आनंद प्रधान
एक ऐसे समय में जब दुनिया के अधिकांश विकसित देशों में अखवारों की प्रसार संख्या लगातार गिर रही है और अखबारों की मौत की भविष्यवाणियां आम हो गयी हैं, यह निश्चय ही एक अच्छी और राहत देनेवाली खबर है कि भारत में अखबारों की प्रसार संख्या और उनका कारोबार तेजी से बढ़ रहा है। कहने की जरूरत नहीं है कि भारत में अखबारों के प्रकाशन का 228 वर्षो का लंबा और कुलमिलाकर शानदार इतिहास इस बात का गवाह है कि वे भारतीय जनमानस के संघर्षो, उम्मीदों और आकांक्षाओं को स्वर देने में काफी हद तक सफल रहे हैं। भारत में लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के दायरे के विस्तार में उनकी उल्लेखनीय भूमिका को अनदेखा करना मुश्किल है।
लेकिन पिछले दो दशकों में अखबारों की दुनिया में भारी बदलाव आया है। अखबारों पर न सिर्फ बाजार का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ गया है बल्कि कुछ बड़े अखबार समूह तो पूरी तरह से व्यावसायिक हितों और मुनाफे की भूख से परिचालित हो रहे हैं। इस प्रक्रिया में अखबारो के भीतर न सिर्फ संपादकीय नियंत्रण कमजोर और प्रबंधकों के मातहत आ गया है बल्कि पत्रकारीय आचार संहिता, उसूलों, मूल्यों और परम्पराओं की खुलेआम धज्जियां उड़ाने में भी संकोच नहीं हो रहा है। समाचार और विज्ञापन के बीच की पवित्र दीवार कब की ढह चुकी है और समाचार रिपोर्टिंग में वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यों की शुध्दता (एक्यूरेसी) जैसे मानदंडों को लगभग भुला दिया गया है। यही नहीं, हाल के वर्षो में अखबारों के टीवीकरण ने रही-सही कसर पूरी कर दी है। इस कारण अखबारों ने न सिर्फ अपनी विश्वसनीयता खोनी शुरू कर दी है बल्कि उनपर अंकुश लगाने की मांग भी उठने लगी है।
निश्चय ही, प्रेस की स्वतंत्रता बहुत कीमती विचार है जिसके साथ किसी तरह का खिलवाड़ या समझौता नहीं किया जा सकता है। लेकिन समय आ गया है जब इस स्वतंत्रता की हिफाजत और उसे व्यापक जनहित में इस्तेमाल करने के लिए टी. वी समाचार चैनलों के साथ-साथ अखबारों को भी अपने कामकाज में पारदर्शी, लोकतांत्रिक, जवाबदेह और पत्रकारीय आचार संहिता के प्रति प्रतिबध्द बनाया जाए। अफसोस की बात है कि अखबारों की आजादी की हिफाजत और उन्हें व्यापक पत्रकारीय मूल्यों और आचार संहिता के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए गठित आत्म नियमन की मौजूदा मशीनरी- भारतीय प्रेस परिषद-लगभग अप्रासंगिक होने के कगार पर पहुंच गयी हों। कि उसके निर्देशों की न तो सरकारी मकहमे परवाह करते हैं और न ही अखबार। कुछ बड़े अखबार समूहो ने तो इस तरह व्यवहार करना शुरू कर दिया है जैसे प्रेस परिषद का कोई अस्तित्व ही नहीं रह गया हो।
जाहिर है कि इसकी वजह यह है कि प्रेस परिषद के पास कोई दंडात्मक अधिकार नहीं है। क्या प्रेस परिषद को दंडात्मक अधिकार दिए जाने चाहिए? यह बहस पिछले कुछ सालों में तेज हुई है। प्रेस परिषद के मौजूदा अध्यक्ष जस्टिस जी एन रे ने परिषद को कुछ दंडात्मक अधिकार देने की वकालत करते हुए केन्द्र सरकार को यह सिफारिश करने का फैसला किया है कि प्रेस परिषद के निर्देशों की बार-बार अवहेलना करनेवाले अखबारों का सरकारी विज्ञापन तीन-चार महीने के लिए रोक लिया जाए। जस्टिस रे के बयान में झलकती निराशा, खीज और गुस्से को साफ पढ़ा जा सकता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि पानी किस तरह सिर के उपर से बहने लगा है।
ऐसे में, अब जरूरत इस बात की है कि प्रेस परिषद को एक सक्रिय, प्रो-एक्टिव, प्रभावी, स्वतंत्र लोकतांत्रिक और प्रासंगिक नियामक संस्था बनाने के लिए, उसे दंडात्मक अधिकार देने से लेकर अन्य सुधारों के बाबत गंभीर बहस हो और उसे किसी निर्णय तक पहुंचाया जाए। खुद अखबारों के भविष्य और साख के लिए यह पहल जरूरी हो गयी है। अब इसकी और उपेक्षा नहीं की जा सकती है।
1 टिप्पणी:
सही विचार ... बहुत सुंदर ... होली की ढेरो शुभकामनाएं।
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