाना 18 से 20 फीसदी की रफ्तार से वृद्धि हो रही है।
आखिर इन समानों को कौन खरीद रहा है? ऐसा नहीं है कि इनके खरीददार विदेशी हैं। तथ्य यह है कि इन लग्ज़री उत्पादों के खरीददार वे भारतीय हैं जिनकी तादाद पिछले डेढ़ दो दशकों में तेजी से बढ़ी है। याद कीजिए पिछले कुछ वर्षों से नियमित अंतराल पर अखबारों मंे छपने वाली उन सुर्खियों को जिसमें देश में करोड़पतियों और अरबपतियों की लगातार बढ़ती संख्या को आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण की सफलता के रूप में पेश किया जाता रहा है। जाहिर है कि इन लग्ज़री ब्रांडों के खरीददार यही सफल भारतीय हैं। इन्हीं खरीददारों को लक्षित करके देश के एक बड़े अखबार समूह ने लग्ज़री ब्रांडों का सालाना सम्मेलन करना शुरू कर दिया है। कौन कहता है कि भारतीय गरीब हैं? अगर आपको इस बात पर यकीन नहीं है तो इसका अर्थ यह है कि आपने कारपोरेट मीडिया की चतुराई के कारण एक बहुत महत्वपूर्ण खबर नहीं पढ़ी है। हाल ही में, स्विस बैंकिंग एसोसिएशन के हवाले से एक खबर आई है जिसकी हमारी मीडिया में कोई चर्चा नहीं हुई है। इसके मुताबिक स्विस बैंकों में सबसे अधिक धन भारतीयों का जमा है। एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक स्विस बैंकों में भारतीय नागरिकों का कुल 1456 अरब डॉलर यानि 1।45 खरब डॉलर जमा है। भारतीय नागरिकों के बाद दूसरे नम्बर पर रूसी नागरिक हैं जिनका लगभग 470 अरब डॉलर, तीसरे पर ब्रिटिश नागरिक हैं जिनका लगभग 390 अरब डॉलर, चैथे पर यूक्रेन के नागरिक हैं जिनका लगभग 100 अरब डॉलर और पांचवे स्थान पर चीनी नागरिक हैं जिनका लगभग 96 अरब डॉलर स्विस बैंकों में जमा है। इससे स्पष्ट है कि स्विस बैंकों में रूसियों, ब्रिटिशों, यूक्रेनियों और चीनियों के कुल जमा से भी अधिक पैसा भारतीयों का जमा है। स्विस बैंकों के व्यक्तिगत खातों में जमा भारतीयों की कुल रकम देश के कुल विदेशी ऋण के तेरह गुने से भी अधिक है। यह देश के कुल विदेशी मुद्रा भंडार की छह गुना रकम है। याद रहे कि स्विस बैंकों की (कु)ख्याति दुनियाभर के गैर कानूनी काले धन को सुरक्षित और अत्यंत गोपनीय तरीके से जमा रखने के लिए है। वे अपने खातेदारों का परिचय गोपनीय रखते हैं और उनसे उनके पैसे का स्रोत नहीं पूछा जाता है। इस कारण दुनियाभर के देशों के भ्रष्ट राजनेता, अफसर, उद्योगपति और अपराधी स्विस बैंकों में पैसा जमा करते रहे हैं। भारतीय भी इसके अपवाद नहीं हैं।
आखिर ये ‘सुपर अमीर’ भारतीय कौन हैं जिनका अरबों डॉलर स्विस बैंकों में जमा है? एक अनुमान के मुताबिक हर साल कोई 80 हजार भारतीय स्विट्जरलैंड की यात्रा करते हैं जिसमें कोई 25 हजार ऐसे हैं जो नियमित रूप से स्विट्जरलैंड जाते रहते हैं। जाहिर है कि ये भारतीय स्विट्जरलैंड सिर्फ घूमने नहीं जाते हैं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक एशिया में सबसे तेज गति से डॉलर अरबपतियों की संख्या भारत में बढ़ रही है। इस मामले में भारत ने चीन, जापान, कोरिया, मलेशिया, थाईलैंड जैसे देशों को भी पीछे छोड़ दिया है। इस समय भारत में सबसे अधिक डॉलर अरबपति हैं। एनसीएईआर की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5 लाख रूपये सालाना से अधिक आय वाले परिवारों की संख्या 10 लाख से अधिक और 10 लाख रूपये सालाना की आय वाले परिवारों की संख्या 3।