बुधवार, सितंबर 26, 2007

भारतीय समाचार माध्यमों में खबरपाल

समय आ गया है सबकी खबर लेने और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों और संस्थाओं से जवाबदेही की मांग करनेवाले समाचार माध्यमों के कामकाज की खबर ली जाए और जवाबदेही तय की जाए


अंग्रेजी के प्रतिष्ठित दैनिक 'द हिंदू` ने पहल कर दी है। उसने 'समाचारपत्र के कामकाज में आत्म-नियमन, जवाबदेही और पारदर्शिता की प्रक्रिया को संस्थावद्ध बनाने के उद्देश्य` से एक पूर्वकालिक पाठक संपादक (रीडर्स एड़ीटर) नियुक्त करने की घोषणा की है। उसके साथ ही मराठी के लोकप्रिय दैनिक 'सकाल` ने भी अपने अखबार में ओम्बुडसमैन की नियुक्ति का ऐलान किया है। 'द हिंदू` के पहले पाठक संपादक के नारायणन होंगे जो कि 1966 से ही इस अखबार समूह से जुड़े रहे हैं और 1996 में सेवानिवृत्त होने के बाद से वरिष्ठ संपादकीय सलाहकार के बतौर काम कर रहे थे। इस तरह 'द हिंदू` ने अपने पहले पाठक संपादक के बतौर अखबार के ही एक वरिष्ठ सहयोगी को चुना है। 'द हिंदू` के मुताबिक उसके पाठक संपादक का कार्यक्षेत्र और सेवा शर्तें ब्रिटेन के मशहूर अखबार ' द गार्जियन` के रीडर्स एडीटर के मॉडल पर होंगी।


उम्मीद के मुताबिक 'द हिंदू` की इस पहल का उसके पाठकों ने स्वागत किया है लेकिन इस मुद्दे पर मराठी दैनिक 'सकाल` के अलावा अन्य समाचार माध्यमों और प्रमुख मीडिया समूहों की चुप्पी हैरान करनेवाली है। 'द हिंदू` की इस महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय पहल पर चर्चा और बहस तो दूर उसकी नोटिस तक नहीं ली गयी है। एक तरह से मुख्यधारा के बड़े मीडिया समूहों ने इस खबर को पूरी तरह से 'ब्लैकआउट` करके यह साबित करने की कोशिश की है कि 'द हिंदू` की इस पहल का कोई सार्वजनिक महत्व नहीं है और यह उसका आंतरिक मामला है। लेकिन क्या यह सचमुच, 'द हिंदू` और 'सकाल` का आंतरिक मामला भर है और इसका कोई सार्वजनिक महत्व नहीं है?


कहने की जरूरत नहीं है कि यह 'द हिंदू` या 'सकाल` का आंतरिक मामला भर नहीं है और इसका सार्वजनिक महत्व बहुत अधिक है। पहली बात तो यह है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में समाचार माध्यम निजी हाथों में होने के बावजूद सार्वजनिक महत्व के संस्थान हैं। उनकी राष्ट्रीय और सार्वजनिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। वे लोकतंत्र के चौथे खंभे माने जाते हैं और जनहित में अन्य सार्वजनिक संस्थाओं और व्यक्तियों के कामकाज की निगरानी करते हैं। ऐसे में, जब समाचार माध्यम सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्तियों और संस्थाओं से निरंतर जवाबदेही की मांग करते हैं तो वे स्वयं को इस जवाबदेही से अलग कैसे रख सकते हैं?


जाहिर है कि समाचार माध्यम भी आलोचना से परे नहीं हैं। उनसे सत्ता के प्रति नहीं बल्कि समाज के प्रति जवाबदेह होने की अपेक्षा की जाती है। इसका एक अर्थ यह है कि उन्हें अपने पाठकों, दर्शकों और श्रोताओं के प्रति जवाबदेह होना ही चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में समाचार माध्यमों में अपनी गलतियों और अशुद्धियों को अनदेखा करने और पाठकों और ऑडियंस की शिकायतों के प्रति ठंडा रवैया बरतने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। खासकर इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यमों के विस्तार के बाद तो पानी सिर के उपर से बहने लगा है। समाचार माध्यम न सिर्फ तथ्यगत अशुद्धियों के प्रति लापरवाह हो गए हैं बल्कि पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों की धज्जियां उड़ाने में भी उन्हें कोई संकोच नहीं हो रहा है।


