आनंद प्रधान
नतीजे आने से पहले ही तथाकथित तीसरे मोर्चे में भगदड़ शुरू हो गयी है। इसकी शुरूआत तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के नेता के चंद्रशेखर राव ने लुधियाना में एनडीए की रैली में शिरकत करके कर दी है। टी आर एस आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की टीडीपी, सीपीआई-एम और सीपीआई के साथ महागठबंधन (महाकुटामी) में शामिल है जो राज्य में तीसरे मोर्चे का प्रतिनिधित्व कर रहा है। हालांकि संख्या के लिहाज से टी आर एस के तीसरा मोर्चा छोड़ने से कोई बड़ा फर्क नहीं आएगा लेकिन उसके जाने के प्रतीकात्मक राजनीतिक महत्त्व को नजरअंदाज करना मुश्किल है।
दरअसल, टी आर एस जिस तरह से तीसरा मोर्चा छोड़कर गया है, वह इस कथित गैर कांग्रेस और गैर भाजपा मोर्चे के अवसरवादी, विचारविहीन और सत्ता लोलुप चरित्र को उजागर करता है। दोहराने की जरूरत नहीं है कि यह मोर्चा किसी समान वैचारिक सोच, राजनीतिक-आर्थिक कार्यक्रम और एजेंडे के आधार पर कांग्रेस और भाजपा के बरक्स किसी टिकाउ वैकल्पिक दृष्टि के तहत नहीं बल्कि राज्य स्तरीय तात्कालिक रानीतिक जरूरतों और मजबूरियों के कारण खड़ा हुआ है। इससे बड़ी विडम्बना और क्या हो सकती है कि किसी को पता नही है कि इस कथित तीसरे मोर्चे में कौन है और कौन नही? यही नही, इस मोर्चे में नीतियां, कार्यक्रम और विचार नहीं बल्कि व्यक्तिवादी नेता और उनके निजी हित सबसे उपर हैं। इसलिए अमीबा की तरह टूटना और बिखरना उसकी नियति है।
जाहिर है कि टीआरएस का जाना इसकी शुरूआत भर है। इसमें कोई आश्चर्य और हैरान होने की बात नहीं है। अलबत्ता 13 मई और खासकर 16 मई के बाद तीसरे मोर्चे का टिके रहना सबसे बड़ा चमत्कार होगा। यह चमत्कार सिर्फ एक ही स्थिति में हो सकता है। अगर मई को मतगणना के बाद कांगेस और भाजपा की सीटें 250 से कम रह जाएं जिसकी उम्मीद फिलहाल बहुत कम है। इसलिए नहीं कि राजनीतिक रूप से ऐसा संभव नहीं है। सच यह है कि शासक वर्ग की दोनों प्रतिनिधि पार्टियां और उनके गठबंधन (यूपीए और एनडीए) न सिर्फ अपनी साख और चमक खो-चुके हैं बल्कि उनकी तमाम कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय राजनीति दो धु्रवीय नहीं हो पा रही है। साफ है कि इन दोनों पार्टियों और उनके गठबंधनों से इतर एक वैकल्पिक और वास्तविक तीसरे मोर्चे के लिए जगह मौजूद है।
यही कारण है कि शासक वर्गो की अनिच्छा के बावजूद चुनावों से पहले हर बार एक तीसरा मोर्चा खड़ा करने और कांग्रेस और भाजपा से असंतुष्ट मतदाताओं के वोटों को समेटने के प्रयास शुरू हो जाते हैं। लेकिन इस तथाकथित तीसरे मोर्चे की भी अब पोल खुल चुकी है। जनता के सामने यह साफ हो चुका है कि यह सिर्फ नाम का तीसरा मोर्चा है। अंतर्वस्तु (कंटेंट) के स्तर पर वह कहीं से भी कांग्रेस और भाजपा से बुनियादी तौर पर नहीं है। उसमें नीतियों और कार्यक्रमों के स्रत्तर पर कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्ववाले गठबंधनोें का विकल्प बनने की इच्छा कभी नहीं दिखी। अगर वह कुछ है तो अधिक से अधिक चुनावों के पहले और कई बार चुनावों के बाद राजनीतिक परिस्थितियों के कारण बना एक तात्कालिक, अस्थायी, अवसरवादी और सत्ता की गोंद से चिपका एक ऐसा मोर्चा जो हर बार लोगों की उम्मीदों और अपेक्षाओं को पूरा को पूरा करने में नाकाम रहा है।