25 लाख से अधिक हो चुकी है। यही नहीं, लगभग 1 करोड़ रूपये सालाना से अधिक की आय वाले परिवारों की संख्या भी 10 हजार के आस-पास पहुंच चुकी है। लेकिन यह उस इंडिया की तस्वीर थी जिसे आर्थिक उदारीकरण और भूमंडलीकरण के समुद्र मंथन से निकले अमृत का लाभ मिला है। जाहिर है कि इन नए देवताओं (नवदौलतियों) की संख्या देश की कुल आबादी में अभी भी चार-पांच फीसदी से अधिक नहीं है। पर इस समुद्र मंथन से विष भी निकला है जो भारत के हिस्से आया है। इस विष को करोड़ों भारतीयों को पीना पड़ रहा है। इसके कुछ त्रासद और हिला देने वाले उदाहरण हम सब के सामने हैं- असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों की स्थिति की जांच के लिए बनी अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के मुताबिक देश में लगभग 78 फीसदी आबादी की दैनिक आय 20 रूपये प्रति दिन से भी कम है। यह रिपोर्ट पिछले साल ही आई है और मंदी की चर्चाओं के बीच सबसे अधिक गाज इसी असंगठित क्षेत्र के मजदूरों पर गिरी है। उनके लिए किसी तरह की कोई सामाजिक सुरक्षा जैसी चीज उपलब्ध नहीं है।
एनएसएसओ के एक सर्वेक्षण के मुताबिक 1991-92 और 2003-4 के बीच किसानों पर कर्ज 21 प्रतिशत से दोगुना बढ़कर 48 प्रतिशत हो गया। बढ़ती ऋणग्रस्तता और घाटे की खेती के कारण 1998 से 2003 के बीच 5 वर्षों में 1 लाख से अधिक किसानों ने आत्महत्या कर ली। हालांकि सरकार का दावा है कि गरीबी घट रही है लेकिन सच्चाई यह है कि गरीबी केवल आंकड़ों में घट रही है। विश्वबैंक की गरीबी की नई परिभाषा के आधार पर भारत में गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करनेवालों की तादाद कुल आबादी के 42 फीसदी से ज्यादा है। उदारीकरण के पिछले डेढ-दो दशकों में रोजगार वृद्धि की दर लगातार घटती चली गई है। यही कारण है कि इसे रोजगार विहीन विकास (जोब्लेस ग्रोथ) की परिघटना के रूप में भी देखा जाता है। इस तरह उदारीकरण और भूमंडलीकरण की प्रक्रिया ने एक देश के अंदर दो देश पैदा कर दिए हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछले डेढ़-दो दशक से जारी आर्थिक सुधारों और उदारीकरण का फायदा देश के मध्यवर्ग और अमीरों के एक बड़े हिस्से को मिला है। इसीलिए उसे उदारीकरण और भूमंडलीकरण की संतान भी कहा जाता है। इस नवदौलतिया वर्ग की आय में पिछले वर्षों में कई गुना की वृद्धि हुई है। इसके कारण अपने रहन-सहन, खान-पान और आचार-विचार में यह वर्ग दुनिया के अन्य विकसित देशों खासकर यूरोप और अमेरिका के उच्च वर्गों की कतार में शामिल हो गया है।
इस नवदौलतियां वर्ग की महत्वाकांक्षाएं, इच्छाएं और जरूरतें एक आम भारतीय से बिल्कुल अलग हो चुकी हैं। वह वास्तव में एक ‘ग्लोबल विलेज’ का नागरिक हो चुका है। उसे भारत और उसकी कठिनाइयों, संकटों, गरीबी, गैर बराबरी और भूखमरी आदि से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। अगर किसी कारणवश शारीरिक रूप से संभव नहीं है तो वह मानसिक रूप से इस भारत से अलग हो चुका है। यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही जा रही बात नहीं है। अगर आप हाल के वर्षों में दिल्ली और इस जैसे अन्य महानगरों के अंदर और उसके आस-पास बन रहे कालोनियों और शापिंग माल्स को देखें तो साफ हो जाएगा कि यह देश के अंदर