शनिवार, सितंबर 29, 2007

स्टिंग बनाम कलम और स्याही की पारंपरिक खोजी पत्रकारिता

बीता साल स्टिंग ऑपरेशनों के नाम रहा। कलम पर कैमरा भारी पड़ा। यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि फिलहाल, छुपे हुए कैमरे की पत्रकारिता ने पारम्परिक खोजी पत्रकारिता को पीछे छोड़ दिया है। कोई चार साल पहले तहलका के ऑपरेशन वेस्टएंड के जरिए रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार के खुलासे के साथ शुरू हुई स्टिंग पत्रकारिता आज टेलीविजन में खोजी पत्रकारिता की मुख्यधारा बनती जा रही है। शायद ही कोई सप्ताह या पखवाड़ा गुजरता हो जब किसी न किसी समाचार चैनल पर छुपे कैमरे का कमाल या कहें कि धमाल न दिखता हो।

कहने की जरूरत नहीं है कि छुपे कैमरों की अति सक्रियता ने संसद से लेकर छोटे-बड़े सरकारी दफ्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को टेलीविजन के पर्दे पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। साल गुजरते-गुजरते पूरे देश ने 'ऑपरेशन दुर्योधन` और 'ऑपरेशन चक्रव्यूह` के जरिए इस जानी-पहचानी हकीकत को खुद अपनी आंखों से देखा कि देश की सबसे बड़ी पंचायत के माननीय सदस्य न सिर्फ अपने सबसे बुनियादी काम सवाल पूछने के बदले में पैसे वसूल रहे हैं बल्कि सांसद निधि से होने वाले ''विकास`` के कामों के लिए खुलेआम कमीशन खा रहे हैं। आप कह सकते हैं कि इसमें नई बात क्या है ?

नई बात यह है कि छुपे हुए कैमरे के कारण यह संभव हुआ है कि अब तक जो पर्दे के पीछे खुलेआम चलता था और जिसके बारे में हर खासोआम को पता था, लेकिन जिसे साबित करना मुश्किल था, वह सजीव रूप में सारी दुनिया के सामने आ गया है। अब उस गलाजत को झुठलाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर हो गया है। कैमरा तकनीक में विकास के साथ सबकुछ साफ-साफ दिखाना आसान हो गया है। हालांकि स्टिंग ऑपरेशनों में अभी तक इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर कोई बड़ी मछली नहीं फंसी है लेकिन यह तो मानना पड़ेगा कि छुपा हुआ कैमरा भ्रष्टाचार के खिलाफ एक ताकतवर हथियार के रूप में उभरकर सामने आया है। समाचार चैनलों ने इस हथियार का जमकर इस्तेमाल भी कर रहे हैं।

लेकिन इसके साथ ही स्टिंग ऑपरेशनों की नैतिकता, वैधता, प्रासंगिकता और उसके औचित्य पर गंभीर सवाल भी उठने लगे हैं। छुपे हुए कैमरे की पत्रकारिता पर सवाल उठाने वालों में दोनों तरह के लोग हैं। पहले खेमे में वे राजनेता, अफसर और प्रभावशाली लोग हैं जो परोक्ष या अपरोक्ष रूप से स्टिंग ऑपरेशनों की मार झेल रहे हैं। दूसरे खेमे में वे लोग हैं जो पत्रकारिता के बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर स्टिंग ऑपरेशनों की नैतिकता और वैधता पर सवाल उठा रहे हैं। दोनों ही खेमों के कई तर्क समान हैं हालांकि सवाल उठाने के पीछे के मकसद में फर्क है।

स्टिंग ऑपरेशनों के खिलाफ सबसे बड़ी आपत्ति यह उठाई जा रही है कि यह किसी व्यक्ति की निजी गोपनीयता या एकांत का उल्लंघन है। उनका तर्क है कि छुपे हुए कैमरे के जरिए किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के बीच के कार्य व्यापार को रिकार्ड करना और उसे सबके सामने पेश करना न सिर्फ अनैतिक और अवैध है बल्कि भरोसे को तोड़ना भी है। कानूनन सभी को अपनी गोपनीयता या एकांत की रक्षा का अधिकार है और छुपा हुआ कैमरा इसी निजी एकांत को भंग करता है। हर व्यक्ति को अपने तरीके से निजी जीवन जीने का अधिकार है और उसमें किसी भी दूसरे व्यक्ति को यानी छुपे हुए कैमरे को घुसपैठ करने का कोई हक नहीं है। यह तर्क बहुत हद तक जायज है।

दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि स्टिंग ऑपरेशनों में मूलत: किसी व्यक्ति को लालच देकर फंसाया जाता है जो कि किसी भी तरह से उचित या नैतिक नहीं माना जा सकता है। यह तर्क देने वालों का कहना है कि जब किसी व्यक्ति को पैसे या स्त्री शरीर जैसा कोई प्रस्ताव दिया जाता है तो उसे ठुकरा पाना बहुत कम लोगों के लिए संभव है। उनकी दलील है कि इसका अर्थ यह नहीं है कि इस तरह के किसी प्रस्ताव के लालच में आ जाने वाला व्यक्ति मूलत: भ्रष्ट या बदचलन है।