आश्चर्य नहीं कि इस तथाकथित तीसरे मोर्चे के अधिकांश घटक दल पिछले दो दशकों में कभी न कभी या तो भाजपा और उसके नेतृत्ववाले एनडीए या फिर कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाले यूपीए गठबंधन या फिर दोनों ही गठबंधनों में शामिल रहकर सत्तासुख उठा चुके हैं। जाहिर है कि तीसरे मोर्चे के इन दलों और नेताओं के लिए कांग्रेस और भाजपा में से कोई अछूत नहीं रह गया है। टीआरएस ने जितनी आसानी और सहजता से यूपीए से तीसरा मोर्चा और तीसरा मोर्चा से एनडीए की यात्रा की है,
उसके बाद तीसरे मोर्चे के गैर कांग्रेसवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे वैचारिक आधारों का खोखलापन एकबार फिर उजागर हो गया है। जाहिर है कि टीआरएस कोई अपवाद नहीं बल्कि तीसरे मोर्चे का नियम है। मोर्चे के कई और साथी जैसे एआईडीएम के (जयललिता), बीजेडी (नवीन पटनायक), बसपा (मायावती), टीडीपी (चंद्रबाबू) आदि किस राह जाएंगे, किसी को पता नहीं है ?
यही नहीं, इस कथित तीसरे मोर्चे के कई संभावित साथी जैसे एनसीपी (शरद पवार), जेडीयू (नीतिश कुमार) आदि का भी कोई ठिकाना नहीं है कि वे किस घाट उतरेंगे? इसका सबूत यह है कि सभी कह रहे हैं कि उनके सभी विकल्प खुले हैं। 16 मई के बाद वे कहीं भी जा सकते हैं और बिल्ली के भाग्य से छींका फूट गया तो यहां भी दावत उड़ा सकते हैं। ऐसा लगता है जैसे तीसरा मोर्चा विकल्प नहीं बल्कि कोई प्लेटफार्म है जहां सभी अपनी-अपनी ट्रेनों का इंतजार कर रहे हैं। जो ट्रेन सत्ता तक ले जाएगी, उसी की सवारी करने के लिए सब बेचैन हैं।
इन सबके बीच सबसे हैरान करनेवाली भूमिका इस कथित तीसरे मोर्चे के वैचारिक अगुवा सीपीआई-एम की है। उसने जिस तरह से जोड़तोड़ करके और ‘कहीं का ईट, कहीं का रोड़ा, भानुमती का कुनबा जोड़ाश् की तर्ज पर जयललिता से लेकर मायावती तक और नवीन पटनायक से लेकर नीतिश कुमार तक सबको धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट बांटते हुए कांग्रेस और भाजपा का विकल्प बताना शुरू किया, वह उसकी राजनीति के वैचारिक दिवालिएपन का ही एक और सबूत है। असल में, भारतीय राजनीति में तथाकथित तीसरे मोर्चे खासकर तीसरे मोर्चे की सरकारों के प्रयोग के बुरी तरह पिट जाने के बावजूद सीपीआई-एम अब भी उस बंदरिया की तरह अपनी छाती से चिपकाए हुए है जिसे पता नहीं कि उसका बच्चा मर चुका है।
यही नहीं, कथित तीसरे मोर्चे की संभावित सरकार को लेकर सीपीआई-एम का अतिरिक्त उत्साह समझ से बाहर है। ऐसा लगता है कि तीसरे मोर्चे की सरकार को लेकर उसके अतिरिक्त उत्साह की वजह यह है कि वह खुद भी इस सरकार में शामिल होने के लिए बेचैन है। हालांकि वह अच्छी तरह से जानती है कि कांग्रेस के समर्थन और जयललिताओं, नवीन पटनायकों,शरद पवारों आदि के नेतृत्व में चलनेवानी इस सरकार में उसकी भूमिका न सिर्फ सीमित होगी बल्कि वह उसकी नीतियों और कार्यक्रमों को भी प्रभावित नहीं कर पाएगी। इसके बावजूद वह तीसरे मोर्चे की सरकार के लिए जिस तरह से बैचैन है, उससे साफ है कि वह इस बार अपनी पिछली ‘ऐतिहासिक भूलश् को दुरूस्त करने के लिए तैयार है। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि सीपीआई-एम ने 1996 की ऐतिहासिक भूल को सुधारने के लिए पिछले दस वर्षो में अपने राजनीतिक कार्यक्रम से वे सभी बाधाएं एक-एक करके निकाल दी हैं जो उसे किसी बुर्जुआ सरकार में शामिल होने से रोकते थे।