ही एक अलग ‘देश’ है। दिल्ली के पास गुड़गांव में सुपर अमीरों के इन अपार्टमेंटस के नाम सुनिए जो सीधे अमेरिका से आयात किए गए हैं- बेवरली पार्क, बेलवेडियर पार्क, रिचमंड पार्क, द पाम्स, पिनैकल, मलीबू टाउन, रोजवुड़ विला आदि। कहने की जरूरत नहीं है कि जो किन्हीं कारणों से देश छोड़कर नहीं जा पाए और अनिवासी भारतीय (एनआरआई) होने का गौरव हासिल नहीं कर पाए, उन्होंने देश में ही अपना विदेश बना लिया है। ये भारतीय अनिवासी (आरएनआई यानि रेसिडेंट नॉन इंडियन्स) हैं। ये सिर्फ मजबूरी में इंडिया यानि भारत में रहते हैं अन्यथा इनके सपने, इनकी इच्छाएं और महत्वाकांक्षाएं भारत के दायरे से बाहर निकल चुकी हैं।
जाहिर है कि यह सुपर अमीर भारतीयों का अलगाववाद है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड रिच ने ऐसे ही लोगों को ध्यान में रखकर भूमंडलीकरण की परिभाषा ‘सफल लोगों के अलगाव’ (सेसेसन ऑफ सक्सेसफुल) के बतौर की थी। हालांकि जब भी भारत की एकता और अखण्डता के सामने मौजूद खतरों और चुनौतियों की बात होती है तो इस अलगाववाद का जिक्र तक नहीं होता है। लेकिन यह एक कडवी सच्चाई है कि आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया ने ‘इंडिया बनाम भारत’ की खाई और विभाजन और उससे जुड़ी बहस को और गहरा कर दिया है। आप मानें या न मानें लेकिन यह एक तथ्य है कि ‘इंडिया बनाम भारत’ के बीच बढ़ती दूरी और विद्वेष राष्ट्रीय एकता के लिए एक ऐसी ‘फाल्टलाइन’ का निर्माण कर रहे हैं जिसके बढ़ते तनाव को आप कई रूपों में उभरते और फूटते हुए देख सकते हैं। यह लोकतांत्रिक और गैर लोकतांत्रिक दोनों रूपों में प्रकट हो रहा है। 2004 के आम चुनावों में जब ‘इंडिया शाइनिंग’ का जश्न और हल्ला मचा हुआ था, आम भारतीयों ने बैलेट के जरिए उसके पैरोकारों को नकार दिया था। उस चुनाव के नतीजे कई मायनों में आंख खोलने वाले थे। उससे यह जाहिर हो गया था कि देश के एक छोटे से हिस्से को उदारीकरण से निकली समृद्धि का लाभ भले मिला हो लेकिन एक बड़ी आबादी अभी भी हाशिए पर पड़ी हुई है। उसे न सिर्फ इस उदारीकरण का कोई लाभ नहीं मिला बल्कि उसकी स्थिति बद से बदतर होती चली गई। किसानों और बुनकरों को आत्महत्या तक करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
लेकिन इनमें बहुतेरे भारतीय ऐसे भी हैं जो आत्महत्या करने के लिए तैयार नहीं है। वे इस सब के खिलाफ संसदीय और गैर संसदीय, शांतिपूर्ण और हथियारबंद यानि हर तौर-तरीके से लड़ रहे हैं। इसमें गांधीवादी भी हैं, समाजवादी भी हैं, पर्यावरण वादी भी हैं, आदिवासी भी हैं और नक्सलवादी और माओवादी भी हैं। हालत यह हो गई है कि देश के कोई 150 जिलों में सरकार और प्रशासन के कोई मायने नहीं रहे गए हैं। खुद प्रधानमंत्री को कहना पड़ा है कि ‘देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए नक्सलवाद सबसे बड़ी चुनौती बनकर उभरा है।’ लेकिन इस सवाल का जवाब कोई नहीं देना चाहता है कि यह नक्सलवाद आया कहां से है? ये नक्सलवादी कौन है? वे किसकी सुरक्षा के लिए खतरा बन गए हैं? इनमें से कुछ सवालों का जवाब योजना आयोग की एक समिति ने पिछले साल पेश अपनी रिपोर्ट में दिया है। योजना आयोग की बंद्योपाध्याय समिति के मुताबिक नक्सलवाद का विकास, व्यवस्था के प्रति लोगों के घोर असंतोष और उसके प्रति विश्वास के पूरी तरह से खत्म हो जाने के कारण हुआ है। समिति के मुताबिक यह एक राजनीतिक आंदोलन है जिसकी जड़े गरीब किसानों और आदिवासियों के बीच हैं। इससे राजनीतिक रूप से ही निपटा जा सकता है। लेकिन हैरत की बात यह है कि समिति की सिफारिश के ठीक उलट नए गृहमंत्री पी। चिदम्बरम ने नक्सलवाद को आतंकवाद के बराबर बताते हुए उसे भी नए कड़े कानूनों के दायरे में शामिल कर लिया है।