कहने की जरूरत नहीं है कि इन दोनों ही तर्कों में खासकर पहले तर्क में एक हद तक दम है। स्टिंग ऑपरेशनों के साथ दोनों ही बातें काफी हद तक सही हैं कि उसमें व्यक्ति की निजी गोपनीयता या एकांत का उल्लंघन होता है और साथ ही उसे लालच देकर फंसाया जाता है। लेकिन जो लोग इन दोनों तर्कों के आधार पर भ्रष्ट और अपराधी राजनेताओं और अफसरों को बचाने की कोशिश और स्टिंग ऑपरेशनों पर रोक लगाने की मांग कर रहे हैं वे दरअसल, गाड़ी को घोड़े के आगे रखने की कोशिश कर रहे हैं। यह ऐसे ही है जैसे भ्रष्ट, अपराधी और दुष्ट लोग कुरान की आयतें पढ़ रहें हों या फंस जानेपर नीति शास्त्रों की दुहाइयां दे रहे हों।

हैरत की बात यह है कि लालच देकर फसाए जाने का आरोप वे लोग लगा रहे हैं जो सार्वजनिक जिम्मेदारी के पदों पर बैठे हैं और जिनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे लोभ और लालच से दूर रहकर काम करेंगे। मजे की बात यह है कि वे इसकी शपथ भी लेते हैं। ऐसे मामले अपवाद ही होंगे जिसमें कोई राजनेता या अफसर भ्रष्ट न होते हुए भी तात्कालिक लालच या झांसे में फस जाए। इसके उलट इस बात की संभावना अधिक है कि वह आदती तौर पर भ्रष्ट हो। इसी तरह से सार्वजनिक जीवन में सक्रिय लोगों की निजी जीवन में हस्तक्षेप की शिकायत में बहुत दम नहीं है। अगर उनके निजी जीवन के कार्य व्यापार का संबंध उनके सार्वजनिक जीवन से जुड़ता है तो समाज को न सिर्फ उसकी जांच-पड़ताल का हक है बल्कि वह उसमें हस्तक्षेप भी कर सकता है।

यह सही है कि छुपे हुए कैमरे की पत्रकारिता की गहरी सीमाएं हैं। यह भी सही है कि 50 फीसदी से ज्यादा स्टिंग ऑपरेशनों का उद्देश्य सिर्फ सनसनी पैदा करना है। खासकर मशहूर और ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के निजी जीवन और उनके बेडरूम में ताक-झांक के पीछे मकसद दर्शकों को छिछले स्तर का परपीड़क सुख और रतिक आनंद देना होता है। छुपे हुए कैमरे के जरिए किसी मशहूर और प्रभावशाली व्यक्ति के वैध-अवैध संबंधों और सेक्स लाइफ को दिखाने से आखिर कौन सा और किसका सार्वजनिक हित सधता है ? जबतक किसी के अवैध संबंधों की छाया सार्वजनिक हित के मुद्दों और नीति निर्णयों पर न पड़ रही हो तो उससे किसी और को क्यों मतलब होना चाहिए ? दोहराने की जरूरत नहीं है कि दो वयस्क लोगों के बीच आपसी सहमति के आधार पर बनने वाले सेक्स संबंधों में कुछ भी गैर कानूनी नहीं हैं और किसी को भी इस तरह के मामलों में नैतिक पुलिसिंग का अधिकार नहीं है, बशर्ते उस संबंध का असर किसी सार्वजनिक हित के सवाल पर न पड़ रहा हो।

ध्यान रहे कि पत्रकारिता का संबंध सार्वजनिक हित (पब्लिक गुड) से है और वही एक मात्र कसौटी है जिसके आधार पर स्टिंग पत्रकारिता के औचित्य, नैतिकता और प्रासंगिकता को कसा जा सकता है। अगर किसी मामले में सार्वजनिक हित जुड़ा हुआ हो और सच्चाई को सामने लाने के लिए पत्रकार के पास और कोई चारा न हो तो छुपे हुए कैमरे के इस्तेमाल में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जैसा कि हर ताकतवर और मारक हथियार के साथ होता है, छुपे कैमरे का इस्तेमाल सबसे आखिरी उपाय के रूप में ही करना चाहिए। छोटे-मोटे अपराधियों के पर्दाफाश के लिए इस हथियार का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। अन्यथा इससे इसका प्रभाव कम होने लगेगा और धीरे-धीरे यह मजाक का विषय बन सकता है।

लेकिन अगर इसका सावधानी से और काफी सोच समझकर इस्तेमाल किया जाए तो यह सार्वजनिक जीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और अनियमितताओं के खुलासे का एक कारगर औजार बन सकता है। जो लोग भी स्टिंग पत्रकारिता पर रोक लगाने या उसे अमरीका की तरह कानूनी प्रक्रियाओं के तहत लाने की मांग कर रहे हैं उनकी मांग का विरोध होना चाहिए। यह ठीक है कि स्टिंग पत्रकारिता के नाम पर काफी गड़बड़िया भी हुई हैं और संभव है कि आगे भी हों लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उन कुछ गड़बड़ियों को रोकने के नाम पर उसके जरिए जो कुछ अच्छे काम यानि शीर्ष स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ हो पा रहा है, उस संभावना की ही हत्या कर दी जाए।