इस तरह, सीपीआई-एम इसबार सरकार में शामिल होने के लिए तैयार बैठी है। लेकिन यह एक और ‘ऐतिहासिक भूलश् होगी। यह सीपीआई-एम समेत वाम मोर्चे के सभी दलों को पता है कि इसबार पार्टी और वाम मोर्चे दोनों को 2004 की तुलना में कम सीटें आएंगी। 2004 में 60 से अधिक सीटें आने के बावजूद वाम मोर्चा सीपीआई-एक के नेतृत्व में यूपीए सरकार में इसलिए शामिल नहीं हुआ था कि वह उस सरकार की नीतियों कों प्रभावित करने की स्थिति में नही है। सवाल यह है कि अब ऐसा क्या चमत्कार हो गया है। या होने की उम्मीद है कि सीटें घटने के बावजूद पार्टी को विश्वास है कि वह तीसरे मोर्चे की सरकार की नीतियो को प्रभावित करने की स्थिति में है। खासकर एक ऐसी सरकार की नीतियों को जो कांग्रेस की दया पर निर्भर होगी और जिसमें नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के घोषित चैम्पियनों से लेकर भाजपा से हेलमेल रखनेवाले ‘धर्मनिरपेक्षश् मसीहा भी होंगे।
सच यह है कि सीपीआई-एम तीसरे मोर्चे की सरकार की रट लगाकर देश को नहीं खुद को बेवकूफ बना रही है। टीआरएस के साथ-साथ धर्मनिरपेक्षता के नए चैम्पियन नीतिश कुमार ने एनडीए के साथ खड़े होकर दिखा दिया है कि वे सीपीआई- एम की बेवकूफी में शामिल होने को तैयार नहीं हैं। बेहतर होता कि सीपीआई-एम तीसरे मोर्चे के अपने मुगालते से बाहर आती और कांग्रेस को समर्थन देने या लेने के मुद्दे पर कभी नरम और कभी गरम होने का नाटक करने के बजाय साफ-साफ एलान करती कि वह विपक्ष में बैठेगी। यही नीतिगत और राजनीतिक रूप से सही फैसला होगा। सीपीआई-एम ने पहले से किसी निश्चित,ठोस और घोषित तीसरे मोर्चे की सरकार के लिए जनादेश नहीं मांगा है क्योंकि ऐसा कोई मोर्चा वास्तव में नहीं है। इसलिए उसे जोड़तोड़ और अवसरवादी समझौते करके तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने के बजाय विपक्ष में बैठने के लिए तैयार रहना चाहिए।
सीपीआई-एम और वाम मोर्चे को 16 मई के बाद ‘सभी विकल्प खुले हैंश् वाली अवसरवादी और सत्तालोलुप राजनीति में नहीं पड़ना चाहिए, अन्यथा उसकी बची-खुची साख मिट्टी में मिल जाएगी। उसे विपक्ष में बैठने से संकोच नहीं करना चाहिए। असल में, मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय राजनीतिक- आर्थिक संकट के मद्देनजर देश को एक ताकतवर, प्रभावशाली, सक्रिय और लड़ाकू विपक्ष चाहिए जो देश के आम-अवाम के हितों की लड़ाई संसद से सड़क तक लड़ने के लिए तैयार रहे। विपक्ष मे बैठकर सीपीआई-एम और वाम मोर्चा सरकार में कही ज्यादा प्रभावित कर पाएंगे। इसके उलट इस बात की आशंका अधिक है कि सरकार में शामिल होकर वे खुद नव उदारवादी नीतियों से अधिक प्रभावित हो जाएं जैसाकि प. बंगाल में वाम मोर्चे की सरकार के साथ हो रहा है।
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1 टिप्पणी:
ये तथाकथित तीसरा और चौथा.. मोर्चा परिन्नाम आते ही बिखरने तय है..कुछ दिनों का मेल मिलाप है ये...
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