असल में, इंडिया और उसका सत्ता प्रतिष्ठान अपने अंदर झांकने के लिए तैयार नहीं है। वह उस कडवी हकीकत से लगातार नजरें चुरा रहा है या उस पर पर्दा डालने की कोशिश कर रहा है जो इस देश की एकता के लिए नए-नए फाल्टलाइन पैदा कर रही है। आखिर अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई का सवाल हो या देश के विभिन्न राज्यों और उनके अंदर विभिन्न क्षेत्रों के बीच बढ़ती असमानता का मुद्दा हो- इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि इनके कारण देश की एकता पर दबाव बढ़ रहा हैं? उदाहरण के लिए जब रेलवे की कुछ सौ-हजार नौकरियों के लिए असम और बिहार, दूसरी ओर महाराष्ट्र और उत्तर भारत के बीच गृह युद्ध जैसी नौबत आ जाती है तो वह सिर्फ किसी राज ठाकरे के कारण नहीं बल्कि देश के अंदर बन रही क्षेत्रीय विषमता की फाॅल्टलाइन का भी नतीजा होता है।इसी तरह, अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई से भी समाज में गहरी बेचैनी और तनाव बढ़ रहा है। देशभर में जिस तरह से बात-बात पर हिंसा का लावा फूट पड़ रहा है, लोग बेकाबू हो रहे हैं और अराजकता एक नियम सी बनती जा रही है, वह इस बात का संकेत है कि भारतीय समाज के अंदर एक जबरदस्त उथल-पुुथल चल रही है। इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि इस उथल-पुथल का संबंध बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी और समाज के एक हिस्से की अश्लीलता की हद तक उपभोग से है।
खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उद्योगपतियों के एक सम्मेलन में इस ओर इशारा करते हुए कहा था कि उन्हें उदार होना चाहिए, दिखावे से बचना चाहिए और गैर जरूरी उपभोग से दूर रहना चाहिए। इससे समाज पर अवांछित प्रभाव पड़ता है। लेकिन बाद में प्रधानमंत्री के सुझावों का जिस तरह से मजाक उडाया गया, उससे साफ हो गया कि इंडिया और भारत के बीच दूरी किस हद तक बढ़ गई है। यही कारण है कि पिछले कुछ सालों में देश के अलग-अलग हिस्सों में सेज बनाने या औद्योगिकीकरण के लिए जमीन लेने की कोशिशों का जबरदस्त विरोध शुरू हो गया है। किसान, मजदूर, बुनकर, मछुवारे और आदिवासी जान देने के लिए तैयार हैं लेकिन जमीन देने के लिए राजी नहीं है। अफसोस की बात यह है कि सत्ता प्रतिष्ठान जनभावना को समझने के बजाय उसे विकास विरोधी और देश के लिए खतरा बता रहा है। आखिर अपनी जमीन देने से इंकार करनेवाले किसान किस देश के लिए खतरा हैं? सवाल यह भी है कि हम किस देश की बात कर रहे हैं? क्या देश सिर्फ एक नक्शा है, एक भूगोल है, एक सरकार है, या वह करोड़ों लोगों के सपनों, आकांक्षाओं और उम्मीदों मंे धड़कता एक ऐसा विचार है जो तभी तक जीवित रह सकता है जब तक सबके दुःख-दर्द और रोजी-रोटी की चिंता करता है। ये सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आजादी के बाद पिछले साठ वर्षों खासकर पिछले डेढ़-दो दशकों में विकास का जो मॉडल आगे बढ़ाया गया है उसमें देश के विचार को सफल और सुपर अमीरों ने हाइजैक कर लिया है।