समाचार माध्यमों का इस 'टैबलॉयड पत्रकारिता` से आर्थिक तौर पर मुनाफा भले हो रहा हो लेकिन इसका सीधा असर उनकी विश्वसनीयता पर पड़ रहा है। उनकी साख लगातार गिर रही है। भारत में तो ऐसा कोई तुलनात्मक सर्वेक्षण नहीं होता जिससे पता चल सके कि समाचार माध्यमों की विश्वसनीयता का ग्राफ किधर जा रहा है लेकिन अमेरिका में ऐसे सर्वेक्षण होते रहते हैं। अमेरिका की सबसे प्रतिष्ठित सर्वेक्षण एजेंसी प्यू रिसर्च के मुताबिक अमेरिका में 80 के दशक में दस में से सात अमेरिकी नागरिक समाचार माध्यमों पर भरोसा करते थे लेकिन अब उनकी संख्या घटकर आधी रह गई है। इसकी बड़ी वजह अमेरिकी समाचार माध्यमों की पूर्वाग्रह और पक्षपात से भरी रिपोर्टिंग और अपनी गलतियों को अनदेखा करने की प्रवृत्ति है। अमेरिका का उदाहरण देने के पीछे मकसद यह है कि आजकल अधिकांश भारतीय समाचार माध्यम भी अमेरिकी मॉडल को ही अपनाने की कोशिश कर रहे हैं।


लेकिन पाठक, दर्शक और श्रोता अब बदल चुके हैं। वे अब समाचार माध्यमों के निष्क्रिय उपभोक्ता भर नहीं हैं। जैसे-जैसे जागरूकता और लोकतांत्रिक चेतना बढ़ रही है, पाठकों और दर्शकों की सक्रियता भी बढ़ रही है। उनकी आवाज को दबाना या सच्चाई को छुपाना संभव नहीं रह गया है। 'मीडिया प्रबंधन` की सीमाएं उजागर होने लगी हैं। पाठकों और दर्शकों ने अपनी बात कहने के वैकल्पिक माध्यम खोज निकाले हैं। इंटरनेट ने ब्लॉग्स आदि के जरिए उन्हें अपनी बात कहने और आपस में विचार-विमर्श का अवसर दिया है। इंटरनेट पर आज ऐसे दर्जनों समूह सक्रिय हैं जो मुख्यधारा के मीडिया की सार्वजनिक भूमिका के संदर्भ में उसके कामकाज और उसकी अन्तर्वस्तु की समीक्षा कर रहे हैं और जरूरत पड़ने पर सुधार के लिए अभियान भी चला रहे हैं। साफ है कि अब समाचार माध्यम मनमानी करके बच नहीं सकते हैं और उनपर जवाबदेही का दबाव बढ़ रहा है।


हाल के अमेरिकी उदाहरण से भी यह स्पष्ट है कि इराक युद्ध के पहले युद्ध के पक्ष में माहौल बनाने के लिए अमेरिकी समाचार माध्यमों ने बिना किसी जांच-पड़ताल के जिस तरह से सरकारी झूठ का प्रचार किया, उसकी कलई खुलने के बाद उन्हें मुंह छुपाने के लिए जगह नहीं मिल रही है। नागरिक समाज के संगठनों ने इस मुद्दे पर अभियान चलाकर समाचार माध्यमों को माफी मांगने और दोषी पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए बाध्य किया है। इसी तरह भारत में भी नागरिक समाज के संगठनों ने कुछ बड़े समाचारपत्रों में छप रही अश्लील सामग्री के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और अब सुप्रीम कोर्ट इस मसले पर विचार कर रहा है।


लेकिन इस बीच, एक खतरनाक बात यह हुई है कि सत्ता प्रतिष्ठान मुख्यधारा के समाचार माध्यमों की गड़बड़ियों के प्रति आम लोगों के आक्रोश को भुनाने की कोशिश कर रहा है। हाल के दिनों में सरकार की ओर से समाचार माध्यमों खासकर इलेक्ट्रानिक समाचार माध्यमों के नियमन और निगरानी के लिए कानून बनाने से लेकर दर्शक मंच जैसी संस्थाएं गठित करने तक के कई प्रस्ताव आए हैं। हालांकि सत्ता प्रतिष्ठान को समाचार माध्यमों के मौजूदा नकारात्मक रूझानों से कोई खास शिकायत नहीं है क्योंकि यह स्थिति कुल मिलाकर उसके मुफीद ही बैठती है।


