शुक्रवार, मई 22, 2009

कारपोरेट भ्रष्टाचार और बिजनेस पत्रकारिता

आनंद प्रधान
बिजनेस पत्रकारिता फिर सवालों के घेरे में है। शेयर बाजार की नियामक संस्था-सेबी ने मनोरंजन उद्योग की एक जानी-मानी कंपनी पिरामिड साइमिरा के शेयरों की कीमतों में तोड़मरोड़ (मैनिपुलेषन) करने के आरोप में कंपनी के एक एनआर आई प्रोमोटर, सीईओ और बाजार के कई और आपरेटरों के साथ देश के सबसे बड़े मीडिया समूह- बेनेट कोलमैन के गुलाबी बिजनेस दैनिक के एक वरिश्ठ पत्रकार राजेष उन्नीकृश्णन को शेयर बाजार में कारोबार करने से प्रतिबंधित कर दिया है। सेबी ने इन सभी को जालसाजी में शामिल पाया है।
इन जालसाजों ने सेबी के एक फर्जी पत्र के जरिए बाजार में अफवाह फैलाकर हजारों निवेषकों को लाखों रूपए का चूना लगा दिया। इस घोटाले के मुख्य जालसाज और पिरामिड के प्रोमोटर ने पिछले साल 22 दिसम्बर को पत्रकार उन्नीकृश्णन और पी आर मैनेजर राकेश शर्मा की मिलीभगत से सिर्फ कुछ घंटो में 20 लाख रूपए से अधिक कमा लिए थे।
कहने की जरूरत नहीं है कि पिरामिड साइमिरा प्रकरण ने शेयर बाजार से लेकर कारपोरेट जगत में पर्दे के पीछे चल रहे घोटालों, जालसाजियों, अनियमिताओं और भ्रश्टाचार के मामलों में बिजनेस पत्रकारों की प्रत्यक्ष और परोक्ष मिलीभगत, मौन सहमति या उसे जानबूझकर अनदेखा करने की तेजी से बढ़ती प्रवृत्ति को एक बार फिर उजागर कर दिया है।
बिजनेस पत्रकारिता के लिए यह चिंता और शर्म की बात है। शेयर बाजार की जालसाजी के मामले में देश के सबसे बड़े गुलाबी अखबार के एक वरिष्ठ पत्रकार का शामिल होना कोई पहली घटना नहीं है। कुछ सालों पहले भी इसी अखबार के एक और पत्रकार को ऐसी ही एक जालसाजी में शामिल पाया गया था। आश्चर्य की बात यह है कि जालसाजी के इन मामलों में छोटे अखबारों और चैनलों के बिजनेस पत्रकार नहीं बल्कि बड़े अखबारों और चर्चित बिजनेस चैनलों के स्टार बिजनेस पत्रकार शामिल पाए गए हैं जो मोटी तनख्वाहें पाते हैं।
यह चिंता की बात इसलिए भी है कि बिजनेस पत्रकारिता के कामकाज और तौर-तरीकों को लेकर काफी समय से सवाल उठ रहे हैं। पिछले साल सत्यम घोटाले के पर्दाफाश के बाद भी यह सवाल उठा था कि बिजनेस पत्रकारों को इतने बड़े घोटाले की भनक क्यों नहीं लगी?
इसमेें कोई दो राय नहीं है कि अगर सत्यम घोटाले में उसके मालिक रामलिंग राजू की जालसाजियों को समय रहते पकड़ने में सेबी, आॅडिटर्स,स्वतंत्र निदेषक, कंपनी लॉ बोर्ड से लेकर तमाम एजेंसियां नाकाम रहीं तो खुद को स्मार्ट बतानेवाली बिजनेस पत्रकारिता भी उसे सूंघने और समय रहते अपने पाठकों और दर्शकों को सचेत करने में विफल रही। सत्यम प्रकरण बिजनेस पत्रकारिता की विफलता का अकेला उदाहरण नहीं है।

इससे पहले भी शेयर बाजार में जितनी बार घोटाले हुए, बिजनेस पत्रकार और मीडिया न सिर्फ सोते हुए पाए गए बल्कि उनमें से अधिकांष घोटालेबाजों को महिमामंडित करने में जुटे हुए देखे गए। याद दिलाने की जरूरत नहीं है कि चाहे वह बिग बुल कहे जानेवाला हर्शद मेहता रहा हो या केतन पारीख-बिजनेस मीडिया उनका आखिर-आखिर तक दीवाना बना रहा।
सच तो यह है कि शेयर बाजार में हर बड़े उछाल (बुल रन) में बिजनेस मीडिया की सबसे बड़ी भूमिका रही है। बिजनेस मीडिया के बड़े स्टार पत्रकारों और जानकारों ने हमेशा बिना कोई सवाल उठाए शेयर बाजार की कृत्रिम उछाल को वास्तविक और फंडामेंटल्स के अनुकूल बताने के लिए सच्चे-झूठे तर्क खोजने में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी।
सचमुच, यह सोचने का समय आ गया है कि बिजनेस पत्रकारिता के साथ बुनियादी रूप से कहां गड़बड़ी है? इस सवाल का जवाब खोजना इसलिए जरूरी हो गया है कि बिजनेस मीडिया के बारे में यह आम धारणा लगातार मजबूत होती जा रही है कि वह पूरी तरह से कारपोरेट जगत और बाजार का पेड चाकर बन गया है और वह वॉचडाग की भूमिका को छोड़कर पी आर पत्रकारिता का पर्याय बन गया है।
अगर इस धारणा को समाप्त करने के लिए तत्काल गंभीर उपाय और बिजनेस पत्रकारों के लिए आचार संहिता को कड़ाई से लागू करने के प्रयास नहीं किए गए तो देश में तेजी से फल-फूल रहा बिजनेस मीडिया अपनी साख गंवा देगा। खतरे की घंटी बज चुकी है।

1 टिप्पणी:

chakrapani ने कहा…

प्रणाम सर,आपके सवाल तीर की तरह चुभते है . लेकिन बिज़नस पत्रकारों की खाल बहुत सख्तहै घोटाले के नोटों के कारण इनकी चमरी दिनोदिन और सख्त होती जा रही है . सेबी छु छु कर के चुप हो जाता है.आगे भी ये सारे तथाकथित बिजनस पत्रकार निवेशको को चुना लगाते रहेंगे . chakrapani noida