क्या यही कारण नहीं है कि जब भी इसे चुनौती देने की कोशिश होती है तो देश में सफल और ताकतवर लोगों की ओर से भारतीय राज्य को एक ‘नरम राज्य’ (सॉफ्ट स्टेट) बताते हुए एक ‘सख्त राज्य’ (हार्ड स्टेट) की मांग उठने लगती है। कड़े कानूनों और अनुशासन पर्व की वकालत की जाने लगती है। भारतीय राज्य को और अधिक हथियारबंद बनाने के तर्क ढूंढे जाने लगते हैं। ऐसा कहने के पीछे कोई ‘षडयंत्र सिद्धांत’ (कान्सपिरेसी थियरी) नहीं है बल्कि पिछले दो-ढाई दशकों के अनुभव बोल रहा है। चाहे टाडा हो या पोटा- यह बताने की जरूरत नहीं है कि उनका सबसे अधिक इस्तेमाल मजदूर नेताओं और जनांदोलनों के कार्यकर्ताओं-नेताओं के खिलाफ किया गया। यही नहीं, युद्ध के नारों के पीछे भी यही सोच काम करती है। युद्ध के बहाने जो उन्माद पैदा किया जाता है उसका इस्तेमाल आम लोगों के सवालों, मुद्दों और संकटों को दबाने और उस पर पर्दा डालने के लिए किया जाता है। युद्ध का अपना एक अर्थशास्त्र भी है। इससे वह सैन्य-औद्योगिक प्रतिष्ठान सबसे अधिक लाभान्वित होता है जिसका धंधा हथियारों की खरीद बिक्री से चलता है। इस धंधे से बहुतेरे सुपर अमीरों के हित भी जुड़े हुए होते हैं।
क्या यह सच नहीं है कि हथियारों की सौदों में सबसे अधिक भ्रष्टाचार यानि किकबैक चलता है? स्विस बैंकों में जिन भारतीयों के पैसे जमा हैं, उनमें दर्जनों हथियारों के दलाल और वे अफसर और राजनेता हैं जिन्होंने देश को मजबूत बनाने के नाम पर हर साल रक्षा बजट में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी की है। अगर पिछले एक दशक के रक्षा बजट पर बारीकी से निगाह डाली जाए तो साफ तौर पर दिखाई पड़ता है कि किसी भी अन्य मद की तुलना में उसमें सबसे तेजी से वृद्धि हुई है। आश्चर्य नहीं कि आज देश का कुल रक्षा बजट शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, ग्रामीण विकास आदि के कुल बजट से भी अधिक है। एक ऐसे देश में जहां 78 प्रतिशत नागरिक प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम की आय में गुजर-बसर करने के लिए मजबूर हों, वहां देश की सुरक्षा के नाम पर लगभग एक लाख करोड़ रूपये के रक्षा बजट से किसकी सुरक्षा हो रही है? साफ है कि देश को आतंकवाद और नक्सलवाद से कहीं ज्यादा और कहीं बड़ा खतरा सफल और सुपर अमीरों के उस अलगाववाद से है जो इस देश को दो हिस्सों में बांट रहा है। इंडिया, गरीब-भूखे और बेरोजगार भारत और उसके दुःख-दर्द से जितना कटता जाएगा, देश अंदर से उतना ही कमजोर और छीजता चला जाएगा। यह भी सच है कि देश आज तक एक है तो वह सिर्फ और सिर्फ इन्हीं गरीब किसानों, मजदूरों, बुनकरों, आदिवासियों, दलितों और अल्पसंख्यकों के कारण एक है। सफल और सुपर अमीर इस देश से अलग हो सकते हैं, अपने लिए मलीबू टाउन और बेवर्ली हिल्स बना सकते है। लेकिन गरीब कहां जाएंगे? उनके पास तो केवल उनका अपना देश है।
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5 टिप्पणियां:
बेहतरीन लेख, उम्दा विश्लेषण, एक ही बार में पूरा पठनीय… शानदार…
ekdam sahi kha sir.
ekdam sahi kaha sir.
sahi kaha sir.
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