आखिर अखबारों और टेलीविजन पर अभिषेक बच्चन और ऐश्वर्या राय के प्रेम प्रसंगों, भारत-पाक क्रिकेट श्रृंखला और टुटपुंजिये अपराधों की खबरें छाई रहें तो भला सत्ता प्रतिष्ठान से अधिक खुश कौन होगा? उसके लिए इससे अधिक राहत की बात क्या होगी कि किसानों की आत्महत्याओं, बढ़ती बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और चरमराती प्रशासनिक मशीनरी जैसे अहम प्रश्नों पर उसे कोई जवाब नहीं देना पड़ रहा है। इसके बावजूद अगर सत्ता प्रतिष्ठान को मौका मिल जाए तो वह मीडिया पर अंकुश लगाने से बाज नहीं आएगा। इसके जरिए वह उन समाचार माध्यमों को काबू में करने की कोशिश कर सकता है जिनका अभी 'टैबलॉयडाइजेशन` नहीं हुआ है। इसलिए समय आ गया है जब समाचार माध्यमों के कामकाज में आत्मनियमन, जवाबदेही और पारदर्शिता की प्रक्रिया को संस्थाबद्ध बनाने के मुद्दे पर गंभीरता से विचार किया जाए। कहने की जरूरत नहीं है कि इसकी पहल सरकार के बजाए सार्वजनिक जीवन में सक्रिय संस्थाओं और समूहों और सबसे बढ़कर मीडिया समूहों की ओर से होनी चाहिए। 'द हिंदू` और 'सकाल` ने पाठक संपादक नियुक्त करके इस दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल की है। जरूरत इस बहस को आगे बढ़ाने की है।


हालांकि भारत में 'द हिंदू या 'सकाल` पहले पहला अखबार नहीं हैं जिन्होंने इस तरह की आंतरिक आलोचना और सुधार की संस्थाबद्ध कोशिश की है। इससे पहले 80 के दशक में 'द टाइम्स आफ इंडिया` समूह ने न्यायमूर्ति पी एन भगवती को अपने अखबार का ओम्बुडसमैन या हिंदी में कहिए तो खबरपाल नियुक्त किया था। लेकिन उसका यह प्रयोग अल्पजीवी साबित हुआ। उसने पी एन भगवती के कार्यकाल के पूरा होने के बाद पूर्व महालेखाकार टीएन चतुर्वेदी को इस पद पर नियुक्त किया लेकिन उसके बाद किसी की नियुक्ति नहीं हुई और बहुत खामोशी के साथ यह व्यवस्था खत्म कर दी गई। वैसे 'टाइम्स आफ इंडिया` समूह का यह प्रयोग इसलिए बहुत उल्लेखनीय साबित नहीं हो पाया क्योंकि उसके खबरपालों ने वह सक्रियता नहीं दिखाई या उन्हें दिखाने नहीं दिया गया जिसकी उनसे अपेक्षा की गयी थी।


दरअसल, मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर यह सवाल हमेशा से तीखी बहसों और विवादों का विषय रहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सर्वोच्चता को ध्यान में रखते हुए समाचार माध्यमों की निगरानी और जवाबदेही निश्चित करने का क्या तरीका होना चाहिए? एक तरह से इस मसले पर अब तक आत्मनियमन की व्यवस्था अपनाने को लेकर आम सहमति रही है। इसके तहत पहले यह माना जाता था कि समाचार माध्यमों के अंदर गलतियों को पकड़ने और सुधारने की संपादकीय व्यवस्था पर्याप्त है। लेकिन बाद में संपादकीय व्यवस्था की सीमाएं साफ दिखने लगीं। खासकर हाल के वर्षों के अनुभवों से यह साफ है कि यह व्यवस्था न सिर्फ इस जिम्मेदारी को पूरा करने में नाकाम रही है बल्कि कुछ मामलों में तो गलतियों और गड़बड़ियों को प्रश्रय देने का काम कर रही है।