तथ्य यह है कि स्टिंग पत्रकारिता के नाम पर बेडरूम में घुसने की जो शुरूआती कोशिशें हुईं, उसका जिस तरह से प्रतिवाद हुआ और उस पर जिस तरह से मीडिया के अंदर बहस चली, उसके बाद उस प्रवृत्ति को एक विचलन मानते हुए खारिज कर दिया गया। यही कारण है कि इंडिया टीवी मार्का स्टिंग पत्रकारिता को कभी जन स्वीकृति नहीं मिली और वह स्टिंग पत्रकारिता की मुख्यधारा नहीं बन सकी है। इसके उलट स्टिंग पत्रकारिता का वह रूप जिसमें शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार को सामने लाने की कोशिश की गई है, उसे एक सामाजिक स्वीकृति मिली है। आश्चर्य नहीं कि उसके दबाव में आपरेशन दुर्योधन के बाद संसद ने अपने दागी सदस्यों को निकाल बाहर फेंकने में बिलकुल देर नहीं लगाई।

लेकिन इस सब के बावजूद यह कहना पड़ेगा कि स्टिंग पत्रकारिता कलम, स्याही, खोजबीन और प्रतिबद्धता की उस खोजी पत्रकारिता की जगह कभी नहीं ले सकती है जिसने दुनियाभर में सरकारों को हिला देने वाली खबरों का पर्दाफाश किया। यह याद रखना चाहिए कि चाहे वह वाटरगेट कांड रहा हो या अपने देश में बोफर्स कांड या फिर ऐसे ही अनेकों घोटाले या अनियमितताएं उनका खुलासा कभी भी छुपे हुए कैमरे से नहीं बल्कि कलम और विश्वसनीय सूत्रों की पारम्परिक पत्रकारिता ने ही किया। यह कैमरे की सीमा है कि वह छवियों तक सीमित है। लेकिन वास्तविक खोजी पत्रकारिता में सैकड़ों सरकारी फाइलों को खंगालने से लेकर उनके बीच के तारों को जोड़ने और उनकी व्याख्या का लंबा सिलसिला होता है।

यह काम कैमरा नहीं कर सकता। यह एक प्रतिबद्ध पत्रकार ही कर सकता है। एक खोजी पत्रकार में जिन क्षमताओं की जरूरत है, वह कैमरे में हो ही नहीं सकती है। कैमरा एक माध्यम भर है, वैसे ही जैसे कलम और स्याही। उसका इस्तेमाल कौन कर रहा है, यह सबसे अहम मसला है। एक खोजी पत्रकार मूलत: तथ्यों की छानबीन, उनका विश्लेषण और कानूनी प्रक्रियाओं से उनके अंतर्संबंधों की व्याख्या करता है। लेकिन छवियों तक सीमित स्टिंग पत्रकारिता उन प्रक्रियाओं और तथ्यों के बीच के अंतर्संबंधों की अनदेखी कर देती है जो वास्तव में भ्रष्टाचार और अनियमितताओं को फलने-फूलने का मौका देती है।

इसका नतीजा यह होता है कि भ्रष्टाचार और अनियमितताओं की सांस्थानिक प्रक्रिया को निशाना बनाने के बजाय कुछ छोटे-बड़े चेहरों को ही भ्रष्टाचार का पर्याय मान लिया जाता है। लेकिन कुछ सांसदों, अफसरों और कुछ प्रभावशाली लोगों को खलनायक बना देने मात्र से भ्रष्टाचार की सांस्थानिक जड़ों को कोई नुकसान नहीं होता है। उल्टे ऐसा लगता है जैसे पूरी व्यवस्था तो बिल्कुल पाक-साफ है लेकिन कुछ गंदी मछलियां इस पवित्र तालाब में चली आईं हैं। इससे वह भ्रष्ट व्यवस्था निशाने पर आने से बच जाती है।

दरअसल, छुपे हुए कैमरे की यह सबसे बड़ी सीमा है कि वह शीर्ष स्तर पर व्याप्त बड़े भ्रष्टाचार और अनियमितताओं और उनके पीछे छिपी प्रक्रियाओं को कभी सामने नहीं ला सकता है। और अब तो ऐसी भी तकनीक आ गई है कि उसे किसी खास कमरे या मकान में लगा देने के बाद खुफिया कैमरे उस खास इलाके में काम नहीं करेंगे। उस समय क्या होगा ? तकनीक की यही सीमा है। एक तकनीक को दूसरी तकनीक काट सकती है।

इसलिए पारंपरिक खोजी पत्रकारिता का कोई विकल्प नहीं है, स्टिंग पत्रकारिता भी नहीं। अफसोस की बात यह है कि जिस दौर में स्टिंग पत्रकारिता की तूती बोल रही है, उस दौर में पारंपरिक खोजी पत्रकारिता नेपथ्य में चली गई है।

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