इस बीच, मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में स्वयं संपादक नाम की संस्था को लगातार कमजोर करने या पूरी तरह से खत्म करने की कोशिशें भी तेज हुईं हैं। कई अखबारों में आज मालिक ही संपादक हैं और कई में संपादक की भूमिका बदलकर मैनेजर की हो गई है। उसका प्राधिकार लगातार छीजता जा रहा है। ऐसे में, संपादक के स्तर पर गलतियों और गड़बड़ियों के सुधार-संशोधन की गुंजाइश लगातार कम होती जा रही है। इसी तरह आत्मनियमन की अन्य व्यवस्थाएं- पत्रकारीय आचार संहिता और प्रेस कांउसिल जैसी संस्थाएं भी एक हद तक ही उपयोगी साबित हुई हैं और पिछले वर्षों के अनुभवों से उनकी सीमाएं साफ हो गईं हैं।


इसलिए अब आत्मनियमन की व्यवस्था के तहत ही समाचार माध्यमों में संपादकीय व्यवस्था से अलग ओम्बुडसमैन या खबरपाल नियुक्त करने की मांग जोर पकड़ रही है। एक अमेरिकी अखबार 'सैक्रेमेंटो बी' के ओम्बुडसमैन रह चुके आर्थर सी नाउमन के मुताबिक ओम्बुडसमैन या खबरपाल वह व्यक्ति है जो लोगों से शिकायते प्राप्त करता है, उनकी जांच करता है और विवादों के उचित समाधान की कोशिश करता है। वह एक तरह से अखबार का आंतरिक आलोचक है लेकिन वह संपादकीय नियंत्रण से स्वतंत्र है। हालांकि ओम्बुडसमैन की व्यवस्था बहुत पुरानी है और कुछ इतिहासकारों के मुताबिक इसकी शुरूआत स्वीडन से हुई लेकिन दुनियाभर में समाचार माध्यमों में ओम्बुडसमैन के जिस रूप को हम आज देख रहे हैं, वह चालीस-पच्चास साल से अधिक पुराना नहीं है। वैसे कुछ लोग मानते हैं कि जापानी समाचारपत्र 'असाही शिम्बुन` ने 1920 के दशक की शुरूआत में ही पाठक प्रतिनिधि की नियुक्ति करके इसकी शुरूआत की थी।


बहरहाल, आज दुनिया के कई देशों में ओम्बुडसमैन की व्यवस्था काम कर रही है। हालांकि इस संस्था के नाम, स्वरूप, सेवाशर्तों और कामकाज के दायरे में काफी विभिन्नताएं हैं लेकिन सबके पीछे मूलभावना एक ही है। ओम्बुडसमैन को कहीं रीडर्स एडीटर, कहीं पब्लिक एडीटर, कहीं रीडर्स रिपे्रजेंटेटिव कहा जाता है। कुछ समाचार माध्यम बाहर के वरिष्ठ पत्रकारों को और कुछ अपने ही संस्थान में काम कर रहे वरिष्ठ पत्रकारों को इस पद पर नियुक्त करते हैं। कुछ समाचार माध्यम खबरपाल को निश्चित समयावधि के लिए नियुक्त करते हैं और सेवाशर्त के मुताबिक बाद में उन्हें अपने यहां कोई नौकरी नहीं देते ताकि उनकी स्वतंत्रता बनी रहे। कुछ समाचार माध्यम खबरपाल के कार्यकाल को आपसी सहमति के आधार पर लंबे समय तक विस्तार देते रह सकते हैं।


खबरपाल के कार्यक्षेत्र में समाचार माध्यम की गलतियों और गड़बडियों पर नजर रखना, उसके लिए जिम्मेदारी तय करना, संपादकीय विभाग को उससे अवगत कराना और सार्वजनिक तौर पर सुधार-संशोधन की व्यवस्था को लागू करना होता है। वह इसके लिए न सिर्फ पाठकों और दर्शकों की शिकायतंे सुनने की संस्थाबद्ध व्यवस्था बनाता है बल्कि समाचार माध्यम के कामकाज में बरती जा रही गलतियों और गड़बड़ियों पर वह स्वतंत्र रूप से भी कार्रवाई करता है। अधिकांश समाचार माध्यमों ने खबरपालों को अखबार में अपनी बात कहने के लिए साप्ताहिक कालम या टेलीविजन पर साप्ताहिक कार्यक्रम के लिए समय दिया हुआ है। समाचार माध्यम उसके द्वारा दिए गए फैसलों, सुधारों-संशोधनों और उसके विचारों के प्रकाशन और प्रसारण पर रोक नहीं लगा सकते।


खबरपाल किसी भी शिकायत की जांच करते हुए अखबार के संपादकीय विभाग से जुड़े संबंधित सदस्य को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर देता है। लेकिन जांच-पड़ताल के बाद वह स्वतंत्र निर्णय लेता है और उससे न सिर्फ वरिष्ठ संपादक और प्रबंधन को अवगत कराता है बल्कि पाठकों भी उसकी जानकारी देता है। खबरपाल समाचार माध्यम के दफ्तर में ही बैठता है और अधिकांश समाचार माध्यमों में उसे यह अधिकार प्राप्त है कि वह संपादकीय बैठकों में शामिल हो सकता है। यह संभव है कि कई बार शिकायतें सही न हों लेकिन पाठकों को यह लगता है कि कोई उनकी भी बात सुनने और उसपर जांच-पड़ताल करने वाला है। एक तरह से वह पाठक-दर्शक और समाचार माध्यम के बीच पुल और संवाद के सक्रिय मंच की तरह काम करता है।


यह ठीक है कि कई समाचार माध्यमों ने खबरपाल की नियुक्ति अपनी छवि सुधारने या कहिए कि एक 'पीआर एक्सरसाइज` के बतौर की है। यह भी ठीक है कि सबकुछ के बावजूद आज भी पूरी दुनिया में मुश्किल से 50 के आसपास ओम्बुडसमैन काम कर रहे हैं और अधिकांश समाचार माध्यमों ने इस विचार को अब तक स्वीकार नहीं किया है। लेकिन यह भी सही है कि हाल के वर्षों में खासकर मुख्यधारा के समाचार मीडिया पर कारर्पोरेट नियंत्रण बढ़ने के साथ जिस तरह की गलतियां और गड़बड़ियां हो रही है उसे देखते हुए खबरपाल की प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है।


खबरपाल की प्रासंगिकता का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है कि जिन समाचार माध्यमों ने इस व्यवस्था को अपनाया है, उनमें से अधिकांश यह स्वीकार करते हैं कि खबरपाल की मौजूदगी के कारण न सिर्फ पाठकों का उनमें विश्वास बढ़ा है बल्कि समाचार माध्यम की गुणवत्ता में भी काफी सुधार हुआ है। दरअसल, एक सक्रिय और स्वतंत्र खबरपाल की मौजूदगी के कारण समाचार माध्यमों के संपादकों और संवाददाताओं में अतिरिक्त सतर्कता देखी जाती है। समाचार माध्यमों की गलतियों पर खुली चर्चा के कारण अच्छी पत्रकारिता को भी प्रोत्साहन मिलता है क्योंकि एक खबरपाल समाचार माध्यम में पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों और नैतिक मूल्यों-वस्तुनिष्ठता, निष्पक्षता, संतुलन, सच्चाई और जनहित के पालन की गारंटी करता है। उसके जरिए समाचार माध्यम में पाठकों और दर्शकों की भागीदारी भी बढ़ती है।


खबरपाल अपने साप्ताहिक स्तंभों के जरिए पाठकों में एक तरह से मीडिया साक्षरता पैदा करने का काम भी करता है। वह पाठकों को समाचारपत्रों को पढ़ने और समझने के सूत्र देता है और एक तरह से उन्हें जागरूक पाठक के रूप में तैयार करता है। इस तरह से वह हजारों छोटे-छोटे खबरपाल तैयार कर देता है। पाठकों की जागरूकता बढ़ने के साथ ही समाचारपत्र पर अपनी गुणवत्ता बढ़ाने का दबाव भी बढ़ता जाता है। एक तरह से वह कुल मिलाकर पत्रकारिता के भविष्य के लिए एक बेहतर जमीन तैयार करने की कोशिश करता है।


उम्मीद करनी चाहिए कि 'द हिंदू` और 'सकाल` की पहल को फलने-फूलने का पूरा मौका मिलेगा। इस प्रयोग पर न सिर्फ मीडिया से जुड़े लोगों की बल्कि मीडिया के स्वास्थ्य में रूचि रखने वाले हर नागरिक की निगाह है। 'द हिंदू` और 'सकाल` को अपने खबरपालों को ऐसा माहौल और पूरी स्वतंत्रता देनी होगी ताकि वे अपने काम से भविष्य के खबरपालों के लिए एक मानदंड कायम कर सकें। लेकिन इस प्रयोग की सफलता में पाठकों की भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होगी। उनकी सक्रियता से ही खबरपालों को ताकत मिलेगी।

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